“थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गए
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गए “
14 जनवरी 2024 को एक ऐसी ख़बर मिली जिसने पूरे हिंदुस्तान की आँखे नम कर दी, देश ने अपना वो सितारा खो दिया जो पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान के अदब की पहचान था।
गंगा-जमुनी तहज़ीब के नुमाइंदा, हिंदी उर्दू अदब के अनमोल शायर सय्यद मुनव्वर अली राना का जन्म उत्तर प्रदेश की राय बरेली में हुआ था। जो हिंदी-उर्दू के महान शायरों और कवियों का गढ़ था।
मुनव्वर राना की माँ आयशा खातून और पिता सय्यद अनवर अली ने बंटवारे का दर्द झेला था। उनके कई रिश्तेदार उस समय पाकिस्तान चले गए लेकिन उनके पिता अनवर अली साहब अपनी सरज़मीं हिंदुस्तान को छोड़कर जाने के लिए कभी राज़ी नहीं हुए। जबकि आज़ादी के बाद के उथल-पुथल में उनकी ज़मींदारी भी चली गई और उन्होंने ने ट्रक ड्राइवर बन कर अपनी ज़िंदगी गुज़र बसर की।
अपने बचपन के दौर में उन्होंने पिता को काम के सिलसिले से बाहर रहते और माँ को अपने घर परिवार के लिए पर्दे में रह कर भी जद्दोजहद करते देखा। मुनव्वर राना का मानना था कि बचपन कहीं भी गुज़रे , ख़ूबसूरत होता है लेकिन ग़रीबी में और भी ख़ूबसूरत होता है। वो कहते हैं कि,
मेरा बचपन था, मेरा घर था, खिलौने थे मेरे,
सर पे मां-बाप का साया भी ग़ज़ल जैसा था !
नर्म-ओ-नाज़ुक-सा, बहुत शोख़-सा, शर्मीला-सा,
कुछ दिनों पहले तो “राना” भी ग़ज़ल जैसा था !
अपने जवानी के दिनों में मुनव्वर ने नक्सलियों के साथ उठना बैठना शुरू कर दिया था, जिससे नाराज़ होकर उनके वालिद ने उन्हें घर से निकाल दिया । वो दो सालों तक ट्रकों में घूमते रहें। और यही वो वक़्त था जब उन्होंने ज़िंदगी को करीब से देखा और बहुत कुछ सीखा।
उसके बाद मुनव्वर लखनऊ आये तो ये उनका पसंदीदा शहर बना गया और यहीं उनकी मुलाकात वली असी से हुई। वो वली आसी के शागिर्द बन गएं, और उनसे ही शायरी के इल्म को सीखा।
मुनव्वर राना हक़ीक़त पसंद शायर थे उनके शेरों में ख्वाबों से ज़्यादा असल ज़िंदगी के मुद्दे जैसे मज़दूर, मजलूम ,गाँव ,गरीबी ,खेत-खलिहान होता था। जिसे वो ऐसे बयां करते हैं कि,
“न मैं कंघी बनाता हूँ न मैं चोटी बनाता हूँ
ग़ज़ल में आपबीती को मैं जगबीती बनाता हूँ
ग़ज़ल वह सिन्फ़-ए-नाज़ुक़ है जिसे अपनी रफ़ाक़त से
वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ।”
मुनव्वर राना ने बस ग़ज़लें ही नहीं लिखीं बल्कि उन्होंने ग़ज़ल की धारणा भी बदली। जहां आलोचकों का मानना था कि ग़ज़ल के मानी महबूब से बाते करना होता है ,उन्होंने इस सोच को बदल दिया और माँ पर बेमिसाल शेर कहें, जो तारीख़ बन गई। वो ऐसे हैं कि,
“किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में माँ आई “
“चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है “
मुनव्वर हर रिश्ते को जीते थे, हर संवेदना को जीते थे। वो एक सरल ,सहज और ज़मीन से जुड़े शायर थे। उनकी किताबें उर्दू और हिंदी में शाय हुई हैं। वो अमन पसंद और हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे। लेकिन देश के बदलते माहौल को देख कर वो कहते थे कि,
ये देखकर पतंगें भी हैरान हो गईं,
अब तो छतें भी हिन्दू-मुसलमान हो गईं !
मुनव्वर राना का जाना उर्दू अदब में वो ख़ाली जगह बनाता है जिसको भर पाना नामुमकिन है। और अंतिम में उन्हें उनकी ही एक शेर से ख़िरज़-ए-अक़ीदत पेश करती हूँ
“तुम्हें भी नींद सी आने लगी है थक गए हम भी
चलो हम आज ये क़िस्सा अधूरा छोड़ देते हैं” ..
मुनव्वर राना साहब आप हमेशा ज़िंदा रहेंगे,
अपने लफ़्ज़ों से, हम सब की ज़बान पर।