Site icon Youth Ki Awaaz

बच्चों की परवरिश में पिता पीछे क्यों ?

हाल ही में पुणे से आते हुए मुंबई एयरपोर्ट पर कुछ घंटे बिताने का मौका मिला। पुरुष शौचालय में जाते हुए एक चीज़ ने मेरा ध्यान सहज ही आकर्षित किया। शौचालय में छोटे बच्चों का “डायपर” चेंज करने के लिए एक प्लेटफार्म बनाया हुआ था। यह पहली बार था, जब किसी पुरुष शौचालय में इस प्रकार की सुविधा देखी। आज के आलेख को शुरू करने से पहले उस सोच को सलाम करता हूँ, जो यह मानती है कि एक बच्चे की देखभाल केवल किसी महिला का काम नहीं है।

सामाजिक मान्यताएं और पारंपरिक जेंडर आधारित भूमिकाएँ अक्सर इस बात को प्रभावित करती हैं कि व्यक्ति माता-पिता के रूप में अपनी भूमिकाएँ कैसे समझते हैं और उन्हें कैसे निभाते हैं। एक बच्चे को बड़े करने को लेकर समाज, अक्सर औरत और मर्द के लिए अलग-अलग रोल और भूमिकाएं तय करता है। अक्सर, माताएं पालन-पोषण और देखभाल से जुड़ी रही हैं, जबकि पिता से प्रदाता (प्रोवाइडर) और रक्षक होने की उम्मीद की गई है। ये अपेक्षा पितृत्व को समझने और अनुभव करने के तरीके को प्रभावित करती है और बच्चे से खुद को धीरे-धीरे दूर करती है। पिता घर के बाहर काम, अपने दोस्तों और “खुद में” इतना व्यस्त होने लगता है कि बच्चे उसकी प्राथमिकता में नहीं रह पाते।

देखभालकर्ता और बच्चे का रिश्ता

अनेक रिसर्च यह साबित कर चुके हैं कि बच्चे का मस्तिष्क विकास उसके शुरूआती २-३ सालों में ही ८०% से अधिक हो चुका होता है। इस स्थिति में वह अपने परिवेश से अपनी समझ को काफी हद तक बना चुका होता है, जो उसके आने वाले जीवन को बहुत हद तक प्रभावित करती है।

एक बच्चे का लगाव और भावनात्मक जुड़ाव उस देखभाल करने वाले के साथ ज्यादा होगा; जिसके साथ वह वक़्त बिताता है। देखभाल करने वाले के साथ बच्चा खुद को सुरक्षित महसूस करता है। वह उसकी गर्मजोशी और स्पर्श को समझ पाता है।

देखभाल करने वालों के साथ बातचीत छोटे बच्चों में सामाजिक और संचार कौशल के विकास को सुविधाजनक बनाती है। इशारों और बातचीत के माध्यम से, देखभालकर्ता बच्चों से बात करने, दूसरों की भावनाओं को समझाने और सामाजिक परिस्थितियों से निपटना सिखाते हैं। देखभाल करने वाले बच्चों को उनकी भावनाओं को नियंत्रित करने और नियंत्रित करने में मदद करने में ज़रूरी भूमिका निभाते हैं। पढ़ने, गाने और खेलने जैसी गतिविधियों में संलग्न होने से न केवल बौद्धिक विकास को बढ़ावा मिलता है, बल्कि देखभाल करने वाले और बच्चे का बंधन भी मजबूत होता है, जिससे सकारात्मक मानसिक विकास को बढ़ावा मिलता है।

बच्चे को “दोनों” चाहिए

अक्सर देखा गया है कि शुरूआती वर्षों में देखभालकर्ता के रूप में ज्यादातर समय एक बच्चे के सबसे ज्यादा पास उसकी माँ होती है। बच्चे का पोषण, साफ़-सफाई, सुलाना-खिलाना-बातें करना, उसे बाहर घुमाने ले जाना, टीके लगवाना आदि में माता का रोल ज्यादा बड़ा दिखता है, जबकि अक्सर पिता का रोल बाहर से सामान लाकर देना, खरीददारी, ड्राइव करने तक सीमित होकर रह जाता है। ऐसा नहीं है कि पिता अपने रोल को बढ़ाना नहीं चाहते किन्तु अक्सर सामाजिक रोकटोक उनका रास्ता रोक देती हैं। ऐसे में जहाँ एक तरफ वह बच्चे की ज़रूरतों तक को नहीं समझ पाता; वहीँ बच्चे से शुरुआती जुड़ाव में भी वह पिछड़ता चला जाता है।

एक पिता देखभालकर्ता के रूप में पालन-पोषण के लिए एक अलग दृष्टिकोण लेकर आते हैं। ये दृष्टिकोण माताओं के पूरक होते हैं। यह विविधता बच्चों के अनुभवों को समृद्ध करती है और उन्हें संबंधों की व्यापक समझ को विकसित करने में मदद करती है।

