‘रैगिंग’ के लिए हिंदी में कोई उपयुक्त शब्द नहीं है. सुविधा के लिए हम इसे ‘उत्पीड़न करना’, ‘रौब जमाना या दादागिरी जमाना’ कह सकते हैं. यहाँ रैगिंग से तात्पर्य उस ‘कुप्रथा’ या ‘कुसंस्कृति’ से है जिसमें हमारे महाविद्यालयों (कालेजों) में वरिष्ठ (सीनियर) छात्र-छात्राओं द्वारा कनिष्ठ (जूनियर) छात्रछात्राओं पर ‘मेलमिलाप’ के नाम पर जुल्म किया जाता है. उनका मानसिक व शारीरिक उत्पीड़न किया जाता है. इसका सबसे दु:खद पहलू यह है कि आमतौर पर शांत व सीधी समझी जाने वाली लड़कियां भी इसमें शामिल होती हैं जबकि समाज में उद्दंड लड़कों को माना जाता है!
रैगिंग की शुरुआत कब और कैसे हुई यह निश्चित तौर पर कहा नहीं जा सकता. लेकिन दूसरों को उत्पीड़ित कर खुश होना या संतुष्टि प्राप्त करना (सैडिस्टिक स्वभाव) हमारे भारतीय समाज में सदियों से चला आ रहा है. और उसी का आधुनिक रूप कालेजों में प्रचलित रैगिंग की कुप्रथा है.
रैगिंग के धार्मिक या पौराणिक कारण
आइये जानें कि हम हिंदुस्तानी ‘परपीड़क’ के रूप में कितना आनंदित और गौरवान्वित महसूस करते हैं, बावजूद इसके कि हम इस तथ्य पर भी गर्व करते हैं कि ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई’. अर्थात, दूसरों का ‘हित’ या उपकार करने जैसा कोई धर्म नहीं है, और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के समान कोई अधर्म नहीं है. आइये देखें कि हम इस आदर्श वाक्य को व्यवहार में कितना अपनाते हैं:
सदियों से हमारा समाज रैगिंग करता आ रहा है. हमारे धर्म व पुराण तो इसकी खानें हैं. ज्यादा दूर न जाकर हम ‘रामायण’ व ‘महाभारत’ के कुछ प्रसंगों को ही लें. हमें पता चल जाएगा कि हम कितने रैगिंग प्रेमी हैं.
रामायण से
रामायण के नायक राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है. अर्थात हम उन्हें ‘आदर्श पुरुष’ के रूप में पूजते हैं. राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद सीता की ‘अग्निपरीक्षा’ ली. यह अपनेआप में पति द्वारा पत्नी को प्रताड़ित करने का सबसे बड़ा उदाहरण है. राम ने अपनी धमर्पत्नी सीता को गर्भवती अवस्था में राजमहल से निष्कासित कर जंगल में भटकने को छोड़ दिया. यह प्रसंग भी रैगिंग या पत्नी-उत्पीड़न का एक नायाब नमूना है!
महाभारत से
अब महाभारत के प्रसंगों को लें. दो ही प्रसंग काफी होंगे. पहला प्रसंग है, द्रौपदी को 5 भाइयों कि पत्नी बनने को मजबूर करना. गौरतलब है कि अर्जुन ने स्वयंवर में विजय प्राप्त कर द्रौपदी को पत्नी बनाया था. लेकिन युधिष्ठिर ने उसे 5 पतियों कि साझी पत्नी बनने को मजबूर किया.
मिथक यह है कि जब स्वयंवर से द्रौपदी को साथ ले अर्जुन व अन्य चारों भाई वनवास अंतर्गत अपने निवास पर गए तो माँ कुंती घर के अंदर थीं. युधिष्ठिर ने बाहर से आवाज लगाई कि माँ देखो हम क्या लेकर आये हैं? इस पर माता कुंती ने अनायास ही कह दिया कि जो कुछ भी लाये हो उसे पाँचों भाई आपस में बाँट लो.
