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भारत में आपराधिक न्याय सुधार और मजदूर वर्ग

25 दिसंबर, 2023 को, बुर्जुआ राज्य तंत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए, भारत के राष्ट्रपति ने देश की आपराधिक न्याय प्रणाली को नया आकार देने के उद्देश्य से तीन विधेयकों – भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम – की पुष्टि की। इस कदम की मज़दूरवर्गीय दृष्टिकोण से सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता है।

सबसे पहले, बुर्जुआ राज्य के तत्वावधान में किसी भी महत्वपूर्ण कानूनी सुधार को संदेह के साथ देखा जाना स्वाभाविक है। क्योंकि ऐतिहासिक रूप से, ऐसे सुधारों ने अक्सर शासक वर्ग के नियंत्रण को मजबूत करने, कानूनी प्रणाली के भीतर मौजूदा शक्ति असंतुलन को अस्पष्ट करने का काम किया है।

इन बिलों की विशिष्ट सामग्री – विशेष रूप से उचित प्रक्रिया, साक्ष्य स्वीकार्यता और नागरिक अधिकारों से संबंधित – यह निर्धारित करने के लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता है कि क्या वे वास्तव में श्रमिक वर्ग के लिए न्याय तक पहुंच बढ़ाते हैं या केवल राज्य नियंत्रण के साधन बनकर रह जाते हैं। हमें पूंजीपति वर्ग को और अधिक सशक्त बनाने और असहमति को दबाने के लिए इन सुधारों का उपयोग करने के किसी भी प्रयास के प्रति सतर्क रहना चाहिए।

वर्ग-विभाजित समाज में कानूनों की प्रभावशीलता सिर्फ उनकी सामग्री पर नहीं, बल्कि उनके कार्यान्वयन पर निर्भर करती है, जो स्वाभाविक रूप से प्रमुख प्रभावी वर्ग के हितों की ओर झुकी होती है। उदहारण स्वरूप भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 (पुराने कानून का 438) अग्रिम जमानत की धारा लें। पुराने कानून में इसमें 3 तीन उपधाराएँ थी, नए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में भी ये तीनो उपधाराएँ बिना बदलाव के रखी गयी हैं। लेकिन एक चौथी उपधारा इसमें जोड़ दी गयी है।

इस चौथी उपधारा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति भारतीय न्याय संहिता की धारा 65 (16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ बलात्कार) और धारा 70(2) (18 वर्ष से कम उम्र की महिला के साथ एक या एक से अधिक लोगो द्वारा बलात्कार) के तहत बलात्कार का आरोपी है तो वह व्यक्ति अग्रिम जमानत पाने का हकदार नही होगा। लेकिन उस स्थिति में क्या होगा अगर आरोपी कोई रसूखदार व्यक्ति हो या सत्तादरी व्यक्ति से सम्बंध रखता हो! क्या पुलिस अनिवार्य रूप से उसे गिरफ्तार करेगी या ब्रजभूषण सिंह की तरह उसे बच निकलने का पूरा मौका देगी। हम जानते है कि ब्रजभूषण सिंह के ऊपर पॉस्को एक्ट की भी धारा लगी थी लेकिन पुलिस उसे मौका देती रही और वह अंततः बच निकला। लेकिन अगर कोई आम नागरिक हो,भले ही उस पर झूठ आरोप लगाया गया हो, तो उसके लिये बच पाना मुश्किल है। इतना ही नही, भ्रष्टाचार के आरोप में आम आदमी पार्टी के मंत्री तक को जांच के नाम पर जेल के सलाखों के पीछे लम्बे समय तक हमने सड़ते देखा है और देख रहे है जबकि अभियोजन पक्ष कोई भी ठोस सबूत अभी तक पेश नही कर पाया है। तो फिर कानून को और कठोर बनाने का क्या मकसद है, क्या कानून को कठोर बनाने का सिर्फ इतना ही मकसद है कि वो सत्ताधारी वर्ग और उसकी पार्टी को इतना मजबूत कर दे कि जनतंत्र उनके हाथ का खिलौना बन जाये? जो भी हो, कुछ इसी मकसद को आगे बढाते हुए भाजपा सरकार 2023 में बड़े-बड़े दावों के साथ अगस्त महीने में तीन “आपराधिक बिल” औपनिवेशिक काले कानूनों से मुक्ति के नाम पर सुधार की आड़ में ले कर आयी है।

“आपराधिक कानून” सुधार की आड़ में पूंजीपति वर्ग की पार्टी भाजपा के नवीनतम नाटकीय प्रदर्शन ने उस समय एक विचित्र मोड़ ले लिया जब अगस्त 2023 के बिल, जिसका उद्देश्य आईपीसी, सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम – पूंजीवादी नियंत्रण के उपकरण – को और कठोर करते हुए बदलना था, सार्वजनिक आक्रोश की जोरदार गर्जना के सामने धरासायी हो गया, जब सोशल मीडिया और गैर मोदी मीडिया के खुलासे ने इन बिलों के असली उद्देश्य को उजागर कर दिया: बुर्जुआ राज्य की शक्ति को और मजबूत करना और असहमति को दबाना।

