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काला पानी: ये सीरीज़ देखते हुए मैं कई बार नैतिक दुविधा में फंसा

(आगे स्पॉइलर हो सकते हैं)

एक द्वीप जहां तरह-तरह की जड़ी-बूटी, फल-फूल और हरियाली के बीच आमजन और आदिवासी हंसी-खुशी से जीवन जीते दिखाए जाते हैं। लेकिन पहले अंग्रेज फिर उद्योगपति द्वीप की शांति को भंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। फिर आती है हर तरफ तबाही। बस तबाही ही तबाही।।। ऐसी तबाही, जो द्वीप से निकलकर जमीन तक लोगों को डसने को मचलती दिखाई पड़ती है। क्या ये तबाही मुख्य जमीन तक पहुंचेगी या फिर इसके जहरीले फन को कुचल देगा कोई ? इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द वेब सीरीज के सातों एपिसोड घूमते-फिरते दिखाए गए हैं।

कहानी कभी झकझोरती है कभी रुलाती तो कभी हल्के-फुल्के अंदाज में हँसाती भी है। मगर जगह-जगह आपको एक अलग तरह की नैतिक दुविधा में भी डाल देती है। जिससे पार पाना आपके लिए तब और मुश्किल हो जाता है जब आप किरदारों को पूरी तरह जीने लगते हैं।

मासूम संतोष (विकास कुमार) चाहे-अनचाहे इतने रूप बदलता है कि आप खून के आंसू बहाने से रोक नहीं पाते हैं। सब-कुछ हाथ से निकल जाता है। सारी नैतिकता, मासूमियत और आदर्श टूटते- बिखरते दिखाई पड़ते हैं। लेकिन इसके बावजूद उसके लिए दया बच ही जाती है। बचपन का प्यार फिर से बिछड़ जाता है। इस बार भी वीनू (प्रियांश जोरा) देर से पहुंचता है। तब तक सब खत्म हो जाता है, सीजन-1 भी। बचते हैं तो दर्शक और वीनू। दर्द में डूबते-इतराते दर्शकों को अभी और भी दुखों को झेलना है। सीजन 2 का इंतजार भी। अंत में कद्दू का संतोष से मिलना कुछ पल को सुकून तो देता है। एक ऐसा सुकून जिसमें आपकी आंखे नम हो ही जातीं हैं। मगर दूसरे ही पल सब कुछ तहस- नहस होता नजर आने लगता है। इस तबाही के निशान दूसरे द्वीप और जमीन की तरफ भी बढ़ते दिखाई पड़ते हैं।

अस्पताल में अपनी जान दांव पर लगाने के लिए डॉक्टर के सामने चीरू (सुकांत गोयल) को रोते-बिलखते दिखाया जाता है। चीरू की असल पहचान खुलते ही कहानी नया मोड़ ले लेती है। अब तक विलेन लगने वाला चीरू हीरो बनकर तमाम तरह की सहानुभूति पाने लगता है। पुलिस ऑफिसर केतन कामत (अमीय बाग) का किरदार भी पहले बुरा तो बाद में अच्छा बनकर पुलिस की सच्चाई को रूबरू कराता है। क्या केतन सच मे अच्छा बन गया या फिर कोई चाल थी ? इसका जबाब अगले सीजन में उसके जिंदा बचने पर ही मिलेगा।

शुरू में काम चलाऊ लगने वाला डॉक्टर गागरा का किरदार अंत में मुख्य भूमिका में फिट बैठकर राहत का एहसास कराता है। अदिवासी के संग दलितों की स्थिति दिखाने के कारण गागरा के पिता का अचानक जिक्र शुरू होना थोडा अटपटा लगता है। हालांकि प्रयास अच्छा था मगर कहानी के पीक पर पहुंचकर भटकाव सा महसूस होता है।

कहानी को आगे बढ़ा रहे कुछ सहायक किरदार सीजन के अंत होते-होते अंत हो जाते हैं। कद्दू की माँ, उसका भाई गुच्चू, चीरू की माँ और वीनू की दोस्त ऐसे ही नाम हैं। इनके दमदार अभिनय और कहानी नें मुख्य किरदारों से दर्शक और मजबूती से जुड़ते हैं। हालांकि डॉक्टर गागरा के किरदार को मजबूत करने के चलते डॉक्टर सौदामिनी सिंह (मोना सिंह) का किरदार स्क्रीन पर कम दिखाया है। मगर कम समय में भी मोना ने अपनी छाप छोड़ी है।

अपनी बोली, हाव-भाव और अलग जीवन शैली के कारण अदिवासी समूह साधारण दिखकर भी असाधारण दिखाई पड़ता है। उनकी मानवता और समझदारी ही आमजन से उन्हें जोड़ती है। सरकार और उद्योगपति चाहे-अनचाहे अपने फायदों के लिए उन्हें रौंदते हैं। लेकिन survival of the fittest का नियम इन्हें भी मालूम है।

समीर सक्सेना और अमित गोलानी ने अपने निर्देशन के दम पर मौत सामने होने पर मानव के बदलते व्यवहारों को बखूबी दिखाया है। जंगल और द्वीप की खूबसूरती के बेहतरीन दृश्यों में दमदार अभिनय करते किरदारों को लोगों तक पहुचाने में दोनों लोग सफल हुए हैं।

पानी की मारा-मारी और सांसो की लड़ाई, आँखों के सामने अपनों का मर जाना, अपनों के लिए औरों की जान लेने जैसे सीन ही हैं। हालांकि ये सब अलग नहीं मगर अपनी समस्याओं से घिरे अपने रंग में रंगे Survival drama के कारण आप इसे जरूर देख सकते हैं। बाकी tvf के विश्वपति सरकार की लेखनी पसंद हैं, फिर तो जरूर देखनी चाहिए।

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