चूंकि पांडव निर्वासित जीवन वन में व्यतीत कर रहे थे, अतः माता कुंती ने समझा कि शायद उनके पुत्र कन्दमूलफल ले आये होंगे और यही सोचकर उनहोंने कह दिया कि आपस में बाँट लो. लेकिन जब वे बाहर आयीं तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और अपनी कथन पर पछतावा भी. द्रौपदी के साथ यह जो रैगिंग हुई थी , उसे क्या भुलाया जा सकता है?
रैगिंग के सामाजिक कारण
सामाजिक स्तर पर हम देखें तो सती प्रथा, डायन प्रथा, दहेज़ प्रथा, बालविवाह प्रथा, छेडख़ानी की प्रवृत्ति- ये सभी स्त्रीजाति को प्रताड़ित (रैगिंग) करनेवाली अमानवीय कुप्रथाएं हैं व ये सभी तथाकथित ‘महान हिन्दू धर्म’ से उपजी हैं. हम यह कह सकते हैं कि अगर ‘धर्म’ न होता तो ये कुप्रथाएं भी न होतीं और आज इक्कीसवीं सदी में भी नारी को ज़िंदा नहीं जलना पड़ता. ये सभी कुप्रथाएं कानूनन अपराध होने के बावजूद भी आज तक हमारे समाज में जारी हैं और इनका महिमामंडन तक किया जा रहा है.
मिसाल के तौर पर ‘सती’ कि कोई घटना होने के बाद ‘सती-मंदिर’ बनाकर इसे महिमामंडित किया जाता है, मानो सती होना कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हो. ‘दहेज़’ की ही बात करें तो दहेज़-हत्या में आरोपी पति या पुरुष की फिर से शादी हो जाती है. यह दहेज़-हत्या का महिमामंडन नहीं तो और क्या है? ‘डायन’ करार देकर विधवा व बुजुर्ग महिलाओं को ज़िंदा जलाया जाना क्या दर्शाता है? क्या ये रैगिंग (प्रताड़ना) के ही वीभत्स रूप नहीं हैं, जो सदियों से हमारे समाज में मौजूद हैं?
रैगिंग के पारिवारिक कारण
पारिवारिक स्तर पर आयें तो सास द्वारा बहू पर और पति द्वारा पत्नी पर जुल्म या दुर्व्यवहार भी सीनियर द्वारा जूनियर को प्रताड़ित करने का ही मामला है. चूंकि सास सीनियर होती है इसीलिए वह अपनी बहू (जूनियर) को प्रताड़ित करती है और पति भी सीनियर होने के नाते अपनी पत्नी (जूनियर) को प्रताड़ित करता है. अपवाद स्वरुप कुछ अच्छी सासें व अच्छे पति हो सकते हैं (उनका जिक्र यहाँ नहीं किया जा रहा). क्या ये मामले भी रैगिंग के नहीं हैं? घरेलू हिंसा भी एक तरह की रैगिंग ही है और इसे सामाजिक मान्यता तक मिली हुई है!
गौरतलब है कि यहाँ पर पति को सीनियर व पत्नी को जूनियर मानने की वजह यह है कि हमारे समाज में सदियों से पत्नी की उम्र पति से कम रहती आयी है. और पति द्वारा पत्नी को प्रताड़ित किये जाने व उसे ‘कमतर’ समझे जाने की प्रमुख वजह भी यही है. पति और पत्नी की उम्र में ‘फासला’ ही इसलिए रखा गया ताकि पति अपनी पत्नी पर रौब या धौंस जमा सके. अगर पति और पत्नी की उम्र समान हो तो शायद ही कोई पति अपनी पत्नी पर धौंस जमाय या उसे प्रताड़ित करे!
हमारा समाज भी पत्नियों पर धौंस जमाये रखना चाहता है तभी तो शादी के समय हमेशा लड़की की उम्र लड़के से कम ही रखी जाती है, ताकि वह दबकर रहे. अगर कोई लड़का अपने बराबर या अपने से दो-चार महीने भी बड़ी लड़की से शादी करना चाहे तो परिवार में भूचाल आ जाता है, क्योंकि परिवारवालों को यह लगता है कि ‘पत्नी’ या ‘बहू’ धौंस में नहीं रहेगी. अतः ऐसे विवाहों का जमकर विरोध किया जाता है. मानो यह कोई ‘अपराध’ हो!
