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क्यों चर्चा में हैं ये सैटेलाइट जैसे हवाई जहाज?

दुनिया में बढ़ते युद्ध के बीच सभी देश अपनी सुरक्षा में लगे हुए हैं। देश की सुरक्षा के लिहाज से भारत भी आए दिन ऐसे उपकरणों के परीक्षण करता रहता है जो सुरक्षा के साथ-साथ दूसरे क्षेत्र में भी उपयोग में लाए जा सकें। इसी तरह का एक स्यूडो सैटेलाइट व्हीकल का परीक्षण कर्नाटक के चित्रदुर्ग में बंगलुरु की एक लैबोरेट्री ने किया। इस संस्थान का नाम है नेशनल एयरोस्पेस लैबोरेट्री। यह लैबोरेट्री CSIR के निर्देशन में काम करती है। यह नागरिक क्षेत्र में देश की एकमात्र कंपनी है जो एयरोस्पेस रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट के तौर पर काम करती है।

क्या है हाई एल्टीट्यूड स्यूडो सैटेलाइट व्हीकल (HAPS)

यह सोलर पाॅवर की मदद से चलने वाला नई जनरेशन का अनमैन्ड एरियल व्हीकल है, मतलब मानवरहित विमान। यह सामान्य नागरिक जहाजों की तुलना में अधिक ऊंचाई पर उड़ने के लिए डिजाइन किया गया है। सोलर पाॅवर से एनर्जी लेने के कारण यह तकनीक सबके लिए आकर्षण का केंद्र बनी हुई है।

HAPS का परीक्षण, क्या है इसमें खास

टेस्ट के दौरान 23 किग्रा के इस माॅड्यूल में 12 मीटर के विंग लगे हुए थे। उड़ान के समय यह जमीन से 3 किमी ऊपर हवा में साढ़े आठ घंटे से अधिक समय तक उड़ता रहा।यह एक स्ट्रैटोस्फैरिक व्हीकल है। सरल शब्दों में कहा जाए तो यह वायुमंडल की दूसरी पर्त स्ट्रैटोस्फियर में उड़ान भरेगा। क्योंकि इसकी अधिकतम ऊंचाई भी 20 किमी ही है।

CSIR इसको और बेहतर करेगी

बंगलुरु की इस लैबोरेट्री के साथ सीएसआईआर अगले महीने इसकी उड़ान क्षमता को बढ़ाने के लिए परीक्षण करेगा। अगले महीने तक इसकी उड़ान क्षमता को 24 घंटे तक पहुंचाने पर काम चल रहा है। तकनीक को विकसित करने में शामिल वैज्ञानिकों का कहना है कि हम 2027 तक तकनीक को पूरी तरह से विकसित कर लेंगे। उस समय इसकी हवा में लगातार उड़ने की क्षमता 90 दिन तक की होगी। जिसकी जमीन से अधिकतम ऊंचाई 18 से 20 किमी तक पहुंचाई जा सकेगी।

अभी ये तकनीक विकास के शुरुआती चरण में है। कुछ ही देश हैं जो इस तकनीक को विकसित करने में लगे हुए हैं, इसमें भारत भी शामिल है। कोई भी देश अब तक इस तकनीक में महारथ हासिल नहीं कर पाया है। खुशी की बात यह है कि भारत को शुरुआती टेस्टों में ही पाॅजिटिव रिज़ल्ट प्राप्त हुए हैं। हालांकि 2022 में एयरबस के जैपहर ने इस कैटेगरी में विश्व रिकाॅर्ड बनाया है। उस समय विमान ने 64 दिन तक लगातार उड़ान भरी थी।

एचएपीएस की तरह के अन्य उपकरण ड्रोन और अनमैन्ड एरियल व्हीकल भी हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जिस तरह के काम एचएपीएस को करने चाहिए वे सभी काम ड्रोन और अनमैन्ड एरियल व्हीकल करते हैं। लेकिन दोनों की कुछ सीमाएं भी हैं जिन्हें समय रहते दूर किया जा सकता है।

ड्रोन और अनमैन्ड एरियल व्हीकल से HAPS कैसे अलग है

ये दोनो अधिक बैट्री खाते हैं जिस कारण कुछ घंटों से ज्यादा हवा में नहीं रह पाते हैं। इनकी देखने की क्षमता भी कुछ दूरी कर ही सीमित होती है जिस कारण ये अधिक ऊंचाई पर नहीं उड़ पाते हैं। सैटेलाइट की बात करें तो ये बडे़ एरिया को घेरते जरुर हैं लेकिन अर्थ आर्बिट में लगातार घूमने के कारण इनकी स्थिति लगातार बदलती रहती है. जिस कारण ये टारगेट प्वाइंट पर लगातार नजर नहीं रख पाते हैं।

वहीं जियोस्टेशनरी सैटेलाइट 200 किमी से लेकर 36000 किमी की ऊंचाई के बीच में उड़ते हैं। हालांकि ये बड़े क्षेत्र को कवर करते हैं लेकिन तकनीक महंगी होने के कारण इनका उपयोग छोटे-मोटे कामों के लिए संभव नहीं हो पाता है। इनके उपयोग मे न आने की वजह यह भी है कि इन्हें जिस काम के लिए डिजाइन किया जाता है केवल वही काम करते हैं। अर्थात एक बार मिशन पर भेजने के बाद इनका उद्देश्य बदलता नहीं है।

