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“जनतंत्र और लोकतंत्र से परे भारत बन रहा है एक भीड़तंत्र”

दुनिया में आज के समय में सबसे आसान काम हो गया है किसी बात से आहत होना, और आहत होकर हिंसा पर उतर आना. हम जिस समाज में रहते है उसमें धर्म, संस्कृति, समुदाय, जाति आदि सब ऐसी चिंगारियां बन चुकी है जिनके ज़िक्र भर से मोहल्ले जलने लगे है. लोग भीड़ का हिस्सा बन चुके है, और जब कोई भीड़ का हिस्सा बन जाता है तो सोचने समझने की अपनी व्यक्तिगत क्षमता खो देता है, और एक ऐसे समाज का अनुसरण करने लगता है जिसे नहीं पता कि वो कौनसे दिशा को जा रही है, लेकिन अगर कोई ये बात उनको टोककर कह दे, तो भीड़ उसे अपने चरित्र और अपने अस्तित्व पर हमला समझ लेती है. जनतंत्र और लोकतंत्र से परे राष्ट्र एक भीड़तंत्र के युग में प्रवेश करता जा रहा है जिसे समझना तो मुश्किल है ही, समझाना और भी मुश्किल है.

आये दिन सोशल मीडिया पर, न्यूज़ में अखबारों में, कोई न कोई चिल्ला रहा होता है. हर किसी को लगता है कि उसके साथ गलत हुआ है, अगर उसके साथ नहीं तो उसके समुदाय या संस्कृति के साथ हुआ, अगर अभी नहीं हुआ तो इतिहास में हुआ है. नफरत इतनी कूट कूटकर भर दी गयी है हमारे अंदर कि किसी का इस धरती पर होना भी हमको चुभ सकता है. हर धर्म यही मानकर चलता है कि उसका सत्य ही एकमात्र सत्य है, महान सत्य है, और अगर आप उस सत्य को नहीं मानते या उसकी आलोचना करते है तो आप पापी है. सोशल मीडिया पर हमारे अलग अलग धर्मो के मित्र है. एक का स्टेटस उठा कर देखो तो लगता है कि उनके ईश्वर को न मानने वाले आतंकवादी से भी बदतर है. दुसरे का देखो तो वो आधुनिकता को दूसरे धर्म की साज़िश बताकर हज़ार साल पीछे जाकर पुरातन संस्कृति को अंगीकार करने और दूसरे धर्म में मौजूद सभी विचारो के खंडन की मुहीम चलायी हुई है. अपने धर्म को महान दिखाने के लिए दूसरो को नीचा दिखाने की जिस हीं भावना से हमारा समाज ग्रसित है, उसका इलाज ढूंढे नहीं मिलता. हीन भावना इतनी कि धर्म बचाने की लिये इतिहास बदला जा रहा है. सरकार जो इतिहास पर मंथन कर रही है वो तो अलग बात है, पर सोशल मीडिया पर अलग ही इतिहास लिखा जा रहा है. इस इतिहास का कोई साक्ष्य नहीं पर साक्ष्य की इन्हे ज़रूरत भी नहीं, क्योंकि ये तो वो इतिहास है “जो दुनिया से छुपाया गया था” और इसका साक्ष्य इसलिए नहीं मिलता क्योंकि ये सच दुनिया से छुपाया गया है तो साक्ष्य कहाँ से मिलेगा. पहले आप ये मानिये कि अभी तक इतिहास में जो भी लिखा गया है वो किसी वर्ग विशेष कि साज़िश है, फिर आप ये भी मानिये कि इतिहास कि किताबों में जो लिखा जा रहा है वो बकवास है क्योंकि उसको लिखने वाले एक ख़ास विचारधारा के लोग है. और जब आपने इतिहास को धराशायी कर दिया है तो जो मर्ज़ी लिखिए. दूसरे समुदाय की अगर कोई खूबी है तो उसपर तुरंत ऊँगली लगा दो. पिछले कुछ दिनों में मुझे ज्ञात हुआ कि बिरयानी का अविष्कार महाभारत के राजा नल ने किया, कुतुबुद्दीन ऐबक को मारने वाला घोडा एक राजपूत राजा का घोडा था जिसने अपने मालिक की मौत का प्रतिशोध लिया, और दूसरे समुदाय की तरफ से ये कि योग वास्तव में सूअर का प्रतिनिधत्व करता है और इसलिए शैतानी है. जन गण मन को टैगोर ने नहीं सुभाष चंद्र बोस ने लिखा था, महात्मा गाँधी ब्रिटिश सरकार के एजेंट थे ये सारा इतिहास पिछले कुछ सालो में प्रकट हुआ है. और हमारी भीड़ बस कमेंट में लिखे जाती है- ये इतिहास तो हमसे हज़ारो सालो से छुपाया गया.

