Malabika Dhar
4 July, 2023
क्या है Anti-defection कानून?
साल 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में anti defection यानि दल-बदल विरोधी कानून लाया गया। संविधान की दसवीं अनुसूची में यह कानून दिया है। यह विधायकों को उनके राजनीतिक दलों से अलग होने से रोकने के उपाय के रूप में शुरू की गई थी।
यह उन सांसदों या विधायकों को अयोग्य घोषित करने की प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करता है, जो अपनी इच्छा से पार्टी छोड़कर या पार्टी व्हिप के विरुद्ध मतदान करके दल बदल करते हैं। व्हिप किसी भी राजनीतिक दल के अधिकारी को कहते हैं, जिसका काम विधायिका में पार्टी अनुशासन सुनिश्चित करना होता है।
कैसे काम करता है Anti-defection कानून
Anti-defection कानून के तहत, यदि कोई सांसद या विधायक मतदान से अनुपस्थित रहता है या किसी मुद्दे पर पार्टी व्हिप के खिलाफ मतदान करता है, तो उसे अपनी सीट खोने का जोखिम होता है। यह कानून संसद और राज्य विधान सभाओं दोनों पर लागू होती है।
दो परिस्थितियों में दल बदल कानून को नहीं माना जाता है। अगर किसी राजनीतिक दल के एक-तिहाई सांसद या विधायक उससे इस्तीफा दे देते हैं, या यदि दो-तिहाई सांसद या विधायक किसी अन्य पार्टी में विलय कर लेते हैं।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल काफी अहम भूमिका अदा करते हैं। किसी भी नेता को जनता किसी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में देखती है तो उसके साथ पार्टी के सिद्धांत जुड़े होते हैं। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के फैसले सामूहिक रूप से होने चाहिए।
इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की प्रथा को समाप्त करना था, जो 1970 के दशक में काफी प्रचलित था।
अक्तूबर 1967 को हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल-बदलकर इस मुद्दे को राजनीतिक मुख्यधारा में ला दिया। इसके बाद, बदलते राजनीतिक परिदृश्य में संविधान संशोधन के ज़रिये दल-बदल विरोधी कानून लाया गया।