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श्रीकृष्ण की कितनी पत्नियाँ थी?

प्राय विधर्मी लोग हिन्दुओ के सामने कई बार श्रीकृष्ण के विवाह के बारे में शंका करते है और पुराणों को मानने वाले हिन्दू भी श्रीकृष्ण को बहुपत्नियों के स्वामी मानते है। तो क्या कृष्ण ने १६१०८ विवाह किये थे ? क्या पुराणों ने श्रीकृष्ण का सही चरित्र चित्रण किया है? इस तरह के कही प्रश्न मन में कही बार आते है। पाठक इस लेख को एक बार अवश्य पढ़े और आत्मचिंतन करे की — “कृष्ण क्या थे ओर क्या बना दिए गए”]

धर्मराज युधिष्ठिर के मन में जब राजसूय यज्ञ करने की इच्छा उत्पन्न हुई तो उन्होंने अपने शुभचिन्तकों तथा मित्रों से इस विषय में परामर्श किया। सबने एकमत होकर अपनी सहमति प्रकट की और युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ का उपयुक्त अधिकारी घोषित किया, परन्तु युधिष्ठिर को तबतक संतोष नहीं हुआ जबतक उन्होंने कृष्ण से एतद्विषयक परामर्श नहीं कर लिया। युधिष्ठिर का आदेश पाकर वे द्वारिका से चल पड़े और इन्द्रप्रस्थ आकर उन्होंने उनसे भेंट की।

युधिष्ठिर बोले, “मैंने राजसूय यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की है, किन्तु केवल इच्छा करने-मात्र से ही यह कार्य पूरा नहीं हो सकता, यह तुम जानते हो। मेरे मित्र-वर्ग ने भी एकमत होकर राजसूर्य के सम्बन्ध में अपनी सम्मति दी है, परन्तु हे कृष्ण, उसकी कर्तव्यता के विषय में तुम्हारी बात ही प्रमाण है, क्योंकि कोई-कोई जन मित्रतावश किसी कार्य का दोष कह नहीं सकते, कोई-कोई स्वार्थवश केवल स्वामी का प्रिय विषय ही कहते हैं, और कोई-कोई अपने लिए जो प्रिय होता है उसी को कर्तव्य मान लेते हैं। परन्तु तुम काम-क्रोध के वश में नहीं हो, अतः लोक में जो हितकारी है, वही सत्य कहो।” सभापर्व, १३।४६-५१

युधिष्ठिर के इस कथन से जाना जाता है कि वह कृष्ण को आप्तपुरुष मानते थे और उनके कथन को यथार्थ, हितकर तथा प्रामाणिक समझते थे। इससे पूर्व उसने मंत्रिपरिषद्, अपने भ्रातृवर्ग और धौम्य, द्वैपायन आदि ऋषियों से राजसूय-विषयक परामर्श कर लिया था, परन्तु उसने अन्तिम रूप में कृष्ण की सम्मति को ही महत्त्व देना उचित समझा। युधिष्ठिर के इस कथन से कृष्ण के चरित्र की महानता पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। वह उन्हें काम और क्रोध से रहित पुरुषोत्तम समझते हैं।

बंकिमचंद्र जी ने इस प्रसंग में ठीक ही लिखा है-

*“नित्य का चाल-चलन देखनेवाले कृष्ण के फुफेरे भाई कृष्ण को क्या समझते थे और हम उन्हें क्या समझते हैं ? वे लोग कृष्ण को कामक्रोध से विवर्जित, सबसे सत्यवादी, सब दोषों से रहित, सर्वलोकोत्तम, सर्वज्ञ और सर्वकृत समझते थे, और हम उन्हें लम्पट, माखन-चोर, कुचक्री, मिथ्यावादी, कापुरुष और सब दोषों की खान समझते हैं। प्राचीन ग्रंथों में जिसे धर्म का आदर्श माना है उसे जाति ने इतना नीचे गिरा दिया, उस जाति का धर्म लोप हो जाय तो आश्चर्य ही क्या ?” कृष्णचरित्र, पृ० २६३*