और तो और, शादी की न्यूनतम उम्र वाला हमारा वर्त्तमान कानून (विशेष विवाह अधिनियम, 1954 व हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 दोनों) भी उम्र के इस ‘फासले’ को बरकरार रखे हुए है (भारत में वर्त्तमान में शादी की न्यूनतम आयु लड़की के लिए 18 वर्ष व लड़के के लिए 21 वर्ष है) ताकि पति या पुरूष का पत्नी या स्त्री पर आधिपत्य (दादागिरी) बना रहे! एक तरह से देखा जाए तो ‘शादी की न्यूनतम आयु’ में पुरूष व स्त्री की उम्र में 3 साल के फासले वाला यह कानून भारत का सर्वाधिक भेदभावपूर्ण कानून है और यह हमारे संविधान के अनुच्छेद 14 ( कानून के समक्ष बराबरी) का उल्लंघन है.
कानून व संविधान द्वारा महिला जाति पर यह रैगिंग नहीं तो और क्या है? अतः शादी की न्यूनतम उम्र स्त्री व पुरूष दोनों के लिए समान (21 साल या 24 साल दोनों के लिए ) क्यों न हो? भारत जिस अमरीका के चरण-चुम्बन में लगा रहता है वहाँ शादी की न्यूनतम उम्र लड़का व लड़की दोनों के लिए 18 साल है, ब्रिटेन में भी यह दोनों के लिए 18 साल है व जापान में दोनों के लिए 20 साल. सिर्फ भारत में ही 3 साल का अंतर क्यों? क्या यह सरकारी रैगिंग (लड़कियों के ऊपर) नहीं है ताकि वह हमेशा जूनियर बनी रहे और मार खाती रहे!
आधुनिक रैगिंग पर ही बवाल क्यों?
अब प्रश्न उठता है कि जब दूसरों को प्रताड़ित कर ख़ुशी पाना हमारी परंपरा रही है तब आज कॉलेजों में सीनियर द्वारा जूनियर पर किये जाने वाले रैगिंग पर ही इतना बवाल क्यों? जवाब शीशे की तरह साफ़ है. ऊपर जिन प्रताड़नाओं या कुप्रथाओं ( मसलन, सती प्रथा, डायन प्रथा, दहेज़ प्रथा, बालविवाह प्रथा, छेड़खानी, वगैरह ) का जिक्र किया गया है उन सबमें ‘शिकार’ महिलायें होती आयी हैं और चूंकि महिलाओं का उत्पीड़न करना (या रैगिंग करना) हमारी ‘महान परंपरा’ रही है, इसलिए उन पर बवाल नहीं मचा. जबकि आज जो रैगिंग की घटनाएं हो रही हैं उनमें पुरुषवर्ग ‘शिकार’ हो रहा है (गौरतलब है कि रैगिंग के ज्यादातर शिकार लड़के ही होते हैं) और हमारा ‘पुरुष प्रधान’ समाज पुरुषों पर हो रहे इस ‘अत्याचार’ को पचा नहीं पा रहा.
यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों से रैगिंग के खिलाफ काफी मुस्तैदी बरती जा रही है. इस वर्ष तो हालात ऐसे हैं कि कॉलेज परिसरों को ‘किलों’ में परिवर्तित कर दिया गया है ताकि रैगिंग कि घटनाएं न हों. सरकार व कॉलेज प्रशासन द्वारा यह मुस्तैदी काबिलेतारीफ है, लेकिन अफ़सोस कि बात यह है कि अगर पुलिस व प्रशासन के द्वारा इसी तरह की मुस्तैदी ऊपर वर्णित कुप्रथाओं के मामलों में भी बरती गई होती तो शायद इन कुप्रथाओं का नामोनिशान भी मिट चुका होता और औरत को जिंदा न जलना पड़ता!