यहां तक कि कड़े कानूनों के लिए कुख्यात भाजपा नेतृत्व वाली संसदीय स्थायी समिति ने भी “हल्की चिंता” व्यक्त की थी, जो इन विधेयकों के गैर जनवादी रित्र का संकेत था। हालाँकि, उनके प्रस्तावित संशोधन महज दिखावटी थे। फिर भी भाजपा सरकार को उस पहले बिल को वापस लेनी पड़ी और दिसंबर 2023 में बिल का “दूसरा मसौदा” प्रस्तुत करना पड़ा। हालांकि यह दूसरा बिल भी एक दिखावा था, जो शर्मनाक टाइपो और सतही परिवर्तनों से भरा था जो कानून के मौलिक अलोकतांत्रिक चरित्र को संबोधित करने के लिए कुछ भी नहीं करता था। इसे ही लोक सभा द्वारा 20 दिसंबर और राज्य सभा द्वारा 21 दिसंबर को जल्दबाजी में उस समय पास करा लिया गया जब विपक्ष के अधिकांश सांसद अलोकतांत्रिक और गैरजिम्मेदाराना तरीके से किये गए निलम्बन का विरोध सदन के बाहर कर रहे थे। और उतनी ही जल्दबाजी में इसे 25 दिसंबर को राष्टपति की मंजूरी भी मिल गयी।

आपराधिक न्याय कानूनो का हिंदी नामकरण

तीनों विधेयकों के नाम केवल हिंदी में हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 में कहा गया है कि संसद द्वारा पारित सभी कानून अंग्रेजी में होने चाहिए। यह प्रावधान संविधान में यह सुनिश्चित करने के लिए शामिल किया गया था कि सभी नागरिक, चाहे उनकी भाषा कुछ भी हो, कानून को समझ सकें। और इस लिये यह नामकरण गैर संवैधानिक भी है।

तीन आपराधिक कानून संशोधनों का नाम हिंदी में रखने का सरकार का निर्णय स्पष्ट संकेत था कि वह अपने हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के प्रति प्रतिबद्ध है। सरकार जानती है कि हिंदी भारत में बहुसंख्यकों की भाषा है, और वह इस शक्ति का उपयोग अल्पसंख्यकों पर अपनी इच्छा थोपने के लिए कर रही है।

विधेयक के नामों में केवल हिंदी का प्रयोग संविधान का स्पष्ट उल्लंघन है। संविधान निर्दिष्ट करता है कि संसद द्वारा पारित सभी कानून अंग्रेजी में होने चाहिए। सरकार विधेयक में अंग्रेजी नामों को शामिल न करके इससे बचने की कोशिश कर रही है।

यह एक खतरनाक घटनाक्रम है। यह संकेत है कि सरकार तेजी से सत्तावादी होती जा रही है, और वह अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कुचलने को तैयार है।

“विउपनिवेशीकरण” का झूठा दावा

तीन नए विधेयकों के माध्यम से भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली को “उपनिवेशवाद से मुक्ति” देने का भाजपा सरकार के हालिया दावे में कोई दम नही है।

औपनिवेशिक विरासत में आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ हमे पूंजीवादी व्यवस्था भी मिली थी। औपनिवेशिक विरासत में मिले पूंजीवाद से मुक्ति के बिना सिर्फ औपनिवेशिक आपराधिक न्याय प्रणाली में सतही कानूनी सुधार द्वारा “विउपनिवेशीकरण” का भरोसा भ्रामक और पाखंडपूर्ण है। सही अर्थ में “विउपनिवेशीकरण” पूंजीवाद से मुक्ति के बाद ही सम्भव हो पायेगा जो मजदूरवर्ग के नेतृत्व में समाजवाद की स्थापना के साथ सम्पन्न हो पाएगा।

दूसरे, पूंजीवादी व्यवस्था की अंतर्निहित हिंसा का खात्मा किये बिना “विउपनिवेशीकरण” का दावा करना अपने आप में खोखला लगता है। बुर्जुआ राज्य, अपने कानूनी ढांचे की परवाह किए बिना, सर्वहारा वर्ग पर शासक वर्ग के प्रभुत्व को बनाए रखने का कार्य करता है। और केवल औपनिवेशिक क़ानूनों को उसी बुर्जुवा सत्ता संरचना के तहत नए क़ानूनों से बदलने से श्रमिक वर्ग को मुक्ति नहीं मिलेगी।

और भी, केवल कानून के दंडात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने से अपराध की गहरी आर्थिक जड़ों की अनदेखी होती है। गरीबी, अलगाव और उन्नति के अवसरों की कमी, जो पूंजीवाद में निहित हैं, व्यक्तियों को हताशापूर्ण कृत्यों की ओर धकेलते हैं। इन मूलभूत मुद्दों को संबोधित करने के लिए कानूनी संहिताओं के साथ छेड़छाड़ करने से कहीं अधिक की आवश्यकता है; यह स्वयं आर्थिक पूंजीवादी व्यवस्था के आमूलचूल पुनर्गठन की मांग करता है।

1950 के दशक में, भारत के संस्थापकों ने सभी नागरिकों के लिए समय पर न्याय सुनिश्चित करने का वादा किया था। पचहत्तर साल बाद भी भारत की न्यायिक व्यवस्था अभी भी अस्त-व्यस्त है। मामलों का बैकलॉग चौंका देने वाला है। 2020 में देश के उच्च न्यायालयों और जिला अदालतों में 4.9 करोड़ मामले लंबित थे । इनमें से 1.92 लाख मामले 30 वर्षों से अधिक समय से लंबित थे, और 56 लाख मामले 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित थे।

सुप्रीम कोर्ट भी मुकदमों के बोझ से निपटने के लिए संघर्ष कर रहा है। 2 अगस्त, 2022 तक शीर्ष अदालत में 71,441 मामले लंबित थे, जिनमें से 56,365 दीवानी मामले और 15,076 आपराधिक मामले थे।