सामान्य सैटेलाइट को अपने निर्धारित स्थान पर भेजने के लिए राॅकेट का उपयोग होता है जबकि एचएपीएस के लिए इसकी जरुरत नहीं होती है। इसी कारण इसकी कीमत कम होती है। क्योंकि यह धीमी गती से सोलर एनर्जी का उपयोग करते हुए आगे बढ़ता है।

ये पहले से तय किए गए क्षेत्र में घूमकर निगरानी करता है। इनकी गति 80 से 100 किमी/घंटा होती है जो कि ड्रोन, सैटेलाइट जैसे हवाई उपकरणों से काफी कम होती है. लेकिन कम दूरी और कम ऊंचाई के कारण ये निर्धारित क्षेत्र को अच्छे से कवर करते हैं। उदाहरण के लिए 80 से 100 किमी की गति होने पर 200 वर्ग किमी के क्षेत्र को आसानी से कवर कर लेते हैं। अगर इसके फोकस को एक वर्ग किमी कर दिया जाए तो इसकी फोकस क्षमता बढ़कर 15 सेमी तक हो जाती है।

कहां कर सकते हैं इस तकनीक का उपयोग

बार्डर की निगरानी करने में इसका अहम रोल हो सकता है क्योंकि आए दिन आतंकी घटनाओं से देश की सुरक्षा सीमाएं दो चार होतीं रहती हैं। जिसकी सुरक्षा में देश के वीर सपूतों को बलिदान होना पड़ता है। मानव रहित विमान होने के कारण इसकी जरुरत और उपयोगिता और भी बढ़ जाती है।

इसके अलावा प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं के दौरान भी इसका उपयोग किया जा सकता है। क्योंकि आपदाओं के समय राहत सामग्री पहुंचाना हो या आपदा से ग्रसित इलाके की छान-बीन करना हो इन सभी कामों में इसका उपयोग किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में अक्सर दूरस्थ इलाकों में मोबाइल नेटवर्क बाधित होने से वहाँ के लोगों से संपर्क टूट जाता है, तो उस स्थिति में मोबाइल कम्यूनिकेशन नेटवर्क की मदद से नेटवर्क को बहाल किया जा सकता है।

तकनीकी चुनौतियों पर काम करने की जरुरत

एचएपीएस तकनीक में अभी रिसर्च चल रही है। कोई भी देश अभी तक इनसे जुड़ी खामियों को पूरी तरह से दूर नहीं कर पाया है। सबसे बड़ी चुनौती पेलोड़ को चलाने और एयरक्राफ्ट को उड़ाने के लिए पर्याप्त मात्रा में बिजली उत्पन्न करने की है क्योंकि जितनी ज्यादा उर्जा मिलेगी विमान उतने ही अधिक समय तक हवा में उड़ सकेगा। बैटरी का पाॅवरफुल होना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि सूर्य की ऊर्जा रात में प्राप्त नहीं हो पाती है।

डिजाइन की बात करें तो इसे ज्यादा से ज्यादा हल्का बनाने पर फोकस किया जा रहा है ताकि ऊर्जा की खपत कम हो। लेकिन इसी के साथ इसके संतुलन के लिए भी रिसर्च हो रहीं हैं। स्ट्रैटोस्फियर के जिस भाग में यह विमान उड़ान भरेगा वहां हवा की गति वायुमंड़ल के अन्य भागों की तुलना में कम होती है। इस कारण गति कम होने पर हल्के एयरक्राफ्ट स्टेबल बने रहते हैं।

इतनी ऊंचाई पर तापमान -50 डिग्री सेल्सियस तक चला जाता है। इतने कम तापमान पर मशीन को सही ढ़ंग से चलाए रखने के लिए ऊर्जा की अतिरिक्त जरुरत पड़ेगी। इसलिए सोलर पैनल और बैट्री दोनो को अधिक सक्षम होना चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि हमें एनर्जी डेंसिटी बढ़ाने पर जोर देना पडे़गा, क्योंकि अभी हमारे पास इसरो की बैट्रियाँ हैं। इनकी एनर्जी डेंसिटी 190 से 200 वाट-घंटा/किलोग्राम है। दुनिया की सबसे विकसित कार निर्माता कंपनी टेस्ला के पास 240 से 260 वाट-घंटा/किलोग्राम तक की एनर्जी डेंसिटी वालीं बैट्रीज़ हैं। हालांकि एक कंपनी के पास 500 वाट-घंटा/किलोग्राम तक की एनर्जी डेंसिटी वाली बैट्रीज़ की तकनीक उपलब्ध है लेकिन यह तकनीक काफी महंगी होने के कारण एचएपीएस में उपयोग में नहीं लाई जा सकती है। ( बैट्री की एनर्जी डेंसिटी से मतलब है कि बैट्री अपने भार(वज़न) की तुलना में कितनी एनर्जी स्टोर कर सकती है। )

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