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फ़िल्म घूंघट से शुरू होती है और उसी से आज़ादी की ये कहानी है

किरण राव निर्देशित एवं आमिर खान निर्मित फ़िल्म लापता लेडीज़ एक ऐसी फ़िल्म है जिसे देखने के बाद बात करने के लिए बहुत कुछ है। अन्य फिल्मों के मुक़ाबले इस फ़िल्म के पटकथा में बहुत कुछ है जिस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है।

फ़िल्म घूंघट से शुरू होती है और उसी घूंघट से आज़ादी पाने की ये कहानी है। वह सीन काफी कुछ कहता है जिसमें एक पति अपनी गुमशुदा पत्नी की घूंघट वाली फोटो दिखाकर तलाश कर रहा है, और उसे मुस्लिम व्यक्ति ज्ञान देता है जिसकी खुद की बेगम नक़ाब में है। घूंघट हो या नक़ाब बात तो उस सपने की है जों कहीं दब-कुचल गया है। बिपलब गोस्वामी, स्नेहा देसाई और दिव्यनिधि शर्मा को शानदार लेखन के लिए बधाई मिलनी चाहिए। लेखन में बेहद बारीकी है। फ़िल्म के संवाद अपने पीछे ढेरों भावनाएँ लिए बैठे हैं जो भारत के ग्रामीण अंचल से उठकर आती हैं। कहानी है दो दुल्हनों की जो ट्रैन में गलती से बदली हो जाती हैं। फ़िल्म को छत्तीसगढ़ राज्य के बनने के एक साल बाद सेट किया गया है।

गाँव के सीधे लोग थाना का नाम सुनते ही डर जाते हैं। फ़िल्म में रवि किशन इंस्पेक्टर बने हैं। उनका किरदार थाने में रपट लिखाने आए व्यक्ति के कमीज से उसकी हैसियत का अंदाजा लागकर तय करता है कि सामने वाले से कितना माल अंदर करना है। मामला लीगल है वेब सीरीज में रवि किशन के ज़ोरदार परफॉरमेंस को देखने के बाद इसमें उन्हें रिश्वतखोर पुलिस वाले के किरदार में देखना मज़ेदार रहा। फ़िल्म में स्पर्श श्रीवास्तव ने बेहतरीन काम किया है। नितांशी गोयल, प्रतिभा रांता और छाया कदम का काम भी ठीक ठाक लगता है।

फ़िल्म में अपने पति से बिछड़ चुकी दुल्हन फूल को ट्रैन स्टेशन पर सहायता के लिए अच्छे लोग मिलते हैं। जिनमे से एक चाय बेचने वाला होता है। उसे सलमान खान के घर का पता गैलेक्सी अपार्टमेंट अच्छे से याद है। उसे ये भी मालूम है कि शान फ़िल्म शाकाल के नाम से जाना जाता है। फ़िल्म में बूढ़े दद्दा का किरदार है जो दिन भर खाट पर रहता है। उसने 35 सालों तक चौकीदार का काम किया था और यह काम उसके रग रग में बस चुका है। इसी कारण वह कभी भी ‘जागते रहो’ चिल्लाता रहता है।

इन दिनों ट्विंकल खन्ना अपने एक बयान को लेकर चर्चा में है। वे पुरुषों को अपने हैंडपर्स जितना मानती है। लगभग यही सोच फ़िल्म में मंजू माई की भी है। एक दृश्य में वे गजब की बात कहती है। वे बतलाती हैं कि “बड़े घर की बहू – बेटियां ऐसा नही करती” सिखाकर लड़कियों के साथ फ़्रॉड किया जाता है। बड़ी गहरी बात है। फ़िल्म में जया एक पढ़ने लिखने वाली और सपने देखने वाली लड़की है। और ये भी बताते चले कि सपना देखने का माफ़ी नही मांगते।

इस फ़िल्म को कॉमेडी ड्रामा जॉनर का बताया जा रहा है लेकिन मुझे ज़रा भी हंसा नही आई। हालांकि फ़िल्म अच्छी है। बिग बजट फिल्मों के दौर में लापता लेडीज जैसी फ़िल्में सुकूनदेह लगती है। किरण राव की निर्देशन कैसी है ये आप फ़िल्म देखकर ही डीसाइड कर लीजियेगा। क्या कभी आमिर अभिनीत किसी फ़िल्म का निर्देशन किरण करेंगी? लेकिन एक प्रश्न है। जिस दुल्हन जया को पहली बार बोलते देख पूरे परिवार वाले हक्के बक्के रह जाते हैं, जिसे कहा जाता है कि ढंके घूंघट से नीचे दिख रहे जूते से पति को पहचानना आना चाहिए। बाद में उसी जया को वह पूरा परिवार अकेले मंदिर और बाजार कैसे भेज सकता है?

फ़िल्म के शुरुआत और अंत का संगीत दिल छू गया। समय निकालकर लापता लेडीज तो देखना बनता है। क्योंकि जब अपनी गुमी हुई पत्नी फूल को पाने के लिए दीपक कुमार साईकिल चलाते हुए ट्रैन से रेस लगाता है तो वह दृश्य कमाल का लगता है। अपनी पहली पत्नी को ज़िंदा जला चुके शख्स को जब रवि किशन कानून बताते हैं और जया के लिए खड़े होते हैं तो दिल गदगद हो जाता है। बस इतना कहेँगे कि इस रिव्यु को पढ़ने के बाद लापता लेडीज देख डालिये क्योंकि “फूल घर पहुँच गई” है।

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