यह बैकलॉग अपराध और अन्य प्रकार के अन्याय के पीड़ितों के लिए एक बड़ा अन्याय है। यह शासक वर्ग के पक्ष में आम जनता के खिलाफ कानून के शासन को भी कमज़ोर करता है और न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को ख़त्म करता है।

1948 में, मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा ने निष्पक्ष और त्वरित सुनवाई के अधिकार की गारंटी दी थी। लेकिन भारत में यह अधिकार एक दिवास्वप्न बना रहा है।

हाल ही के एक व्यंग्य निबंध में, भारतीय पत्रकार और लेखक मनु जोसेफ ने लिखा है:

“भारत में, न्याय एक ट्रेन की तरह है। आप इंतज़ार करते रहिए, और यह कभी नहीं आता। और जब यह आता है, तो हमेशा देर हो चुकी होती है।”

जोसेफ की उपमा उपयुक्त है। भारतीय न्याय व्यवस्था उस ट्रेन की तरह है जो हमेशा लेट होती है। और जब यह अंततः आता है, तो यह अक्सर भीड़-भाड़ वाला और असुविधाजनक होता है।

हालाँकि, इसमें संदेह है कि इन संशोधनों का लंबित मामलों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। न्यायिक प्रणाली की अंतर्निहित समस्याएँ, जैसे न्यायाधीशों और वकीलों की कमी, अभी भी बनी हुई हैं।

भारतीय न्याय संहिता

भारतीय दंड संहिता में 511 धाराएँ थीं, लेकिन भारतीय न्याय संहिता में केवल 358 धाराएँ बची हैं। संशोधन के माध्यम से 20 नए अपराधों को शामिल किया गया है और 33 अपराधों के लिए सज़ा की अवधि बढ़ा दी गई है। 83 अपराधों के लिए जुर्माना भी बढ़ाया गया है। 23 अपराधों के लिए अनिवार्य न्यूनतम सजाएँ निर्धारित हैं। इसके अतिरिक्त, छह अपराधों के लिए सामुदायिक सेवा दंड के प्रावधान पेश किए गए हैं।

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) एक व्यापक कानूनी संहिता है जो भारत में अपराधों और उनकी सजाओं को परिभाषित करती है। यह 1860 में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान अधिनियमित किया गया था, और तब से इसमें कई बार संशोधन किया गया है।

आईपीसी वर्ग उत्पीड़न का एक उपकरण है। आईपीसी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा बनाया गया था और यह शासक वर्ग के हितों को दर्शाता है। आईपीसी कई गतिविधियों को अपराध घोषित करता है जो श्रमिक वर्ग के बीच आम हैं, जैसे आवारागर्दी, जुआ और चोरी।

आईपीसी में 2023 के भारतीय न्याय संहिता के माध्यम से बदलावों को शासक वर्ग की वर्ग शक्ति को मजबूत करने के एक और प्रयास के रूप में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, संशोधित बीएनएस चोरी और धोखाधड़ी जैसे अपराधों के लिए दंड बढ़ाता है। इसे अमीरों की संपत्ति को गरीबों से बचाने के एक तरीके के रूप में देखा जा सकता है।

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की महत्वपूर्ण धाराओं में हालिया बदलाव शासक वर्ग द्वारा अपनी शक्ति को और मजबूत करने और असहमति को दबाने का एक स्पष्ट प्रयास है।

भारतीय न्याय संहिता की धारा 254, 255 और 257

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सरकार बीएनएस विधेयक की धारा 254, 255 और 257 लायी है जिसका उद्देश्य सरकारी अधिकारियों, मजिस्ट्रेटों और न्यायाधीशों को सरकारी लाइन पर चलने के लिए “डराना” है। यहाँ धारा 255 नीचे दिया जा रहा है:

“255. जो कोई लोक सेवक होते हुए, न्यायिक कार्यवाही के किसी प्रक्रम में कोई रिपोर्ट, आदेश, अधिमत या विनिश्चय, जिसका विधि के प्रतिकूल होना वह जानता हो, भ्रष्टतापूर्वक या विद्वेषपूर्वक देगा, या सुनाएगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, या दोनों से, दंडित किया जाएगा।”

दुनिया के किसी भी लोकतंत्र में ऐसे कानून नही है। भारतीय दंड संहिता (संशोधन) विधेयक, 2023 की धारा 255 के रूप में जाने जाने वाले इस कानून की कानूनी विशेषज्ञों ने व्यापक आलोचना की है, जो कहते हैं कि यह सरकार द्वारा न्यायपालिका को डराने और चुप कराने का एक स्पष्ट प्रयास है।

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने इन कानूनों के प्रावधानों का हवाला देते हुए पूछा है, “कौन सा अधिकारी सरकार के खिलाफ आदेश पारित करेगा? कौन सा मजिस्ट्रेट और न्यायाधीश सरकार के खिलाफ जाने की हिम्मत करेगा।”

यह कानून विशेष रूप से परेशान करने वाला है क्योंकि यह बहुत अस्पष्ट है। शब्द “कानून के विपरीत” व्याख्या के लिए खुला है, और सरकार इसका उपयोग किसी भी निर्णय के लिए न्यायाधीशों को दंडित करने के लिए कर सकती है, जिससे वह सहमत नहीं है। उदाहरण के लिए, एक न्यायाधीश जो राजनीतिक विरोध से जुड़े मामले में सरकार के खिलाफ फैसला सुनाता है, उस पर इस कानून का उल्लंघन करने का आरोप लगाया जा सकता है।

