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“कवि की कविता”

“कवि की कविता”

डॉ लक्ष्मण झा परिमल

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सपनों में मेरी “कविता” आयी

मलिन ,शृंगार रहित

चुप -चाप खड़ी

मायूस पड़ी

पलकों से आँसू बहकर

सुउख चली थी

मटमैले परिधानों में

शांत लिपटी हुई

वो मिली खड़ी !

अपनी “कविता” का हाल देख

मैं दग्ध हुआ

विचिलित मन मेरा डोल गया

आखिर क्यूँ ऐसा

इनका ये हाल हुआ ?

जिस कविता का मैं सृजन किया

रस ,छंदों और लय

से उनका शृंगार किया

रंग भरा

खुसबुओं का अलंकार भरा

सकारात्मक भंगिमा से व्याप्त किया

सत्यम ,शिवम और सुंदरम

का रूप दिया !

पर आज भला इस रूप

मैं क्यों अपनी “कविता” को देख रहा हूँ ?

उठकर उन्हें प्रणाम किया !

बहुत समय वो मौन रही

कुछ कह ना सकी बस खड़ी रही !

“ आखिर कुछ तो बोलें भी

क्यूँ ऐसे आप दिखतीं हैं

क्या बात हुई मुझसे तो कहें

क्यूँ बिचलित सी लगतीं हैं ?”

कविता की आँखें

सजल हुई

करुणा बोली से छलक गयी

“ मैं क्या बोलूँ तुमसे कवि

तुम मुझको लिखना भूल गए

मुझे रस ,अलंकार और लय

से सजाना तुम भूल गए !”

मर्यादा में रहकर

सब बातों को लिखते रहना

लोग पढ़े या तिरस्कार करें

मुझको रंगों से भरते रहना !”

इतने में सपना मेरा टूटा

ना जाने कविता

कहाँ गयी

पर कविता की व्यथा

को मैं समझा गया

उनको कभी भी ना

मैं फिर निराश किया !!

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डॉ लक्ष्मण झा ” परिमल ”

साउंड हेल्थ क्लिनिक

एस ० पी ० कॉलेज

दुमका

झारखण्ड

भारत

31.03.2024

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