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‘थ्री ऑफ़ अस’ आपको आपकी ज़िंदगी में वापस खुश होना सिखा देगा

साल का अंत करीब था और सब लोग अपने – अपने तरीके से पुरे साल की यादो को बातो में तस्वीरों संजोने में लगे थे , इसी बिच एक बड़ी सीधी सी शांत सी मूवी आयी ”थ्री ऑफ़ अस”। नाम बड़ा अलग सा लगा और यक़ीन मानिये ये साधारण पटकथा पर बनी कोई मन को प्यार के होने पर तितलियाँ उड़ाने वाली मूवी बिलकुल भी नहीं थी !

ये कुछ ऐसा था शायद जिसकी मुझे तलाश एक लम्बे अरसे से थी।

कहानी की शुरुआत होती है शैलजा कामत (शेफाली शाह) से जो एक साधारण सी दिखने वाली अधेड़ उम्र की महिला है। शांत है, साधारण वेश भूषा है और इन सब से इतर वो एक माँ और एक पत्नी है। अगर समाज के नज़रिये से देखें तो एक किस्मत वाली औरत जिसके पास सुखी गृहस्थ जीवन को जीने के लिए सब कुछ है लेकिन कहते हैं ना ”हाथी के दांत दिखाने के कुछ और खाने के कुछ और”। शैलजा के जीवन में भी कुछ ऐसा ही चल रहा है। दूर से नज़र आने वाली ख़ुशी इतनी भी सच नहीं, जिसमे वो खुल कर सांस तक ले सके। शैलजा को ”डेमेंशिया” यानी धीरे-धीरे सब कुछ भूल जाने की बीमारी का पता लगता है!

वो रात को अपने कमरे में बैठे – बैठे अपने पति से अचानक ”वेंगुर्ला” चलने की बात करती है, जहाँ कुछ समय के लिए उसका बचपन बीता। कहानी की शुरुआत समझ लीजिये यहाँ से शुरू होती है और यहाँ से ये कहानी और इसके किरदार आपके हाथो को ज़ोर से पकड़ कर आपको खुद की कहानी में लेकर चले जाते हैं, जहाँ वेंगुर्ला के पुराने घर में आपको अपने किसी पीछे छूट गयी याद की एक तस्वीर टंगी नज़र आने लगती है।

लगता है शैलजा की तरह ही हम सब उम्र की सीमा से तो गुज़रे जा रहे हैं लेकिन ज़िन्दगी किसी छोटे बच्चे की तरह आज भी बचपन की नासमझों वाली दुनिया में छिपी बैठी है, जहाँ जाने पर ही आज के घुटन, आज के सवाल, आज की उलझनों का जवाब मिल जायेगा। हम फिर से खुलकर जी पाएंगे और हम फिर से अपने उस उद्गम को पहचान पाएंगे क्योंकि हमें सच में पता नहीं कि हमें क्या चाहिए और क्यों चाहिए। उदासीन हो जाना, खुद को भूल जाना हमे कितना भी आसान क्यों न लगे पर आपका जीवन आज भी आपके किसी बिताए हुए वेंगुर्ला के इंतज़ार में है, जो आपका उद्गम है। तो अपने उस उद्गम को वापस से महसूस करिये। अपने अस्तित्व को वहां वापस से जाकर निहार लीजिये क्योंकि ये ज़िन्दगी इतनी भी बोझिल नहीं, जिसे हमारी आत्मा ही खो दे आप आज भी उतने ही नायब हैं बस खुद को महसूस करते रहना होगा और अपने वजूद को और अपने एहसास को साथ लेकर चलना होगा क्यों कि ”खुद को ही भूल जाने से बड़ी कोई मौत नहीं”।

ज़िन्दगी यादों, एहसासों की एक लड़ाई है और आपका होना ही आपका उद्गम है बस आप अपने एहसासों से जुड़े रहिए, ज़िन्दगी आज भी आपसे उतनी ही मोहब्ब्बत करती है, जितना एक बचपन अपने नए-नए सपनों से, अपने दोस्तों से और अपने पुराने बस्ते से।  

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