पाठक ध्यान देवे , यह लेख डॉ० भवानीलाल भारतीय जी की पुस्तक “श्री कृष्ण चरित्र” के दो अध्याय (रुक्मिणी-परिणय व बहुविवाह का आरोप और उसकी असत्यता ) को जोड़ कर बनाया जा रहा है । ताकि आप योगेश्वर कृष्ण की विवाह के बारे उठ रही शंकाओ का समाधान आसानी से प्राप्त कर पाए। आप इस पुस्तक को पढ़ कर योगेश्वर कृष्ण के बारे में ओर भी शंकाओ का समाधान पा सकते है — * ‘अवत्सार’* ]

◼️ रुक्मिणी

पुराण-लेखकों ने श्री कृष्ण पर बहुविवाह के जो मिथ्या आरोप लगाये हैं वे सब कपोल-कल्पित हैं। वस्तुतः रुक्मिणी ही कृष्ण की एकमात्र विवाहिता पत्नी थी । यह विदर्भराज भीष्मक की पुत्री थी । ‘भागवत’ में लिखा है कि राजा भीष्मक भी अपनी पुत्री का विवाह श्री कृष्ण के ही साथ करना चाहते थे, परन्तु उनके पुत्र रुक्मी की इसमें सम्मति नहीं थी। वह चेदिराज दमघोष के पुत्र शिशुपाल के साथ रुक्मिणी का विवाह करना चाहता था।(भागवत १०, अध्याय ५२) अन्त में पुत्र की इच्छा की ही विजय हुई और शिशुपाल के साथ रुक्मिणी के विवाह का निश्चय हो गया ।

रुक्मिणी स्वय कृष्ण के अपूर्व रूप एवं गुणों की चर्चा सुन चुकी थी । उसे यह समाचार सुनकर बड़ा खेद हुआ कि उसका विवाह उसकी इच्छा के प्रतिकूल हो रहा है। उसने एक वृद्ध ब्राह्मण द्वारा अपना प्रणय-संदेश श्री कृष्ण के पास द्वारिका भेजा। रुक्मिणी के सन्देश का अभिप्राय यह था कि अमुक दिन शिशुपाल मेरा परिणय करने के लिए आयगा परन्तु मैंने तो अपने को आपके प्रति समर्पित कर दिया है। आप मेरे उद्धारार्थ आयें, मैं नगर के बाहर निश्चित समय पर आपकी प्रतीक्षा करूंगी।

रुक्मिणी का उपर्युक्त संदेश पाकर कृष्ण बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने सारथी को रथ तैयार करने और विदर्भ की राजधानी कुण्डिनपुर चलने का आदेश दिया। नियत समय पर रथारूढ़ होकर उन्होंने विदर्भ की ओर प्रस्थान किया। उधर शिशुपाल को भी यह समाचार मिल गया कि कृष्ण रुक्मिणी-हरण का प्रयत्न अवश्य करेंगे । इसलिये वह भी विवाह के अवसर पर अपने मित्र राजाओं को सेना-सहित लेकर कुण्डिनपुर पहुँचा । नियत समय पर रुक्मिणी नगर के बाहर उद्यान में भ्रमणार्थ आई और वहाँ पहले से ही उपस्थित कृष्ण ने उसके द्वारा दिये संकेत को समझकर उसे अपने रथ पर बिठाया और द्वारिका के लिए प्रस्थान किया। रुक्मिणी को इस प्रकार आसानी से कृष्ण के द्वारा अपहृत होता देखकर शिशुपाल के क्रोध का पार न रहा। उसने कृष्ण पर आक्रमण किया, किन्तु बलराम अपने यादव-दल के साथ कृष्ण की सहायता हेतु वहाँ पर उपस्थित थे। उन्होंने शिशुपाल की सेना को मार भगाया। जब रुक्मिणी के हरण का समाचार रुक्मी को मिला तो उसने श्री कृष्ण का पीछा किया, किन्तु वह कृष्ण के हाथों परास्त हुआ और कृष्ण ने दण्डस्वरूप अपने शस्त्र से उसके सिर का मुण्डन कर उसे विरूप कर दिया। अन्त में रुक्मिणी और बलराम के कहने से वे अपने साले को छोड़ देने पर राजी हुए। इस प्रकार विरोधी को पराजित कर वे सकुशल द्वारिका पहुँचे। वहाँ वैदिक विधि से उन्होंने रुक्मिणी का पाणिग्रहण किया।(भागवत, दशम स्कन्ध, उत्तराद्ध, अध्याय ५२,५३,५४)

