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राजनीति में दब रहा हैं सामाजिक मुद्दा

एक कोट हैं ” राजनीति धान कि खेती में शुरू होती हैं, और धान कि खेती में ही खत्म हो जाती है” ये कथन सही भी है। क्योंकि हम राजीनिति में इतना घुस चुके है कि सामाजिक मुद्दा क्या है हमें पता नहीं होता। समाज का मतलब है समाज से संबंधित जहां लोगों की समस्या को सुना जाए और निवारण किया जाए, लेकिन क्या सच में समाज के लिए कोई ठोस कदम उठाए जा रहे है ?? 
 
क्या आला कमान (नेताओं) का समाज के प्रति कोई दायित्व नहीं है?
 
हम सब ने देखा है जब -जब इलेक्शन आते है सभी कोई एक्टिव हो जाता है। क्यों, क्यों को सबको जितना है सत्ता पर काबिज़ होना है। लेकिन क्या कभी किसी ने उस गरीबी रेखा के नीचे आने वालों से पूछा है की दो वक्त कैसे खा रहे हो। क्या कभी किसी नेता ने उन झुग्गी झोपड़ियों में गया है। जहा से उन्हें हस्तरण कर कही और शिफ्ट कर दिया जाता है। किसी ने कभी हिमाकत नहीं कि लेकिन जब-जब इलेक्शन कि बात आई है सबने फ़ोटो खिंचाई है। कोई पैर धो रहा है, तो कोई 2 लाख का चेक दे रहा हैं। क्या 2 लाख रूपए से इस का भरण पोषण हो जाएगा। क्या वो अपने बच्चे को पढ़ा लेगा नहीं, ये कभी नहीं हो पाएगा। 
 
अगर देना ही है तो उसे नौकरी दो, देना ही है तो इसे शिक्षा दो। बाबा अंबेडकर ने कहा था ” शिक्षा शेरनी का दूध है, जो इसे पिएगा वो दहाड़े ” तो ये दो ना , जिससे हम अपने पैरो पे खड़े हो । जब आप वोट लेने आए तो हम आप से आंखों में आंख डाल के पूछ सके कि आपने हमारे गांव हमारे शहर में विकास कितना किया ।
 
 
निष्कर्ष: एक नागरिक को आला कमान द्वारा पैसा, घर नहीं चाहिए होता है। उसे चाहिए विकास- अपने गांव का विकास, अपने शहर का विकास, सदियों से चलती आ रही मन में छुपे सवाल को पूछने कि आज़ादी का विकास। उसे चहिए आपके गलत कार्यों पर रोकने कि आज़ादी। दे पाएंगे आप ?? अगर हां तो दीजिए
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