एक बच्चा अगर शुरुआती सालों में अपने पास अपने पिता या किसी पुरुष देखभालकर्ता को नहीं पाता तो वह सहानुभूति, सहयोग और समस्या समाधान में महिला-पुरुष के रोल जैसे महत्वपूर्ण जीवन कौशल और मूल्यों को समझते की अपनी समझ विकसित नहीं कर पाता।

प्रसिद्ध नारीवादी कार्यकर्ता (स्व.) कमला भसीन ने देखभाल और पालन-पोषण की भूमिकाओं में पिता को शामिल करने के महत्व पर बहुत ज़ोर दिया है। वह जेंडर समानता की वकालत करती है और अधिक न्यायसंगत समाज बनाने के लिए पारंपरिक जेंडर भूमिकाओं को चुनौती देती है। वे अपने एक इंटरव्यू में कहती है कि अगर किसी बच्चे का शुरुआती जीवन केवल एक महिलाओं के समूह या केवल पुरुषों के समूह के बीच गुज़रे; जहाँ दूसरा लिंग पूरी तरह से अनुपस्थित हो तो असल में आप एक बच्चे से उसके पूरे भविष्य का आधा “सच”, आधी “भावना”, आधी “दुनिया” छीन लेते हैं।

ममत्व की भावना खो देता है पिता

ऐसा नहीं है कि एक पिता या पुरुष देखभालकर्ता नहीं होने का केवल बच्चों के ऊपर ही नकारात्मक असर होता है, एक पिता भी बच्चे के साथ शुरुआती सालों में नहीं जुड़कर बहुत कुछ खो देता है। एक उदाहरण देखिये-

मैंने पिछले साल अपने एक सहकर्मी “राहुल” को पिता बनने की खबर के साथ भावुक हुए देखा है। कुछ महीनों बाद हम उसकी बिटिया और नीता भाभी से मिलने पहुंचे तो मैंने राहुल से उसकी भावना को समझने की कोशिश की। राहुल का कहना था अगर वो पिता नहीं बनता और अपनी बेटी को हाथ में नहीं लेता तो शायद वो “ममत्व” को नहीं समझ पाता। उसका विश्वास था कि जिस तरह से एक बच्चे को जन्म देने के बाद किसी महिला के हार्मोन्स और भावनाओं में बहुत ज्यादा बदलाव आ जाता है, वैसे ही बदलाव एक पुरुष भी महसूस करता है। ये बदलाव उसे अपने अन्दर के ममत्व और एक प्यारे अहसास को समझने में मदद तो करते ही हैं; फिर से उस दौर के “इमोशन” से जुड़ने में मदद करता है, जिसे अक्सर एक पुरुष घर के बाहर की ज़िन्दगी जीते हुए लगभग भूल चुका है। राहुल लगभग मुस्कुराते हुए इस अहसास को “बापत्व” शब्द देता है।

कमला भसीन कहती हैं कि पुरुषों में स्वाभाविक रूप से प्रभुत्व और नियंत्रण की पारंपरिक धारणा आ ही जाती है। यह “पुरुषत्व या मर्दानगी” उसे खुलकर अपनी भावनाएं व्यक्त करने से रोकती है- सबके सामने खुलकर रोने से रोकती है- इमोशनल होने से भी रोकती है। पिता के रूप में अपनी जिम्मेदारी को समझने से ये मर्दानगी की परिभाषा बदलती है। वह पुरुषों को देखभाल की भूमिकाएं अपनाने और भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित करती है, साथ ही उन कठोर जेंडर मापदंडों को चुनौती देती है जो देखभाल में पुरुषों की भागीदारी को सीमित करते हैं।

चलते चलते,

मेरे एक सहकर्मी भूपेन्द्र चाय पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि क्या हो अगर हम किसी दिन अपने दूधमुंहे बच्चे के साथ ऑफिस आ जाएँ? माताएं अगर बच्चों को लेकर आये तो उनके लिए एक पूरा सपोर्ट सिस्टम तैयार होता है; क्या हमारे साथ भी ऐसा होगा? क्या ऑफिस के अन्य पुरुष साथी मेरे बच्चे के साथ सहज हो पायेंगे? भूपेन्द्र का प्रश्न शायद एक ऐसे “सपोर्ट सिस्टम” के निर्माण के महत्त्व पर जोर देता है जो नीतियों और पहल (इनिशिएटिव) के नज़रिए से देखभाल में पिता की भागीदारी का समर्थन करता हैं। भूपेन्द्र एक बहुत ही महत्वपूर्ण बदलाव की ओर इशारा करते हैं जो अवश्य ही पितृत्व अवकाश (पेटरनिटी लीव), लचीली कामकाजी व्यवस्था और बच्चों की देखभाल सम्बन्धी सुविधाओं तक पहुँच जैसे विषयों के साथ एक सक्षम माहौल के निर्माण की पैरवी करता है। 

Exit mobile version