यह कानून न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का भी उल्लंघन है। न्यायाधीशों को सरकार से प्रतिशोध के डर के बिना, कानून के आधार पर निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र माना जाता है। यह कानून उस सिद्धांत को कमजोर करता है और अधिक सत्तावादी सरकार को जन्म दे सकता है।

यह कानून स्पष्ट संकेत है कि सरकार तेजी से निरंकुश होती जा रही है। सरकार अपनी शक्ति को मजबूत करने और असहमति को दबाने की कोशिश कर रही है।

धारा 124ए: राजद्रोह (152 देशद्रोह)

संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने जिस बात का सबसे ज्यादा ढोल पीटा वह था -राजद्रोह (धारा 124 ए आयीपीसी) के क़ानून का निरस्त किये जाने का और उसकी जगह देशद्रोह की धारा 152 लाने का। उनका कहना था कि पहले 124ए में सरकार(राज्य) के खिलाफ बोलना अपराध था जब कि बीएनएस में देश के खिलाफ बोलने को अपराध बनाया गया है। यह कथन कितना भ्रामक है इसे आप इससे ही समझ सकते है कि आईपीसी को प्रतिस्थापित करने वाले भारतीय न्याय संहिता, 2023, के भाग VII का शीर्षक ही है “राज्य के विरुद्ध अपराध” जिसकी धारा 152 “भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता को ख़तरे में डालने वाले कृत्यों” को अपराध मानती है।

आईपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह की पिछली परिभाषा अस्पष्ट और व्यापक थी, और अक्सर राजनीतिक असहमति को दबाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता था। बीएनएस की धारा 152 की नई परिभाषा, जो “राजद्रोह” शब्द को “देशद्रोह” से बदल देती है, और भी अधिक प्रतिबंधात्मक है। इसमें अब विशेष रूप से निम्नलिखित कृत्यों को देशद्रोह के रूप में शामिल किया गया है:

● जो कोई प्रयोजनपूर्वक या जानबूझकर, बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण या इलैक्ट्रानिक संसूचना द्वारा या वित्तीय साधन के प्रयोग द्वारा या अन्यथा अलगाव या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक क्रियाकलापों को प्रदीप्त करता है या प्रदीप्त करने का प्रयास करता है या अलगाववादी क्रियाकलापों की भावना को बढ़ावा देता है या भारत के संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालता है या ऐसे अपराध में सम्मिलित होता है या कारित करता है, वह आजीवन कारावास से, या ऐसे कारावास से जो सात वर्ष तक हो सकेगा, दंडनीय होगा और जुर्माने के लिए भी दायी होगा।

● स्पष्टीकरण- इस धारा में निर्दिष्ट क्रियाकलाप प्रदीप्त किए बिना या प्रदीप्त करने के प्रयास के बिना विधिपूर्ण साधनों द्वारा उनको परिवर्तित कराने की दृष्टि से सरकार के उपायों या प्रशासनिक या अन्य क्रिया के प्रति अननुमोदन प्रकट करने वाली टीका टिप्पणियां इस धारा के अधीन अपराध का गठन नहीं करती ।

यह नई परिभाषा सरकार के प्रति किसी भी प्रकार के राजनीतिक विरोध को अपराधीकरण करने का स्पष्ट प्रयास है। यह अधिक सत्तावादी शासन की दिशा में एक खतरनाक कदम है।

धारा 144: गैरकानूनी सभा (धारा 189 बीएनएस)

आईपीसी की धारा 144 के तहत गैरकानूनी सभा की पिछली परिभाषा भी अस्पष्ट और व्यापक थी। इसका उपयोग अक्सर एकत्रित होने के अधिकार को प्रतिबंधित करने के लिए किया जाता था, विशेषकर विरोध प्रदर्शनों के लिए। नई परिभाषा, जो धारा 144 को धारा 189 से प्रतिस्थापित करती है, थोड़ी अधिक विशिष्ट है।

धारा 113 आतंकवाद

भारतीय नई न्याय संहिता की धारा 113 में पहली बार आतंकवादी गतिविधि को परिभाषित किया गया है।

सरकार की आतंकवाद की नई परिभाषा हर जगह सत्तावादियों के लिए एक उपहार है। यह इतनी व्यापक है कि इसका इस्तेमाल सरकार के प्रति किसी भी असहमति या विरोध के दमन को उचित ठहराने के लिए किया जा सकता है। जबकि “जनता को डराना” जैसे सबसे घृणित सूत्र दूसरे बीएनएस में अनुपस्थित हैं, “आतंकवाद” की परिभाषा भेड़ के भेष में भेड़िया बनी हुई है। “राजनीतिक, आर्थिक, या सामाजिक संरचनाओं को अस्थिर करना” – आम जनता श्रमिक वर्ग के बुर्जुआ डर की गंध वाला एक सर्वव्यापी वाक्यांश – वैध असहमति को अपराध बनाता है और समाजवादी आकांक्षाओं को खतरे में डालता है।

इसके अलावा, “आतंकवाद” अभियोजन के लिए दोनाली हथियारों – यूएपीए और बीएनएस – को दोनों जगह रखना राज्य के असली इरादे को उजागर करता है। यूएपीए के “बेहद कमजोर सुरक्षा उपाय” और बीएनएस में उनकी पूर्ण कमी असहमत लोगों को चुनिंदा रूप से निशाना बनाने और संभावित पुलिस कदाचार के लिए प्रजनन स्थल बनाती है। यह अतिरेक केवल पूंजीपति वर्ग की सत्ता पर मजबूत पकड़ को मजबूत करने और सर्वहारा और आम नागरिक के प्रतिरोध के किसी भी अंश को कुचलने का काम करने वाला है।

