Site icon Youth Ki Awaaz

हिमाचल का एक गांव जो अपने पशुओं के स्वागत में उत्सव मनाता है

आस्था चौधरी

कुल्लू जिला, हिमाचल प्रदेश

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में तीर्थन घाटी के बीचोंबीच 8 हजार फीट की ऊंचाई पर पेखरी नाम का एक गांव स्थित है। क्षेत्र के अन्य गांवों की तरह, पेखरी में रहने वाला समुदाय भी अपने जीवनयापन के लिए पशुपालन और खेती पर ही निर्भर है। हिमाचल की दुरूह जलवायु परिस्थितियों को देखते हुए, इलाक़े में पशुधन का मौसमी प्रवास महत्वपूर्ण हो गया है ताकि सभी जानवरों के अस्तित्व और जीवन को सुनिश्चित किया जा सके।

प्रत्येक वर्ष मई माह में, 700–800 मवेशियों को चरने के लिए ऊपर वाले हिस्से में स्थित सार्वजनिक भूमि में भेज दिया जाता है। इन मवेशियों के साथ गांव के दो पुरुष भी जाते हैं और 15–20 दिनों में उनके वापस लौटने के बाद दो अन्य लोग उनकी जगह पर जाते हैं। नवम्बर तक चलने वाले इस प्रवास के दौरान यह चक्र चलता रहता है। गांव की 22 वर्षीय एक महिला सोनू कहती हैं कि, ‘इन महीनों में, हमारी गैसिनिस (पारंपरिक चरागाह) में पर्याप्त रूप से चारा उपज जाता है, जिन्हें सर्दियों के आने से पहले काटकर रख लेते हैं। मवेशियों के लिए यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि बर्फबारी के दौरान पहाड़ों से वापस लौटने के बाद वे इसे ही खाते हैं।’

मवेशियों के गांव से प्रवास के बाद, गांव में लोग पट्टू (शॉल) की बुनाई, फसलों की बोआई, मधुमक्खी पालन और सर्दियों के लिए चारा जमा करने जैसे दूसरे काम जारी रखते हैं।

मवेशियों के वापस लौटने पर गांव वाले जश्न मनाते हैं। सभी लोग गांव के प्रवेश द्वार पर इकट्ठा होते हैं, जयकार कर और तालियां बजाकर उन मवेशियों का स्वागत करते हैं। अपने मवेशियों की गिनती करते हुए वे उनकी आरती और पूजा भी करते हैं। घरों के दरवाज़ों को बुरुश के पत्तों से सजाया जाता है, और पूरे गांव में मुडी के लड्डू (मक्के या ज्वार से बनी) नाम की मिठाई बांटी जाती है।

पेखरी के ही निवासी चन्देराम बताते हैं कि ‘हम इस त्योहार को इसलिए मनाते हैं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ये पशुधन ही हमारी आजीविका का एक मात्र स्रोत रहे हैं। जब हमारे मवेशी पहाड़ों से सुरक्षित वापस लौट आते हैं तब हम उनका स्वागत अपने बच्चों की तरह करते हैं।’ इस त्योहार को कातिक खड्डू पूजा कहते हैं।

हालांकि, लगातार बढ़ते निर्माण कार्य, वनों की कटाई के कारण चरागाह की सार्वजनिक ज़मीन में आई कमी आई है। इन कारणों ने मवेशियों के इस प्रवास की अवधि को लंबा और अपेक्षाकृत कठिन, दोनों बना दिया है। इलाक़े में रहने वाला समुदाय सर्दी के महीनों के लिए पर्याप्त चारा भी नहीं इकट्ठा कर पाता है।

मवेशियों के प्रवास के दौरान उनके साथ जाने वाले गांव के निवासी ताराचंद कहते हैं कि ‘बदलती जलवायु और मवेशियों का आर्थिक मूल्य कम होने के कारण, गांव के कुछ लोग अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर मज़दूरी और खेती के काम की तरफ जा रहे हैं। बढ़ती आबादी के कारण पारंपरिक चरागाह भूमि में कमी आई है। लेकिन अपनी पहचान को बचाए रखने और अपनी जड़ों से वास्तव में जुड़े रहने के लिए हम इस परंपरा को अब भी निभा रहे हैं।’

आस्था चौधरी उत्तर प्रदेश में मानव-वन्यजीव संबंधों का अध्ययन करने वाली एक शोध छात्रा हैं। वे कोएग्जिसटेंस कंसोर्टियम से जुड़ी हुई हैं।

यह आलेख आईडीआर हिंदी पर प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहां पढ़ सकते हैं। 

Exit mobile version