इन्हीं धार्मिक ( पौराणिक), सामाजिक व पारिवारिक प्रताड़नाओं की परिणति आज रैगिंग के रूप में कॉलेजों में विद्यमान है. हमारी इसी तथाकथित ‘सभ्यता-संस्कृति’ की परिणति है यह रैगिंग का आतंक! यह आनुवंशिकता की ‘बीमारी’ तो पुराणी पीढ़ी से नई पीढ़ी में आनी ही है. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है!
कॉलेजों में ही रैगिंग क्यों?
रैगिंग एक अमानवीय कुप्रथा है और यह बंद होनी ही चाहिए. लेकिन, इससे जुड़ा एक अहम् सवाल यह है कि रैगिंग की घटनाएं कॉलेजों में ही क्यों होती हैं? स्कूलों में क्यों नहीं होतीं? यह आश्चर्य है और यह मुद्दा ‘अध्ययन का विषय’ होना चाहिए. जहाँ तक ‘मेलमिलाप’ का सवाल है तो सीनियर व जूनियर छात्र-छात्राओं का मेलमिलाप तो स्कूलों में भी होता है, लेकिन वहाँ रैगिंग की कोई समस्या नहीं है.
कुछ वर्ष पहले तक दसवीं तक ही स्कूली शिक्षा हुआ करती थी और ‘प्लस टू’ या बारहवीं की शिक्षा के लिए ‘इंटर कॉलेज’ जाना पड़ता था तो वहाँ रैगिंग की समस्या आ जाती थी. अब तो सरकार द्वारा बारहवीं तक की शिक्षा स्कूलों में ही दी जाने लगी है. बारहवीं के बाद कॉलेज जाना पड़ रहा है और तब रैगिंग की समस्या से दोचार होना पड़ रहा है.
कहने का तात्पर्य यह है कि यह ‘रैगिंग’ क्या बला है जो स्कूलों में नहीं होती, मात्र कॉलेजों में ही होती है? अब तो आलम यह है कि ‘कॉलेज’ शब्द से ही रैगिंग कि ‘बू’ आने लगती है. फिर क्यों न इन डिग्री कॉलेजों को ‘डिग्री स्कूलों’ में परिवर्तित कर दिया जाए व पॉलिटेक्निक कॉलेजों को ‘पॉलिटेक्निक स्कूलों’ में, ताकि ‘स्कूल’ होने की गरज से वहाँ रैगिंग न हों! असली मकसद है शिक्षा प्राप्त करना. अब इस बात से क्या फर्क पड़ सकता है कि इन शिक्षा केन्द्रों के नाम स्कूल हों या कॉलेज?
बचकानी हरकत या उद्दंडता?
जहाँ तक उद्दंडता के साथ रैगिंग के सम्बन्ध का प्रश्न है, तो उद्दंड छात्र-छात्राएं तो स्कूलों में भी होते हैं, लेकिन वहाँ रैगिंग नहीं होती. आमतौर पर बारहवीं तक छात्र-छात्राएं नाबालिग होते हैं और ऐसे में बाल-सुलभ आचरण या बचकानी हरकत के तहत जूनियर छात्रों पर कुछ रौब जमाएं तो बात समझ में आती है. लेकिन डिग्री कॉलेज पहुँचते-पहुँचते तो लगभग सभी छात्र-छात्राएं बालिग़ हो चुके होते हैं और ऐसे में उनमें गम्भीरता व जिम्मेदारी की भावना आनी चाहिए. लेकिन बालिग़ होने पर ही (कॉलेजों में ही) यह अमानवीय व्यवहार क्यों?
किसी मोहल्ले में एक नवागत पडोसी का भी तो अन्य पड़ोसियों से मेलमिलाप होता है. लेकिन वहाँ रैगिंग नहीं होती. उल्टे नए पडोसी की मदद करने की पूरी कोशिश की जाती है. तो फिर कॉलेजों में ही नवागंतुकों की रैगिंग क्यों? उन्हीं के साथ सीनियरों द्वारा असहयोग की भावना क्यों? मतदाता (बालिग़) होने के बाद इस तरह का गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार क्यों?