ये सुधार नहीं बल्कि पूंजीवादी राज्य के दमन तंत्र को मजबूत करने के लिए एक जानबूझकर उठाया गया कदम है। उनका उद्देश्य विरोधियों एवम श्रमिक वर्ग को चुप करना, उनके संघर्षों का अपराधीकरण करना और बुर्जुआ शोषण की यथास्थिति बनाए रखना है। श्रमिकों को इस दिखावे को पहचानना चाहिए कि यह क्या है और मुक्ति के लिए अपने संघर्ष में एकजुट होकर इसका विरोध करना चाहिए।

सत्तावादी पुलिस शक्ति:

बीएनएस पुलिस को कथित “आतंकवाद” पर मुकदमा चलाने के लिए यूएपीए और बीएनएस के बीच चयन करने का स्वतंत्र विवेक देता है। यह, बीएनएस में सुरक्षा उपायों की कमी के साथ मिलकर, बड़े पैमाने पर पुलिस दुर्व्यवहार और असहमत लोगों को चुनिंदा निशाना बनाने का द्वार खोलता है। भ्रष्टाचार की संभावना बड़े पैमाने पर है, जिससे सत्ता के लीवर पर बुर्जुआ राज्य की पकड़ और मजबूत होती है।

सुधार का भ्रम

संशोधित बीएनएस कोई वास्तविक सुधार नहीं है, बल्कि बुर्जुआ शक्ति को मजबूत करने और असहमति के दमन को वैध बनाने के लिए एक जानबूझकर उठाया गया कदम है। श्रमिकों को इस हेरफेर को समझना चाहिए और इसे अपने अस्तित्व के उद्देश्य के खिलाफ एक हथियार के रूप में पहचानना चाहिए। इन कठोर कानूनों के खिलाफ लड़ाई सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं हो सकती, बल्कि पूंजीवादी उत्पीड़न के बंधनों से मुक्त समाजवादी भविष्य के व्यापक संघर्ष में एक आवश्यक जरूरी कदम बन गया है।

निम्न बुर्जुआ दहशत और “छोटे संगठित अपराध” की मृगतृष्णा (धारा 112, बीएनएस का दूसरा मसौदा)

पहले बीएनएस मसौदे में “छोटे संगठित अपराध” की अस्पष्ट परिभाषा मजदूर वर्ग पर तानी गई भरी हुई बंदूक थी। कोई भी कार्य जो नागरिकों के बीच “असुरक्षा की सामान्य भावना” पैदा करता है, जिसमें 13 सूचीबद्ध अपराधों और “अन्य सामान्य रूपों” से सब कुछ शामिल है, को आपराधिक माना जा सकता था। इस खुले हथियार का उद्देश्य सामूहिक कार्रवाई करना और छोटी-मोटी चोरी और जुए को निशाना बनाकर असहमति को दबाना था।

संशोधित परिभाषा, हालांकि संकीर्ण प्रतीत होती है, फिर भी बुर्जुआ व्यामोह की बू आती है। इसे “समूहों या गिरोहों” के कृत्यों तक सीमित करना गरीबी और शोषण की प्रणालीगत जड़ों की अनदेखी करते हुए, अपराध के केंद्र के रूप में श्रमिक वर्ग समुदायों की झूठी कहानी को पुष्ट करता है। इस पुनर्परिभाषा का उद्देश्य छोटे-मोटे अपराध को संबोधित करना नहीं है, बल्कि सामूहिक संगठन का अपराधीकरण करना और श्रमिक वर्ग का राक्षसीकरण करना है।

बीएनएस के विवादास्पद प्रावधानों में से एक नए अपराधों को शामिल करना है, जैसे मॉब लिंचिंग, घृणा अपराध और “धोखेबाज़ तरीकों ” से यौन संबंध बनाना, जिसका अर्थ है अपनी पहचान छिपाकर किसी के साथ यौन संबंध बनाना।

नया मॉब लिंचिंग कानून एक विशेष रूप से विडंबनापूर्ण प्रावधान है। मॉब लिंचिंग की समस्या का समाधान करने में विफलता के लिए भारत सरकार की लंबे समय से आलोचना की जाती रही है, जिसे अक्सर बहुसंख्यक समुदाय के भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ अंजाम दिया जाता है। अब, सरकार एक कानून पारित कर रही है, जिसका उपयोग सैद्धांतिक रूप से मॉब लिंचिंग में शामिल लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए किया जा सकता है।

बेशक, इसकी संभावना नहीं है कि इस कानून का इस्तेमाल वास्तव में बहुसंख्यक समुदाय के भीड़ पर मुकदमा चलाने के लिए किया जाएगा। इसकी अधिक संभावना है कि इसका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों पर मुकदमा चलाने के लिए किया जाएगा, जिन पर मॉब लिंचिंग का आरोप है, भले ही वे निर्दोष हों।

“कपटपूर्ण तरीकों” से संभोग पर नया कानून और भी अधिक परेशान करने वाला है। इसका स्पष्ट उद्देश्य अंतरधार्मिक जोड़ों को निशाना बनाना है, जिन पर अक्सर हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा “लव जिहाद” का आरोप लगाया जाता है। कानून का इस्तेमाल केवल संबंध बनाने के लिए अंतरधार्मिक जोड़ों पर मुकदमा चलाने के लिए किया जा सकता है, भले ही वे किसी धोखे में शामिल न हों।