‘मनुस्मृति’ में वर्णित आठ प्रकार के विवाहों में एक प्रकार राक्षसविवाह का भी है।(अध्याय ६।२१) इसके अनुसार कन्या का बलात् हरण कर उससे विवाह किया जाता है। उक्त स्मृति ने राक्षस-विवाह को क्षत्रियों के लिए प्रशस्त बताया है। इस विवाह के अच्छे-बुरे दोनों पहलू हैं । यदि कन्या की इच्छा के प्रतिकूल उसका अपहरण किया जाता है तब तो यह स्पष्ट ही अधर्म-कृत्य है। परन्तु एक परिस्थिति ऐसी आ सकती है जबकि कन्या तो वर को पसन्द करे किन्तु उसके माता-पिता की सम्मति उसे इच्छुक वर के साथ ब्याह देने की नहीं होती। ऐसी स्थिति में प्राचीन काल में कन्या-हरण के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रहता था। अतः, यह कहना कि राक्षस-विवाह निश्चित रूप से अन्यायपूर्ण, अत्याचारयुक्त अथवा बलात्कार का प्रतीक है, अनुचित होगा । यहाँ रुक्मिणी-हरण के प्रसंग में भी जो कुछ घटनायें घटीं, वे रुक्मिणी की इच्छा के अनुकूल ही थीं। कृष्ण के साथ सम्बन्ध होने से रुक्मिणी को प्रसन्नता ही हुई क्योंकि रूप, गुण और योग्यता की दृष्टि से कृष्ण ही उसके अनुकूल पति हो सकते थे। आज चाहे राक्षसविवाह का विधान विद्यमान सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से कितना ही अनुचित अथवा आपत्तिजनक क्यों न दीख पड़े, परन्तु कृष्ण के युग में परिस्थितियाँ भिन्न थीं । उस युग में राक्षस-विवाह को अनुचित नहीं माना जाता था, अतः तत्कालीन आचार-शास्त्र के मापदण्डों से ही हमें रुक्मिणी-हरण की घटना की आलोचना करनी चाहिए। जब हम ‘महाभारत’-युग की सामाजिक मान्यताओं के आधार पर इस घटना की समीक्षा करते हैं तब हमें उसमें कुछ भी अनौचित्य नहीं दीखता।

महाभारतोक्त शिशुपाल-वध प्रकरण में भी इस घटना की चर्चा हुई है। श्री कृष्ण कहते हैं

रुक्मिण्यमस्य मूढस्य प्रार्थनासोन्मुमूर्षतः।

न च तां प्राप्तवान् मूढः शूद्रो वेद श्रुतीमिव ॥ (सभापर्व, ४५॥१५)

अर्थात् ‘इस मूढ़ (शिशुपाल) ने मृत्यु का अभिलाषी बनकर रुक्मिणी के साथ विवाह के लिए प्रार्थना की थी, परन्तु शूद्र के वेद न सुन सकने की भाँति वह उसे प्राप्त नहीं कर सका।’ शिशुपाल ने इस आक्षेप का उत्तर इस प्रकार दिया ।

मत्पूर्वा रुक्मिणीं कृष्ण संसत्सु परिकीर्तयन् ।

विशेषतः पर्थीवेषु वीडां न कुरुषे कथम् ॥

मन्यमानो हि कः सत्सु पुरुषः परिकीर्तयेत् ।

अन्यपूर्वा स्त्रियां जातु त्वदन्यो मधुसूदन ॥ (सभापर्व, ४५।१८-१९)

‘अजी कृष्ण, पहले से ही मेरे लिए निर्दिष्ट रुक्मिणी की बात इस सभा में, विशेषतः राजाओं के समक्ष कहते तुम्हें लज्जा नहीं आई ? अजी मधुसूदन, तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन अपने को पुरुष कहकर अपनी स्त्री को ‘अन्यपूर्वा’ कह सकता है ?’