छात्र-संगठन जिम्मेदार!
स्कूल और कॉलेज में एकमात्र अंतर यही है कि स्कूलों में कोई छात्र-संगठन नहीं होता, जबकि कॉलेजों में छात्र -संगठन होते हैं. तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाए कि रैगिंग के लिए कॉलेजों में छात्र-संगठनों की उपस्थिति जिम्मेदार है? क्योंकि दूसरा कोई फर्क तो नजर नहीं आ रहा. आखिर क्या कारण है कि स्कूलों में जो अनुशासन होता है वह कॉलेजों में नहीं होता? नि:संदेह रैगिंग की कुप्रथा का छात्र-संगठनों से सीधा सम्बन्ध है ( यह भी एक ‘शोध का विषय’ होना चाहिए )!
छात्र-संगठनों की उपस्थिति और उनकी अनिवार्य सदस्यता की वजह से ही छात्र अनुशासनहीन होते जा रहे हैं और बारहवीं ( प्लस टू ) तक जिस अनुशासन में वे रहे उसे भुलाकर बे-लगाम पशुओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं. इस पर निश्चित तौर पर रोक लगनी चाहिए. छात्र-संगठन नहीं, तो रैगिंग भी नहीं. आखिर छात्र-संगठनों की आवश्यकता कॉलेजों में ही क्यों?
बिना छात्र-संगठन के स्कूलों में अच्छा अनुशासन है और अच्छी पढाई हो रही है. उल्टे छात्र-संगठनों की उपस्थिति से कॉलेज की पढाई में जब-तब व्यवधान पड़ता है व अनुशासन भंग होता रहता है. अतः क्यों न छात्रसंघों को ही समाप्त कर दिया जाए? आखिर, सरकार कॉलेजों में ऐसी कमियां ही क्यों रहने दे जिनकी पूर्ति के लिए छात्रसंघों की जरूरत महसूस हो? उन कमियों को ‘सत्र’ शुरू होने से पहले ही दूर कर दिया जाए.
आश्चर्य है कि स्कूलों में छात्र-संगठन नहीं तो रैगिंग भी नहीं और कॉलेजों में छात्र-संगठन हैं तो रैगिंग भी है. अतः ‘छात्र-संगठन हटाओ तो रैगिंग भी हट जायेगी’. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी!
रैगिंग का निवारण कैसे हो?
रैगिंग जैसी अमानवीय कुप्रथा का निवारण तभी होगा जब हम नई पीढ़ी को उनके बचपन से ही उचित परवरिश करें. उन्हें समानता और न्याय का माहौल दें. बचपन से ही उन्हें एकदूसरे को बराबर समझने और प्यार से पेश आने की हिदायत दें. यथा:
पारिवारिक या घरेलू स्तर पर सावधानियां
(1) मातापिता समानता के माहौल में बच्चों की परवरिश करें. वे अपने बच्चों पर पूरी नजर रखें और देखें कि बड़ा बच्चा (बेटा या बेटी) छोटे बच्चों ( बेटे या बेटी) पर धौंस नहीं जमाये. अगर ऐसा हो रहा है तो उसे रोकें और समझाएं कि ऐसा करना गलत है, क्योंकि आगे चलकर वही बच्चा या बच्ची कॉलेज में अपने जूनियर पर धौंस जमा सकता/सकती है, अर्थात रैगिंग कर सकता/सकती है.
(2) मातापिता बच्चों के सामने न झगड़ें. अक्सर पति द्वारा पत्नी को बच्चों के सामने ही प्रताड़ित किया जाता है जिससे प्रभावित होकर परिवार में भाई भी अपनी बहन को प्रताड़ित करने लगता है. वह राह चलती लड़कियों को भी अपने से कमतर समझकर छेड़ने लगता है. आगे चलकर यही प्रवृत्ति कॉलेजों में रैगिंग का रूप ले सकती है.
