यादें कुछ ऐसी हैं।
जो न चाहो फिर भी उभर आती हैं।
उन यादों में बचपन है, शरारत है।
नाराजगी है, नासमझी है।
कभी प्यार तो कभी गुस्सा है।
कभी बातें करती हूँ खुद से।
गर, ये यादें न होती तो क्या होता?
न उमंगें होती, न ही तरंगें होती।
बस किताबों के खाली पन्ने होते।।
और जिंदगी यूं ही गुजर रही होती।
आख़िर ये यादें ही तो हैं जो आस हैं।
अच्छे-बुरे पलों की खूबसूरत एहसास हैं।।
इन दो शब्दों में न जाने कितने विश्वास हैं।।
हंसी की, खुशी की, सुख और दुख की।
बातों की, चाहत की, गिरने और उठने की।
अपनों की और परायों की।
इन यादों से ही चेहरे की रंगत है।
इन यादों से ही तो चाहत है।
हर पल, हर क्षण ये यादें आकर।
न जाने कितने एहसास दे जाती हैं।
न चाहते हुए भी यादों को समेटना।
और फिर एक सुकून भरे पल में।
क्यों खलल दे जाती हैं?
ये यादें ऐसी कि याद आ ही जाती है।
हंसी की, ख़ुशी की, सुख और दुखों की।
दूरियों की, चाहत की, गिरने और उठने की।
अच्छे-बुरे समय की, गुलाबी अहसासों की।
ये यादें हैं कि बस याद आ ही जाती हैं।।
यह कविता मुजफ्फरपुर, बिहार से प्रियंका साहू ने चरखा फीचर के लिए लिखा है