निष्कर्षतः, आईपीसी की जगह नया बीएनएस(BNS) 2023 संशोधनों के बावजूद वे शासक वर्ग की वर्ग शक्ति को मजबूत करने का एक और प्रयास हैं। इसे आम नागरिकों, राजनीतिक विरोधियों और श्रमिक वर्ग के बीच आम अपराधों के लिए लोगों को दोषी ठहराना और अधिक कठिन बनाने और शासक वर्ग की संपत्ति और प्रतिष्ठा की रक्षा करने के तरीके के रूप में देखा जा सकता है।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता, 2023

दंड प्रक्रिया संहिता यानि सीआरपीसी की जगह अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता ने ले ली है। सीआरपीसी की 484 धाराओं के बदले भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में 531 धाराएं हैं। नए कानून के तहत 177 प्रावधान बदले गए हैं जबकि नौ नई धाराएं और 39 उपधाराएं जोड़ी हैं। इसके अलावा 35 धाराओं में समय सीमा तय की गई है।

बीएनएसएस के सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक अनुपस्थिति में मुकदमा चलाने की क्षमता है। इसका मतलब यह है कि किसी आरोपी व्यक्ति को अदालत में उपस्थित हुए बिना भी दोषी ठहराया जा सकता है और सजा सुनाई जा सकती है। यह प्रावधान प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का स्पष्ट उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि निष्पक्ष सुनवाई के बिना किसी को दंडित नहीं किया जाना चाहिए।

बीएनएसएस साक्ष्य की रिकॉर्डिंग सहित संपूर्ण परीक्षण प्रक्रिया को ऑनलाइन आयोजित करने की भी अनुमति देता है । इससे रसूखदार शासक वर्ग के लिए सबूतों में हेरफेर करना या गवाहों को डराना आसान हो सकता है।

बीएनएसएस का एक और समस्याग्रस्त प्रावधान पुलिस हिरासत अवधि का विस्तार है। मौजूदा आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत, अधिकतम पुलिस हिरासत अवधि 15 दिन है। बीएनएसएस पुलिस को अपराध की गंभीरता के आधार पर किसी आरोपी व्यक्ति को 60 या 90 दिनों तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है। इससे पुलिस को ज़बरदस्ती अपराध स्वीकार करने या सबूत गढ़ने के लिए अधिक समय मिल जाता है।

पुलिस को सशक्त बनाना, अधिकारों का हनन:

विधेयक पुलिस की शक्तियों का महत्वपूर्ण रूप से विस्तार करता है, जिससे उन्हें मामला दर्ज करने से पहले “प्रारंभिक जांच” करने की अनुमति मिलती है, जिससे एफआईआर दर्ज करने की कानूनी बाध्यता प्रभावी रूप से कम हो जाती है। इससे भय और संदेह का भयावह माहौल बनता है, जहां किसी को भी मामूली बहाने से पूछताछ के लिए बुलाया जा सकता है। कथित आतंकवाद पर मुकदमा चलाने के लिए यूएपीए और बीएनएस के बीच चयन करने की क्षमता विशिष्ट समूहों और व्यक्तियों को लक्षित करने की राज्य की क्षमता को और मजबूत करती है।

गैर-आरोपी व्यक्तियों से बायोमेट्रिक्स का अनिवार्य संग्रह निगरानी तंत्र का विस्तार करता है, जिससे राज्य को श्रमिक वर्ग और संभावित असंतुष्टों की गतिविधियों की निगरानी और ट्रैक करने की अनुमति मिलती है। यह, पुलिस हिरासत की बढ़ती अवधि और हथकड़ी लगाने की बढ़ती प्रथाओं के साथ मिलकर, निरंतर धमकी और दमन का माहौल बनाता है।

मानसिक अस्वस्थता बनाम मानसिक बीमारी: व्यवस्था की क्रूरता से ध्यान भटकाना

“मानसिक अस्वस्थता” से “मानसिक बीमारी” तक की शब्दावली को सुधारना मानव अधिकारों की जीत की तरह लग सकता है। हालाँकि, यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि पूंजीवादी व्यवस्था स्वयं अपनी अंतर्निहित असमानताओं और अलगाव के माध्यम से मानसिक बीमारी पैदा करती है। व्यक्तिगत निदान पर ध्यान केंद्रित करने से उन प्रणालीगत कारकों को अस्पष्ट किया जा सकता है जो मानसिक संकट पैदा करते हैं – गरीबी, शोषण और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच की कमी। असली लड़ाई इन संरचनाओं को ध्वस्त करने में है, न कि केवल लेबलों से छेड़छाड़ करने में।

इलेक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकी: नियंत्रण के लिए दोधारी तलवार

विधेयकों में इलेक्ट्रॉनिक प्रौद्योगिकी पर भ्रम श्रमिक वर्ग को सशक्त बनाने की क्षमता के बारे में पूंजीपति वर्ग की चिंताओं को उजागर करता है। हालाँकि कुछ ऑनलाइन कार्रवाइयों को हटाना एक कदम पीछे हटने जैसा लग सकता है, लेकिन यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग उत्पीड़न और मुक्ति दोनों के लिए किया जा सकता है। हमें सर्वहारा वर्ग के लिए बढ़ी हुई डिजिटल साक्षरता और पहुंच की वकालत करनी चाहिए, न कि असहमति के उपकरण के रूप में प्रौद्योगिकी के प्रति शासक वर्ग के डर के आगे झुकना चाहिए।