‘महाभारत के इस प्रसंग को उद्धृत करने के अनन्तर बंकिम ने तो यहाँ तक सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रुक्मिणी का हरण हुआ ही नहीं । शिशुपाल ने उससे विवाह करने की इच्छा अवश्य व्यक्त की थी, किन्तु भीष्मक ने उसे कृष्ण से ब्याह दिया। अपने कथन के प्रमाण में बंकिम इस तथ्य का उल्लेख करते हैं कि कृष्ण के लिए अपशब्दों और कुवाच्यों का प्रयोग करते समय भी शिशुपाल ने कृष्ण पर रुक्मिणी के हरण का आरोप नहीं लगाया, जबकि भीष्म की निंदा करते समय उसने पितामह पर काशिराज की कन्याओं के हरण का आरोप लगाया था।(सभापर्व, ४१।२२) कुछ भी हो, यह तो निर्विवाद है कि रुक्मिणी ही कृष्ण की एकमात्र पत्नी थी; अन्य स्त्रियों के साथ उनका कभी विवाह हुआ ही नहीं, यह आगे प्रमाण-पुरस्सर सिद्ध किया जायगा।

▪️ सन्तान-रुक्मिणी से कृष्ण को प्रद्युम्न-जैसा सौन्दर्य, शील एवं गुणों में पिता के सर्वथा अनुरूप पुत्र हुआ। ऐसी उत्तम सन्तान प्राप्त करने के पूर्व कृष्ण ने स्वपत्नी-सहित १२ वर्ष पर्यन्त प्रखर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया था तथा हिमालय पर्वत पर रहकर तपस्या की थी।(ब्रह्मचर्यं महद्घोरं चीत्व द्वादश वर्षकम् । हिमवत् पाश्र्वमभ्येत्य यो मया तपसाजितः ॥ — सौप्तिक पर्व, १२।३०) जो लोग कृष्ण को लम्पट और दुराचारी कहने से बाज नहीं आते उन्हें इस कथन को आँखें खोलकर पढ़ना चाहिए। कृष्ण-जैसा संयमी, तपस्वी तथा सदाचारी उन्हें संसार के इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलेगा।

◼️ कृष्ण पर बहुविवाह का आरोप और उसकी असत्यता

पुराण-लेखकों को कृष्ण के एकपत्नी-व्रत से संतोष नहीं हुआ। वे कृष्ण को बहुपत्नी-गामी के रूप में चित्रित करना चाहते थे, अतः उन्होंने कृष्ण की आठ पटरानियों की कहानी गढ़ी, और जब उन्हें आठ से भी सन्तोष नहीं हुआ तो एक कदम आगे बढ़कर कहने लगे कि कृरण के १६ सहस्र रानियाँ थीं ।(१) ‘भागवत’ में रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की निम्न सात रानियों के नाम आये हैं-(१) सत्यभाभा, (२) जाम्बवन्ती (‘विष्णुपुराण’ में रोहिणी), (३) कालिन्दी, (४) सत्या, (५) लक्ष्मणा, (६) मित्रवृन्दा, (७) भद्रा।।