(3) मातापिता को अगर शिकायत मिले कि उनके बच्चे पडोसी के बच्चों की बिना वजह पिटाई करके आए हैं तो उन्हें अपने बच्चों को समझाना चाहिए कि ऐसा करना गलत है. वे बिना वजह किसी दूसरे बच्चे की पिटाई न करें. साथ ही बच्चों को यह भी हिदायत दें कि वे खुद ‘पिट’ कर भी न आएं. न खुद रैगिंग करें और न दूसरों के द्वारा रैगिंग बर्दाश्त करें.
(4) जिस तरह बेटी के 10 मिनट देर से घर पहुँचने पर मातापिता प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं और देर से आने का कारण पूछते हैं, वैसे ही बेटे के देर से आने पर भी जवाब-तलब करें और देरी का कारण मालूम करें. क्या पता वह किसी पर दादागिरी दिखा कर आया हो! अक्सर माँ-बाप बेटे की दो-तीन घंटे की देरी पर भी चुप्पी साध लेते हैं. यही छूट आगे चलकर रैगिंग की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है.
(5) अगर आपका बेटा या बेटी छात्रावास में रहते हों तो हरेक 15 दिन या महीने में एक बार इस बात की खबर लेते रहें कि वे वहाँ पढाई कर रहे हैं या पढाई की आड़ में मस्ती या दादागिरी कर रहे हैं. यह निगरानी इसलिए जरूरी है क्योंकि सीनियर द्वारा जूनियर पर रैगिंग की घटनाएं अधिकतर कॉलेज छात्रावासों में ही होती हैं. अगर सीनियर्स के मातापिता उन्हें सख्त हिदायत दें कि वे अपने जूनियर्स के साथ कोई बुरा बर्ताव न करें तो शायद ही रैगिंग की घटनाएं हों!
सामाजिक स्तर पर सावधानियां
(1) सती मंदिरों में न जाएँ व सती मेलों में शामिल न हों. इससे ‘सती’ की कुप्रथा को बढ़ावा मिलता है जो एक तरह की सामाजिक रैगिंग है. विधवाओं को उचित सम्मान दें ताकि किसी बेबस विधवा को ‘सती’ होने जैसा कदम न उठाना पड़े. अगर हम विधुर को सम्मान दे सकते हैं तो विधवा को क्यों नहीं?
(2) दहेज़-हत्या व बलात्कार के आरोपियों से अपनी बेटी की शादी न करें. अकसर देखा जाता है कि बलात्कार पीड़िता की शादी नहीं हो पाती जबकि बलात्कार के आरोपी की आसानी से शादी हो जाती है. इससे बलात्कार व बलात्कारी का महिमामंडन ही होता है और पीड़िता दोहरी सामाजिक रैगिंग की शिकार होकर रह जाती है.
(3) मातापिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों का बालविवाह न करें. अकसर बालविवाह की शिकार लडकियां ही होती हैं क्योंकि ज्यादातर मामलों में लडकियां ही नाबालिग होती हैं जबकि ‘वर’ या लड़का अधेड़ उम्र का होता है. यह मातापिता द्वारा बच्चों पर रैगिंग का मामला है. बालविवाह में शामिल होना भी इसको बढ़ावा देना है.
(4) किसी विधवा या बुजुर्ग महिला को डायन कहकर प्रताड़ित न करें. ‘डायन’ जैसी कोई चीज नहीं होती. यह अन्धविश्वास है और डायन कहकर प्रताड़ित करना महिला पर रैगिंग करने जैसा है. इसको बढ़ावा न दें. तमाशबीन में भी शामिल न हों.
(5) मातापिता अपने बेटेबेटियों की शादी के समय वर-वधू की उम्र के बीच ज्यादा ‘फासला’ न रखें. बेहतर तो यह होगा कि दोनों की उम्र बराबर नहीं तो लगभग बराबर जरूर हो, ताकि दोनों की शैक्षिक योग्यता भी समान हो और एक के द्वारा दूसरे को प्रताड़ित किये जाने का सवाल ही पैदा न हो. आखिर, लड़की (वधू) ही कम उम्र की क्यों हो?
प्रशासनिक स्तर सावधानियां
(1) ‘रैगिंग’ मामले पर सर्वोच्च न्यायलय के दिशा-निर्देशों को सख्ती से लागू किया जाए.
