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बदलते रिश्ते (कविता)

देखा नहीं था मैंने ऐसा किसी और में,

जैसा देख रही हूँ इस बदलते दौर में,

इंसान का बदलना फिर भी जायज़ ज़रा तब भी,

मगर बदलते रिश्तों पर सोच रही हूँ अब भी,

दौर का तकाज़ा कहें इसे, या अपनेपन की कमी,

अब भला कौन संभालेगा की कांपती यह ज़मी,

मतलब, मायने सब बदल गए हैं अब रिश्तों के,

निभा रहे हैं ऐसे मानों उधार हो किश्तों के,

सम्मान, मर्यादा, अपनत्व ये सब अब कहने की बातें हैं,

जो मिलकर कभी काटते थे, वह कहां अब राते हैं,

जो दिल कभी साथ रहकर सुख-दुःख बांटते थे,

क्या अच्छा, क्या बुरा सब मिलकर छांटते थे,

आज तो इंचों में तब्दील हो गई है सबकी दुनिया,

परिवार सिमट कर बन गया है कागज़ी दुनिया,

वह दौर था सुहाना, अब तो रिश्ते भी बंट गए हिस्सों में,

दादा-दादी और संयुक्त परिवार रह गए किस्सों में,

बुनियाद ही कमज़ोर पड़ गई अब उन बातों की,

कौन भला फ़िक्र करे अब इन बातों की

यह कविता उत्तराखंड से निशा दानू ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

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