इन रानियों से कृष्ण के विवाह होने की कथायें भी पुराण-लेखकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से उद्धृत की हैं, जिनमें से कुछ पर यहाँ विचार किया जायगा। रुक्मिणी को कृष्ण की मुख्य महिषी कहा गया है। उसके अनन्तर सत्यभाभी का नाम आता है । सत्यभाभा और कृष्ण के विवाह की पृष्ठभूमि के रूप में भागवतकार ने एक कथा निम्न प्रकार कल्पित की है — सत्राजित नामक द्वारिकावासी एक यादव को भगवान् सूर्य से एक मणि प्राप्त हुई। कृष्ण ने उसे परामर्श दिया कि वह इस मणि को यादवपति महाराज उग्रसेन को भेंट-रूप में दे दे । सत्राजित ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उक्त मणि को धारण कर जंगल में शिकार खेलने चला गया । वहाँ एक सिंह ने उसे मार डाला और मणि छीन ली। सिंह की इसी बीच त्रेता काल के रीछ जाम्बवान् से मुठभेड़ हो गई और उसने सिंह को मारकर मणि अपने पास रख ली। इधर प्रसेन के मारे जाने और मणि के न मिलने पर लोगों ने कृष्ण पर ही संदेह किया कि हो न हो, इन्होंने ही प्रसेन को मारकर उससे मणि छीन ली है । कृष्ण ने अपने पर लगाये गये चोरी या साहस के कलंक से बचने के लिए जब स्वयं जाकर जंगल में खोज की तो उन्हें सिंह के पाँवों के चिह्न मिले, जिनके आधार पर वे रीछ की गुफा तक पहुँच गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सूर्य-प्रदत्त मणि जाम्बवान् की पुत्री के पास है। मणि को प्राप्त करने के लिए कृष्ण और जाम्बवान् के बीच घोर युद्ध हुआ । अन्त में जाम्बवान् परास्त हो गया और उसने मणि तो कृष्ण को दी ही, साथ में अपनी कन्या का विवाह भी उनके साथ कर दिया। कृष्ण नवपरिणीता पत्नी तथा मणि के साथ स्वनगर में लौटे तथा मणि सत्राजित को लौटा दी । सत्राजित को कृष्ण के प्रति किये गये अपने आचरण से भय और खेद की प्रतीति हुई और उसने कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए स्वकन्या सत्यभामा का विवाह उनके साथ कर दिया तथा यौतक रूप में मणि भी उनके अर्पण कर दी।(२)

– — ध्यान दें — –

१. बहवस्ते भविष्यन्ति पुत्राः शत्रुसूदन ।

स्त्रीणां षोडश साहस्र भत्रिष्यन्ति शताधिक ॥ (देवीभागवत, ४॥२५॥५७)

ददर्श कन्यास्तत्रस्था सहस्राणां च षोडशः ।

समेक्षणे च तासां च पाणि जग्राह माधवः ।।

ताभिः सार्धं से रेमे क्रमेण च शुभेक्षणे ।।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, खण्ड ४, अ० ११२)

२. भागवत, दशम स्कन्ध, उ०, अध्याय ५६

इस मणि को लेकर आगे क्या-क्या काण्ड घटित हुए, उन्हें न लिखकर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि ये सब घटनायें भागवतकार की ही कल्पनायें हैं । ‘महाभारत में इन कथाओं का कोई संकेत तक नहीं है। बंकिम ने इसपर टिप्पणी करते हुए लिखा है — “इस स्यमन्तक मणि की कथा में भी कृष्ण की न्यायपरता, सत्यप्रतिज्ञता, और कार्यदक्षता ही अच्छी तरह से प्रकट होती है, पर यह सत्यमूलक नहीं जान पड़ती।’’ (कृष्ण-चरित्र, प० २२९) राम का समकालीन जाम्बवान कृष्ण के समय में भी विद्यमान था, इसे कोई भी विचारशील व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा। यदि दुर्जन-तोष-न्याय से यह मान भी लिया जाय कि जाम्बवान् नामक रीछ कृष्ण के समय में भी था, तो निश्चय ही उसकी पुत्री जाम्बवन्ती भी रीछनी ही होगी, मानवी नहीं । फिर रीछनी से कृष्ण का विवाह कैसे हुआ ? अतः जाम्बवन्ती से कृष्ण का विवाह और उसी के कारण आगे चलकर सत्यभामा के साथ हुआ कृष्ण का विवाह भी पुराणकार की कल्पना ही है ।

कृष्ण के अन्य विवाहों के वर्णन के लिए भागवतकार ने एक पृथक अध्याय ही लिखा है।(भागवत, दशम स्कन्ध, उ०, अध्याय ५८) इन कथाओं की विस्तृत आलोचना की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे भी सत्यभामा-जाम्बवन्ती की कथाओं जैसी ही हैं । स्थालीपुलाक-न्याय से उनकी असत्यता का भी ज्ञान हो सकता है।