(2) कॉलेजों में छात्र-संगठनों में शामिल होने की अनिवार्यता हटा ली जाए. छात्र या छात्रा चाहें तो स्वेच्छा से इसके सदस्य बन सकते हैं. इस मामले में ‘सरिता’ का रचनात्मक आंदोलन काफी अर्से से चला आ रहा है. इस पर अमल किये जाने की जरूरत है.
(3) जूनियर विद्यार्थियों को पूरा आश्वासन दिया जाए कि वे भयमुक्त होकर कॉलेज आयें और कोई भी दुर्व्यवहार या जोर- जबरदस्ती होने पर उसका जबरदस्त प्रतिवाद करें और संबंधित अधिकारी से शिकायत करें. नवागंतुकों की सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए.
(4) सख्त अनुशासनप्रिय शख्सों को ही कॉलेज ‘प्राचार्य’ नियुक्त किया जाए. मात्र शैक्षिक या अकादमिक उपलब्धियों पर ही ध्यान न दिया जाए, बल्कि ‘व्यक्तित्व’ पर भी ख़ास तौर से गौर किया जाए, जो उचित दबाव रख सके. ‘फर्स्ट इम्प्रैशन इस लास्ट इम्प्रैशन’ की तर्ज पर ‘सत्र’ के पहले दिन से ही अनुशासन बनाय रखा जाए. व्याख्याताओं व प्राध्यापकों को कॉलेज प्रशासन या प्राचार्य द्वारा सख्त हिदायतें दी जाएँ कि वे अपनी कक्षाओं में सबसे पहले अनुशासन पर जोर दें.
(5) कॉलेज प्रशासन द्वारा सीनियर विद्यार्थियों को सख्त चेतावनी दी जाए कि अगर वे जूनियर विद्यार्थियों की रैगिंग करेंगे तो उन्हें आगे की पढाई से वंचित कर दिया जाएगा. दोषियों को मात्र एक या दो सत्र ( 6 या 12 महीने ) के लिए निष्कासित न कर, उनकी आगे की पढाई से ही उन्हें वंचित कर दिया जाए; क्योंकि जब गुंडागर्दी (रैगिंग) ही करनी है तो उसके लिए ‘डिग्री’ (उपाधि) की जरूरत नहीं है. बिना ग्रेजुएट हुए भी गुंडागर्दी की जा सकती है!
विकृत मानसिकता का परिचायक
यह खेद का विषय है कि कुछ छात्र-छात्राएं रैगिंग का समर्थन करते हैं. इन विद्यार्थियों की मानसिकता पर तरस ही आता है. इनका कुतर्क है कि रैगिंग के जरिये वे नवागंतुक विद्यार्थियों के साथ हंसीमजाक करते हैं. अगर बात सिर्फ हंसीमजाक तक ही सीमित रहती तब इस पर इतना बवाल क्यों मचता और मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना का सवाल कहाँ से पैदा होता? फिर सरकार व प्रशासन की ओऱ से इतनी मुस्तैदी किसलिए? अगर रैगिंग का मतलब हंसीमजाक ही होता तो क्यों देश की सर्वोच्च अदालत को इसके खिलाफ सख्त दिशा-निर्देश जारी करने पड़ते?
नि:संदेह दाल में कुछ काला है! उत्पीड़न को हंसीमजाक का नाम देना ही समस्या (बुराई) पर पर्दा डालना है. सवाल यह भी है कि अगर किसी जूनियर विद्यार्थी को हंसीमजाक पसंद नहीं हो तो उसके साथ जबरन हंसीमजाक भी क्यों किया जाए? आखिर होली जैसे त्यौहार पर भी तो हम किसी को जबरन रंगगुलाल नहीं लगाते तो कॉलेज में ही किसी जूनियर विद्यार्थी के साथ जबरन मजाक भी क्यों किया जाए? यह सर्वथा अनुचित है. नवागंतुकों के साथ दुर्व्यवहार या रैगिंग करना ‘मेलमिलाप’ का कौनसा तरीका है?