लोग भीड़ बनने लगे तो समझ में दोष दिया जाता है कि अज्ञानी है, अपरिपक्व है. लेकिन जब ज्ञान कि धारा से ही ऐसे शब्द अंकुरित होने लगे तो आप अपने ज्ञान पर भी संदेह करने लगते है और उनके ज्ञान पर भी. धर्म के अलावा राजनीति वो क्षेत्र है जिसमे हर कोई अपना एक मत रखता है और जहाँ विरोधी मत होने पर व्यक्ति हिंसक हो जाता है. और जब धर्म राजनीति से मिल जाए तो उसका असर किसी केमिकल रिएक्शन से कम नहीं होता. तो हमारी एक  प्रोफेसर जो किसी नामी प्राइवेट यूनिवर्सिटी में हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट भी है, धर्म नगरी में एक राजनैतिक दल की हार पर गुस्सा उतार रही थी और कोस रही थी जनता को कि जिसने उनके लिए धार्मिक स्थल बनाया उनको ही वोट नहीं दिया. ये ज़हरीला विमर्श भी भारतीय समाज के भीड़तंत्र की देन है, जिसने धर्म को इतना ऊंचा स्थान दे दिया है कि ऐसा लगने लगा है कि ये समस्त संसार धर्म को चरितार्थ करने के उद्देश्य से अस्तित्व में है. अगर आप धर्म के लिए काम नहीं कर रहे है तो आप कुछ नहीं कर रहे है. अगर अपने अस्तित्व, अपनी इच्छाओ, आकांक्षाओं और उम्मीदों से चुनाव हो आपके धर्म का, तो लात मारिये ऐसे अस्तित्व को, जो धर्म का न हो सके. फ़ेंक दीजिये ऐसी उम्मीदों को बहार जो धर्म से न जुडी हो, और हो जाईये उस कतार में शामिल, जो अगर धर्म के नाम पर वोट न दे, अगर धर्म के बारे में न सोचे, और अपने जीवन के हर निर्णय में धर्म को शामिल न करे तो उसे शर्मिंदा होना पड़े. हाँ अगर अपने धर्म को बचाने के लिए जान देनी या लेनी भी पड़े तो वो गुनाह नहीं है, पर अगर धर्म के खिलाफ सांस भी ले लिए तो आप गुनहगार है.

सोशल मीडिया पर जाईये, चाहे बात कितनी भी सार्थक हो, विषय कितना भी गंभीर, घटना कितनी भी त्रासदीपूर्ण, कोई न कोई इस बात से आहत ज़रूर होता दीखता है कि आप केवल एक पक्ष क्यों उठा रही है. समाज में शांति लाने के दो तरीके होते है- या तो मिलझुलकर समाज में व्याप्त समस्याओ का समाधान खोजै जाए, या डरा धमकाकर सबकी आवाज़ बंद कर दी जाए. आपको सरकार से शिकायत है, तो आपको दूसरे देश चले जाने कि हिदायत मिलती है, आप पितृसत्ता के खिलाफ आवाज़ उठाये तो वो फेक केस के हवाले देकर पुरुषो के लिए इंसाफ मांगने लगेंगे, या  फिर क्रन्तिकारी महिलाओ को गालियों से नवाज़ा जाएगा. इस दौर में ऐसा कुछ नहीं रह गया है जिसको गाली न दी जा सके. फिर चाहे वो अबोध बालिका हो, विकलांग हो, व्यक्ति हो, संस्था हो, सब के सब घेरे में है. आप कुछ बोले तो सही, भीड़ की भीड़ चली आएगी कि अरे आप ने हमारे बारे में तो बोला ही नहीं, उनके बारे में कैसे बोला, ये तो सरासर पक्षपात है. आप कुछ नहीं बोले तो भीड़ इस बात के लिए आपको कठघरे में खड़ा कर देगी कि हमारे बारे में कुछ नहीं बोला, हम तड़पते रहे और आप खामोश देखते रहे. व्यक्ति को समझाया जा सकता है, लड़ा भी जा सकता है और जीता भी जा सकता है, लेकिन भीड़ न समझती है न हारती है. वो वही मानती है जो वो मानना चाहती है और जो वो मानती आई है.  भीड़ चाहे तो किसी को पल भर में भगवान् बनाकर उसके लिए मरने को तैयार हो जाती है, और चाहे तो किसी को शैतान बनाकर उसे मारने से भी नहीं चूकती. ये भीड़ किसी के घर को टूटता हुआ देख खुशियां मना सकती है, और किसी छोटी सी आलोचना पर व्यथित भी हो सकती है. ये भीड़ अलग समुदाय के लोगों की शादी पर आपत्ति जाता सकती है, और दिनदहाड़े हुई लूट पर चुप्पी भी साध सकती है. भीड़ दिशा नहीं बदलती. वो एक दिशा में देखती है, एक दिशा में सोचती है और एक दिशा में ही कार्य करती है.  और आज हम लोगों से नहीं भीडो से घिरे हुए है. हर कोई किसी के खिलाफ बोल रहा है, लेकिन पूरा सच कोई नहीं बोल रहा. और जब तक हम भीड़ है हम में से कोई सुरक्षित नहीं, क्योंकि जिस दिन हम भीड़ के सच से दूर हो जायेंगे, उस  दिन हम भीड़ के लिए खतरा बन जायेंगे.

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