कृष्ण ने प्राग्ज्योतिषपुर के राजा नरकासुर (अपर नाम भौमासुर) को मारकर जिन १६ हज़ार कन्याओं से विवाह किया, उसका वर्णन ‘भागवत’ के एक अन्य अध्याय में है।(अध्याय ५९) नरकासुर के अत्याचारों की शिकायत लेकर इन्द्र स्वयं कृष्ण की सेवा में द्वारिका आया। कृष्ण ने उसे वचन दिया कि वे स्वयं प्राग्ज्योतिषपुर जायेंगे और नरक का वध करेंगे। इस प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए कृष्ण सत्यभामा सहित वहाँ पहुँचे । सर्वप्रथम उनका युद्ध नरक के ‘मुर’ नामक सेनापति से हुआ, जिसे मार डालने के कारण वे ‘मुरारि’ नाम से विख्यात हुए। तत्पश्चात् नरकासुर को मारकर उन्होंने उसके अन्तःपुर में बंदी १६ हज़ार राजकुमारियों को मुक्त किया तथा उन्हें पत्नी-रूप में ग्रहण किया ।(३)

बंकिम के अनुसार यह सारी घटना अलौकिक और मिथ्या है। उनकी युक्ति यह है कि कृष्ण का समकालीन प्राग्ज्योतिषपुर का राजा नरकासुर नहीं, बल्कि भगदत्त था जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में अर्जुन के हाथों मारा गया। ‘महाभारत’ से इसकी पुष्टि भी होती है। कृष्ण का १६००० रानियों से विवाह तो सर्वथा चमत्कारपूर्ण मिथ्या कथा है।(४)

– — ध्यान दें — –

३. विष्णुपुराण, ५॥३१; नरकासुर विष्णु का पृथिवी में उत्पन्न किया पुत्र था। उसकी १६००० स्त्रियों से विष्णु के अवतार कृष्ण का विवाह करना स्व पुत्र-वधुओं से विवाह के तुल्य ही है। -लेखक

४. कृष्ण-चरित्र, पृ० २२१

पुराणों के नवीन व्याख्याकार कभी-कभी इन कपोल-कल्पित कथाओं का स्व-ऊहा के बल पर विचित्र समाधान तलाश करने का यत्न करते हैं। उदाहरणार्थ स्व० पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने १६००० कन्याओं से विवाह करने के उल्लेख को एक विचित्र आयाम दिया है।(आर्यमित्र, २६ जून, १९५२ के अंक में प्रकाशित ‘कृष्ण का चरित्र’) उनके अनुसार, नरकासुर ने १६ हजार राजकन्याओं का विभिन्न राजकुलों से अपहरण किया था तथा अपनी वासना-पूति के लिए उन्हें अपने अन्तःपुर में लाकर रखा था । कृष्ण ने नरकासुर को मारकर उन राजकन्याओं को उस व्यभिचार-लम्पट के कारागार से मुक्त किया तथा एक दुराचारी व्यक्ति के अधिकार में रही इन नारियों को स्व-अन्तःपुर में स्थान देकर अबलाओं के उद्धार तथा संरक्षण का एक नवीन आदर्श उपस्थित किया। हम पूछ सकते हैं कि वह कौन-सा आदर्श था, जिसे कृष्ण ने १६००० कन्याओं को पत्नी-रूप में स्वीकार कर उपस्थित किया ? वादी कह सकता है कि कृष्ण ने अपने उस कृत्य के द्वारा बलात् अपहृत स्त्रियों को समाज में पुनः कैसे स्वीकार किया जा सकता है, इस प्रश्न का उत्तर स्व-उदाहरण देकर प्रस्तुत किया है। जिस समय पं० सातवलेकर जी ने कृष्ण के इस बहु-पत्नीवाद के औचित्य को सिद्ध करने के लिए कलम उठाई थी, उस समय देश का विभाजन हुआ ही था और पाकिस्तान में कुछ समय तक मुसलमानों के अधिकार में रहने के पश्चात् पुनः भारत में लाई गई उन हिन्दू स्त्रियों के भविष्य को लेकर विभिन्न अटकलें लगाई जा रही थीं । जो स्त्रियाँ स्वल्पकाल के लिए भी विधर्मियों के घर में रह चुकी थीं उन्हें कट्टरपंथी हिन्दू स्वपरिवार में ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं थे। ऐसी महिलाओं का भविष्य अंधकारपूर्ण ही था । संकीर्ण समाज उन्हें अपना अंग बनाने के लिए तत्पर नहीं था। ऐसी स्थिति में सातवलेकर जी के समक्ष कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित नरकासुर द्वारा अपहृत १६ हज़ार राजकन्याओं के उद्धार का कथानक इस समस्या का समाधान करता हुआ-सा प्रतीत हुआ। वे मानो कृष्ण का ही दृष्टान्त देकर कहते हैं कि है कोई माई का लाल, जो सामने आये और विधर्मियों के घरों में रहीं तथा बलात् दूषित की गई इन नारियों से कृष्ण के समान ही विवाह कर ले ? अपहृताओं की समस्या का यह विचित्र समाधान है !

थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि नरकासुर के अत्याचारों से पीड़ित एवं सन्तप्त इन दुःखी नारियों को पुनः ग्रहण करनेवाला उस समय कोई नहीं था, परन्तु कृष्ण के इस तथाकथित कृत्य के औचित्य को भी कैसे सिद्ध किया जा सकता है कि अबलाओं को शरण देने और सुरक्षा प्रदान करने का एकमात्र तरीका यही है कि उन्हें अपनी पत्नी बना लिया जाय ? आर्य-जाति में एकपत्नी-व्रत को सदा ही आदर्श माना गया है । बहुपत्नी-प्रथा हमारी संस्कृति में हेय एवं त्याज्य समझी गई है। अतः कृष्ण का १६००० राजकुमारियों से विवाह कोई सुसंस्कृत आदर्श नहीं है। सातवलेकर जी की दृष्टि से ही यदि अपहृता कन्याओं की समस्या की गुरुता को सोचे तो उसका एक व्यावहारिक समाधान यह भी हो सकता है कि अत्याचारियों की कार से मुक्त की गई ऐसी नारियों को सामूहिक रूप से किसी आश्रम में रक्खा जा सकता है, परन्तु यह तो सर्वथा अव्यावहारिक तथा आचार-शास्त्र की सर्व-स्वीकृत मान्यताओं के विपरीत ही होता कि कोई व्यक्ति पाकिस्तान से लौटाकर लाई गई ३० हजार स्त्रियों को अपनी भोग्या बनाकर अपने घर में रखने की बात करे। हम नहीं समझते कि पुराणों की मिथ्या कथाओं को औचित्य-सिद्धि के लिए इस प्रकार की मनमानी कल्पनायें क्यों की जाती हैं। ऐसी व्याख्याओं से न तो व्याख्याकारों का ही गौरव बढ़ता है और न उन ग्रंथों की ही विश्वसनीयता प्रकट होती है, जिनमें ऐसी कथायें लिखी गई हैं।

इसी कथा से सम्बन्धित पारिजात-हरण की कथा है, जिसका उल्लेख ‘भागवत’ तथा ‘विष्णुपुराण’ में है ।(भागवत, दशम स्कन्ध, उ०, अध्याय ५९; विष्णुपुराण, ५।३०) नरकासुर को मारकर जब कृष्ण सत्यभामा के साथ द्वारिका लौट रहे थे तो स्वर्ग के नन्दनकानन में खिले पारिजात वृक्ष को देखकर सत्यभामा का मन चंचल हो उठा । वह उसे पाने के लिए लालायित हुई। कृष्ण ने भी अपनी प्रियतमा की इच्छा पूरी करने के लिए उसे उखाड़ लिया । कृष्ण की इस धृष्टता को देखकर नंदन-कानन के स्वामी इन्द्र को बड़ा क्रोध आया और वह देवताओं की स्वत्व-रक्षा के निमित्त कृष्ण से भिड़ गया। खैर, युद्ध का तो जो अन्त होना था, वही हुआ। इन्द्र पराजित हुए तथा उन्होंने विवश होकर पारिजात वृक्ष कृष्ण को दे दिया। अब इस वृक्ष से द्वारिका की शोभा बढ़ेगी, यह जानकर कृष्ण उसे अपने नगर में ले आये । कथा में अलौकिक तत्त्वों की ही प्रधानता है, अतः वह हमारे विवेचन-क्षेत्र में नहीं आती।

