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तोड़ दूंगी ज़ंजीरें (कविता)

लगा लाख ज़ंजीरे तू,

मैं कहाँ इनमें उलझूँगी?

बांध दे उलझनों में मुझे,

देख फिर मैं सुलझूँगी,

ठहरा हुआ पानी समझ लिया तूने,

नदियों सी बह जाऊँगी,

इस सीमा से उस सीमा तक,

लहरों सी उठ जाऊँगी,

तू भेद करेगा नारी-नारी का,

मैं ज्वाला सी दहक जाऊँगी,

तू चल अनुकूल समय के,

शिखर पर मैं ही दिख जाऊँगी,

उस दिन होंगे अल्फ़ाज़ तेरे,

हर शब्द में मैं ही आऊँगी,

तेरी नजर होगी ज़मी पर,

आसमान में मैं झलक जाऊँगी,

उस दिन मैं कहूँगी,

नारी हूँ, व्यापार नहीं,

अहमियत समझ मेरा, बेकार नहीं,

मुझमें बुराई देख ना तू,

मैं हूँ जग में खुशियों का भंडार

यह कविता उत्तराखंड राजकीय इंटर कॉलेज, वज्यूला की छात्रा रेनू ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

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