अतः ऐसे विद्यार्थियों को ‘विकृत मानसिकता’ का ही कहा जाएगा जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर खुश होते हों. दरअसल, यह हमारी उसी धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक ‘सोच’ का दुष्परिणाम है जिसका जिक्र इस लेख की शुरुआत में किया गया है. जब हमारे तथाकथित पूर्वज (राम, युधिष्ठिर, वगैरह) ही विकृत मानसिकता वाले (परपीड़क) थे तो उनके खून का कुछ अंश हममें आना तो स्वाभाविक ही है!
हम कितने पानी में हैं?
पूरी दुनिया को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की सीख देने वाले हम भारतीय अपने ही समाज से आए नए छात्र-छात्राओं को प्यार से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. इस तरह से हम दुनिया के सामने भारत की कैसी छवि पेश कर रहे हैं? फिर हम किस ‘दम’ पर ‘विश्वशक्ति’ बनने का दम्भ भरते हैं! हम जब अपने कॉलेजों के बिगड़ैल छात्र-छात्राओं को ही नहीं साध पा रहे हैं तो विश्व मंच पर किसी बिगड़ैल परमाणु शक्ति सम्पन्न देश को कैसे साध पाएंगे? हमारे भारतीय कॉलेजों में विद्यमान यह रैगिंग की अमानवीय व अशोभनीय कुप्रथा या कुसंस्कार क्या यह साबित करने के लिए काफी नहीं है कि हम कितने पानी में हैं?
मानसिकता बदलें
अब वक्त आ गया है कि हम इस विकृत मानसिकता को बदलें. इसका इलाज करें और इलाज यही है कि ऐसी अमानवीय कुप्रथाओं (चाहे वह आधुनिक रैगिंग हो या पुरातन प्रताड़नाएं) पर अंकुश लगाएं. ‘पाप की दवा पाप करना छोड़ देना है’, इस उसूल पर अमल करें. पहले पाप करके और फिर उसे धोना, यह कौनसा तरीका है? क्या थूक कर भी कोई उसे चाटता है? बेहतर है थूकें ही नहीं!
मेहमानों का स्वागत करें
संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि किसी भी कॉलेज में जूनियर्स या नवागंतुकों का आगमन एक खुशनुमां माहौल होना चाहिए. इस माहौल को रैगिंग के जरिये गम के माहौल में बदलने की इजाजत किसी भी सीनियर को नहीं दी जानी चाहिए. आपके घर में मेहमान आते हैं तो क्या आप उनकी रैगिंग करते हैं? अगर नहीं, तो फिर कॉलेज में अध्ययन करने आए इन मेहमानों की रैगिंग क्यों? आपको तो उनका सम्मान करना चाहिए, ताकि वे बाहर जाकर आपके घर या कॉलेज की शिकायत न करें. सीनियर विद्यार्थी क्या इतना भी नहीं समझते? फिर तो कॉलेज में पढ़ना ही बेकार है, बेहतर है वे घर पर ही बैठें!
और अंत में
और अंत में एक प्रसंग याद कर लेना समीचीन होगा. गुजरात दंगों के दौरान मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कहा था कि ‘अगर किसी राज्य का मुख्यमंत्री न चाहे तो उस राज्य में दंगे नहीं हो सकते’. भले ही यह बात एक राजनेता ने कही हो लेकिन इस बात में ‘दम’ है. इसी तर्ज पर क्या हम यह नहीं कह सकते कि अगर किसी कॉलेज का प्राचार्य न चाहे तो उसके कॉलेज (परिसर व छात्रावास) में रैगिंग हो ही नहीं सकती! तात्पर्य यह है कि कोई प्राचार्य अगर ठान ले कि वह अपने कॉलेज में रैगिंग नहीं होने देगा, तो मजाल है कि कोई सीनियर छात्र या छात्रा रैगिंग करने की जुर्रत भी करे, फिर चाहे वह कितना ही ‘बिगड़ैल सांड’ क्यों न हो! और तभी हम इस कथन को चरितार्थ कर पाएंगे कि, ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई’!