कृष्ण पर लगाये जानेवाले बहु-विवाहों के आरोपों की समालोचना बंकिमचंद्र ने एक पृथक् अध्याय लिखकर अत्यन्त प्रामाणिक एवं युक्तिसंगत रूप में की है।(कृष्ण-चरित्र, पृ० २३०-२४५ ) ‘विष्णुपुराण’, ‘हरिवंश’, ‘महाभारत’ आदि ग्रंथों में एतद्-विषयक जो-जो उल्लेख मिलते हैं उन सबको एकत्र किया है तथा बताया है कि ये वर्णन परस्पर-विरुद्ध होने के कारण अनैतिहासिक एवं मिथ्या हैं । विभिन्न पुराणों में जिन आठ पट्ट-महिषियों का नामोल्लेख हुआ है उनमें भी कोई संगति तथा समानता नहीं है। कहीं कोई नाम बढ़ गया है, कहीं कोई छूट गया है। नरकासुर के अन्तःपुर से छुड़ाई गई १६००० रानियों को भी बंकिम मनगढन्त मानते हैं।(कृष्ण-चरित्र, पृ० २३०) ‘विष्णुपुराण’ (अंश ४, अध्याय १५, श्लोक १६) के अनुसार कृष्ण की सब स्त्रियों से १,८०,००० पुत्र हुए।(५) कृष्ण की आयु इसी पुराण में १२५ वर्ष बताई गई है। बंकिम ने गणित करके दिखाया है कि इस हिसाब से कृष्ण के साल-भर में १४४० तथा एक दिन में ४ लड़के जन्म लेते थे। यहाँ यही समझना होगा कि कृष्ण की इच्छा से ही उनकी पत्नियाँ पुत्र प्रसव करती थीं।(कृष्ण-चरित्र, पृ० २३१ )

– — ध्यान दें — –

५. ब्रह्मपुराण के अनुसार कृष्ण के इन पुत्रों की संस्था ८८,८०० थी। पुराणों के परस्पर-विरोध का एक उदाहरण यह भी है।-लेखक

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जाम्बवन्ती, सत्यभामा, लक्ष्मणा आदि रानियों की कथाओं को मिथ्या सिद्ध करने के लिए बंकिम बाबू ने अत्यन्त परिश्रमपूर्वक अनेक नवीन तक की उद्भावना की है। इस समग्र विवेचन के पश्चात् उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । वे लिखते हैं “महाभारत के मौलिक अंश से तो यही प्रमाणित होता है कि रुक्मिणी के सिवा कृष्ण के और कोई स्त्री नहीं थी। रुक्मिणी की ही सन्तान राजगद्दी पर बैठी, और किसी के वंश का पता नहीं। इन कारणों से कृष्ण के एक से अधिक स्त्री होने में पूरा संदेह है।”(कृष्ण-चरित्, पृ० २४३)

इस प्रकार कृष्ण के बहुविवाहों का प्रमाण-पुरस्सर खण्डन करने पर भी बंकिम की स्थिति संदेहास्पद है क्योंकि वे एक-पत्नीव्रत के आदर्श को ईसाई आदर्श मानते हैं; परन्तु बहुविवाह के समर्थन में भी कोई दलील न दे सकना इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि वे अपने कथन से पूर्णतया संतुष्ट हैं। हाँ, इस सम्बन्ध में उनकी टिप्पणियाँ महत्त्वपूर्ण हैं, जिन्हें उद्धत करके ही हम इस प्रसंग को समाप्त करेंगे।

“कृष्ण ने एक से अधिक विवाह किये, इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिला । यदि किये ही हों तो क्यों किये, इसका भी विश्वास-योग्य वृत्तांत कहीं नहीं मिला । स्यमन्तक मणि के साथ जैसी स्त्रियाँ उन्हें मिलीं वह नानी की कहानी के उपयुक्त है। और नरकासुर की सोलह हजार रानियाँ तो नानी की कहानियों की भी नानी है। ये कहानियाँ सुनकर हम प्रसन्न हो सकते हैं, पर विश्वास नहीं कर सकते।’’(कृष्ण-चरित्र, पृ० २४५)

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