व्यभिचार: एक बुर्जुआ नैतिकता का खेल

व्यभिचार को अपराध बनाए रखने की स्थायी समिति की सिफारिश को अस्वीकार करना पुराने पितृसत्तात्मक मानदंडों को खत्म करने की दिशा में एक स्वागत योग्य कदम है। हालाँकि, हमें इस संभावना के प्रति सचेत रहना चाहिए कि इस “रियायत” का उपयोग असमानता और शोषण को कायम रखने वाली बुर्जुआ पारिवारिक संरचनाओं के लिए सरकार के निरंतर समर्थन को छिपाने के लिए किया जा सकता है। लैंगिक समानता की लड़ाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो सभी प्रकार के उत्पीड़न को चुनौती दे, न कि केवल पुराने कानूनों को टुकड़ों में हटा दे।

हालाँकि कुछ संशोधन विशिष्ट अपराधों के लिए कम सज़ाओं का प्रावधान करते हैं, लेकिन वे जनता पर फेंके गए टुकड़े मात्र बनकर रह जाते हैं जबकि जेल की दीवारें मजबूती से अपनी जगह पर बनी रहती हैं। उदाहरण के लिए, हिट-एंड-रन दुर्घटनाओं के लिए बढ़ी हुई सज़ा पीड़ितों के लिए वास्तविक चिंता का विषय नहीं है, बल्कि आगे की निगरानी और नियंत्रण के लिए एक उपकरण के रूप में काम करती है, जिससे ड्राइवरों को अधिकारियों को रिपोर्ट करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। जो बाद में इस जानकारी को उनके खिलाफ हथियार बना सकते हैं।

सही मायने में न्यायपूर्ण कानूनी प्रणाली को पारदर्शिता, जवाबदेही और न्याय तक समान पहुंच को प्राथमिकता देनी चाहिए, न कि विशेषज्ञ राय और तकनीकी उपकरणों के उपयोग के माध्यम से मौजूदा शक्ति असंतुलन को मजबूत करना चाहिए।

नई भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में कई अन्य समय सीमाएँ भी शामिल हैं, जैसे कि अदालतों को दलीलें पूरी होने के 30 दिनों के भीतर फैसला जारी करने को आवश्यक बनाया गया है। हालाँकि, वर्तमान पूंजीवादी न्याय प्रणाली में संरचनात्मक सुधारों के बिना इन समय सीमाओं का कोई वास्तविक प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है।

वर्तमान भारतीय न्याय प्रणाली आर्थिक असमानता पर आधारित है। अमीर सबसे अच्छे वकील खरीद सकते हैं और मुकदमे को वर्षों तक विलंबित कर सकते हैं, जबकि गरीबों को अक्सर दलील स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाता है या उन्हें न्याय से वंचित कर दिया जाता है। यह व्यवस्था भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप से भी ग्रस्त है।

नई प्रणाली इन अंतर्निहित समस्याओं का समाधान करने के लिए बहुत कम प्रयास करती है। अदालतों के वर्तमान कार्यभार को देखते हुए समय सीमा बिल्कुल अवास्तविक है। इसके अलावा, यह प्रणाली अभी भी पुलिस और सरकार को बहुत अधिक शक्तियाँ देती है।

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली अक्षमता का चमत्कार है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो लोगों को अपराध से बचाने के लिए नहीं, बल्कि जेल में रखने के लिए बनाई गई है।

यह प्रणाली इतनी अक्षम है कि अनुमान है कि भारत में सभी कैदियों में से 77% प्री-ट्रायल बंदी हैं। इसका मतलब यह है कि जेल में बंद अधिकांश लोग निर्दोष हैं, या कम से कम अभी तक दोषी साबित नहीं हुए हैं।

यह व्यवस्था गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों के प्रति भी पक्षपाती है। जो लोग जमानत का खर्च वहन कर सकते हैं उनके जेल से रिहा होने की संभावना अधिक होती है, जबकि जो लोग जमानत का खर्च वहन नहीं कर सकते उनके हिरासत में रखे जाने की संभावना अधिक होती है।

नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) इस व्यवस्था को और खराब करने वाली है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो निर्दोषों को दंडित करने के लिए बनाई गई है, उनकी रक्षा करने के लिए नहीं।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 के प्रावधानों पर कुछ टिपण्णी

आत्म-अपराध के विरुद्ध अधिकार को कमज़ोर करना:

साक्ष्य अधिनियम, विशेष रूप से विधेयक की धारा 22 में स्वीकारोक्ति प्रावधानों में प्रस्तावित परिवर्तन एक प्रतिगामी कदम है।

धारा 22 में नए प्रावधान आत्म-दोषारोपण के खिलाफ महत्वपूर्ण अधिकार को कमजोर करते हैं। धोखे, नशे या यहां तक कि उचित चेतावनी के अभाव के माध्यम से प्राप्त बयानों को “प्रासंगिक” मानने की अनुमति देने से दुरुपयोग का द्वार खुल जाता है। यह विशेष रूप से मजदूर वर्ग के लिए चिंताजनक है, जो संसाधनों और कानूनी ज्ञान की कमी के कारण पुलिस की जबरदस्ती और दबाव की रणनीति के प्रति अधिक संवेदनशील हैं।

“पूरी तरह से हटाए गए प्रलोभन” खंड की अस्पष्टता एक व्यक्तिपरक और अनिश्चित कानूनी वातावरण बनाती है। यह न्यायाधीशों को संदिग्ध तरीकों से प्राप्त बयानों को स्वीकार्य मानने की छूट देता है, जिससे संभावित रूप से श्रमिक वर्ग के खिलाफ पक्षपातपूर्ण निर्णय हो सकते हैं, जो पहले से ही कानूनी प्रणाली द्वारा असमान रूप से लक्षित हैं।

विश्लेषण कानूनी व्यवस्था को सामाजिक नियंत्रण बनाए रखने और असहमति को दबाने के लिए शासक वर्ग के एक उपकरण के रूप में पहचान किया जाना चाहिये। मौजूदा सत्ता संरचनाओं को चुनौती देने वाले व्यक्तियों और आंदोलनों को चुप कराने के लिए इकबालिया बयान का सहारा लिया जा सकता है। नए प्रावधान, दबाव के बावजूद स्वीकारोक्ति को स्वीकार करना आसान बनाकर, राज्य को वर्ग संघर्ष और असहमति को दबाने के लिए एक और हथियार प्रदान करते हैं।

स्वीकारोक्ति से दोषसिद्धि तक: कैसे नया कानून साक्ष्य निष्कर्षण के माध्यम से राज्य की शक्ति को गहरा करता है

साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 और 26 को नए प्रावधान 4 के साथ विधेयक की धारा 23 में विलय करना उचित प्रक्रिया का एक खतरनाक क्षरण है और राज्य की शक्ति को आगे बढ़ाने के लिए एक उपकरण के रूप में कार्य करता है।

नया प्रावधान पुलिस हिरासत में किसी संदिग्ध से ली गई किसी भी जानकारी को सबूत के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति देता है, चाहे उसका स्वरूप या सामग्री कुछ भी हो । यह प्रभावी रूप से स्वीकारोक्ति और मनोवैज्ञानिक दबाव, धमकी, या यहां तक कि अवैध जबरदस्ती के माध्यम से निकाली गई जानकारी के बीच की रेखा को धुंधला कर देता है। इस तरह की रणनीति को वैध बनाकर, राज्य आत्म-दोषारोपण के खिलाफ अधिकार को दरकिनार कर सकता है और कमजोर व्यक्तियों से “सबूत” निकाल सकता है, विशेष रूप से श्रमिक वर्ग से जिनके पास संसाधनों और कानूनी ज्ञान की कमी है।

हिरासत में किसी संदिग्ध से ली गई किसी भी जानकारी का उपयोग करने की क्षमता के साथ, इसकी वैधता या विश्वसनीयता की परवाह किए बिना, आरोपी के खिलाफ सबूत गढ़ने या पक्षपातपूर्ण आख्यान बनाने की संभावना काफी बढ़ जाती है। यह निष्पक्ष साक्ष्य और उचित प्रक्रिया पर आधारित न्याय के मूल सिद्धांत को कमजोर करता है, खासकर उन व्यक्तियों के लिए जिनके पास मनगढ़ंत या हेरफेर किए गए साक्ष्य को चुनौती देने के लिए संसाधनों की कमी है।

डिजिटल हस्ताक्षर

डिजिटल हस्ताक्षर के संबंध में साक्ष्य विधेयक की धारा 39 और 41 में प्रस्तावित परिवर्तन कानूनी प्रणाली में बढ़ती निगरानी, पूर्वाग्रह और वर्ग असमानताओं की संभावना के बारे में चिंता पैदा करते हैं।

आईटी अधिनियम की धारा 79ए के तहत “इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य के परीक्षकों” की राय को अधिक महत्व देकर, विधेयक प्रभावी ढंग से राज्य निगरानी क्षमताओं का विस्तार करता है। इससे दुरुपयोग की संभावना के बारे में चिंताएं पैदा होती हैं, खासकर शासक वर्ग के आलोचक व्यक्तियों और समूहों के खिलाफ। आईटी अधिनियम की अपने व्यापक और अस्पष्ट रूप से परिभाषित प्रावधानों के लिए आलोचना की गई है, जिसका उपयोग निजी जीवन में अनुचित निगरानी और घुसपैठ को उचित ठहराने के लिए किया जा सकता है।

लोकतंत्र खतरे में:

सार्थक बहस और सार्वजनिक आलोचना से बचने के लिए बनाई गई जल्दबाजी वाली संसदीय प्रक्रिया इन विधेयकों की अलोकतांत्रिक प्रकृति की याद दिलाती है। वे आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार करने का प्रयास नहीं हैं, बल्कि पूंजीपति वर्ग की शक्ति को मजबूत करने और उनके आधिपत्य के लिए किसी भी चुनौती को चुप कराने के लिए एक जानबूझकर उठाया गया कदम है।

निष्कर्षतः, नया बीएनएस, बीएनएसएस और बीएसएस, मामूली बदलावों के बावजूद, बुर्जुआ दमन के साधन बने हुए हैं। उनका उद्देश्य असहमति को अपराध बनाना, सामूहिक कार्रवाई को चुप कराना और “खतरनाक” श्रमिक वर्ग के मिथक को कायम रखना है। ये विधेयक “आतंकवाद,” “संगठित अपराध” और “देशद्रोह” जैसे अस्पष्ट और आसानी से हेरफेर किए गए अपराधों का एक जाल बनाते हैं। स्पष्ट कानूनी परिभाषा से रहित ये शब्द, वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने के लिए एक हथियार के रूप में कार्य करते हैं, वैध असहमति और सक्रियता को अपराध बनाते हैं। इन कानूनों को लागू करने में पुलिस को दिया गया विवेक चयनात्मक अभियोजन और राजनीति से प्रेरित जादू-टोना का द्वार खोलता है। मजदूरवर्गीय आलोचना इन सुधारों को उजागर करती है कि वे क्या हैं: पूंजीवादी राज्य द्वारा सर्वहारा वर्ग के निरंतर शोषण और नियंत्रण के लिए एक पर्दा।

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