संयुक्त राज्य अमरीका के 34वें राष्ट्रपति ड्वाइट डी. आइजनहावर का मानना था कि राजनीति हर नागरिक का एक पार्ट-टाइम पेशा होना चाहिए, जिसमें बिना कोई फीस लिए अन्य व्यक्तियों के अधिकारों और विशेषाधिकारों की सुरक्षा करना और राष्ट्रीय धरोहरों को बचाने की सेवा शामिल होना चाहिए। निश्चित रूप से यह एक असाधारण विचार था, जिस पर 50 के दशक के बाद काम शुरू हुआ होता तो किसी देश को चलाने के लिए सिर्फ चुनावों और राजनेताओं पर निर्भरता नगण्य हो जाती। लेकिन यहां प्रत्येक नागरिक की नहीं सिर्फ युवाओं की भागीदारी को ही मद्देनजर रखें तो भी तस्वीर कुछ और हो सकती है। खासकर विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाले देश में इसका ख़ास असर और बदलाव देखा जा सकता है, जैसा कि भारत के महापुरुषों, स्वतंत्रता सेनानियों या दिग्गज नेताओं को भी अपने-अपने समय पर सार्वजानिक मंचों से राजनीति में युवा हिस्सेदारी बढ़ाने का जिक्र करते सुना देखा गया है। स्वामी विवेकानंद से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू और अब्दुल कलाम तक देश की बढ़ोतरी और तरक्की में युवा शक्ति की महत्ता समझा चुकें हैं। लेकिन मौजूदा परिस्थिति के लिहाज से देखें तो देश चलाने वाले नेताओं की औसत आयु, पिछले दो तीन दशक से 50 के ऊपर ही बनी हुई है। यानि एक बात तो साफ है कि भारत तो एक युवा देश है लेकिन यहां के नेता युवा नहीं हैं तो फिर भारतीय राजनीति में युवा भागीदारी बढ़ाने और बूढ़ी होती संसद को युवा नेतृत्व से भेंट कराने के लिए हम क्या कर रहे हैं?
छात्र राजनीति का महत्व और मौजूदा दौर
आजादी के बाद से ही भारत में यूनिवर्सिटी स्तर पर होने वाली छात्र राजनीति अपना एक अलग महत्व रखती आई है। जेएनयू, डीयू या एएमयू से लेकर इलाहाबाद, लखनऊ और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तक, छात्र राजनीति ने न सिर्फ छात्रों की समस्याओं को पुरजोर तरीके से उठाया है बल्कि देश की राजनीति में कई महत्वपूर्ण नाम भी शामिल किए हैं। हालांकि मदन मोहन मालवीय अपने एक लेख में ये लिखते भी दिखते हैं कि छात्रों को तब तक सक्रिय राजनीति का हिस्सा नहीं बनना चाहिए, जब तक राष्ट्र पर कोई बड़ा संकट न आ गया हो। इसके पीछे वह तर्क देते हैं कि छात्रों को अपना सारा फोकस पढ़ाई पर ही रखना चाहिए, ताकि वह ऐसे नागरिक बन सकें जो बुद्धिजीवी, प्रबुद्ध या विचारक के तौर पर देश की उन्नति में बेहतर योगदान दे सकें। हालांकि दूरदृष्टि रखने वाले मालवीय के विचारों को छात्र राजनीति में किनारे पर ही रखा गया, और लोकनायक जेपी के आंदोलनों ने लालू यादव, नितीश कुमार, शरद यादव, अरुण जेटली या रवि शंकर प्रसाद जैसे छात्र नेताओं की एक पूरी पीढ़ी को जन्म दे दिया।
मॉडर्न राजनीति में क्या है आदर्श
लेकिन मॉडर्न राजनीति में आप किन नामों को याद करेंगे? या याद रखने के लिए आपके पास कितने नाम हैं? मौजूदा दौर के कुछ छात्र नेता जैसे कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल या जिग्नेश मेवाणी को छोड़कर शायद ही कोई नाम हैं जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अलग छाप छोड़ी हो। इसके पीछे दो तरह के कारण हो सकते हैं। एक तो खुद सीनियर लीडर्स की ही मनसा, जो नहीं चाहती कि भारतीय राजनीति में छात्र नेताओं की सक्रीय हिस्सेदारी हो। इसका एक इशारा हाल के सालों में छात्र राजनेताओं पर हुए अंधाधुंध मुकदमों से समझा जा सकता है।दूसरा राजनीति को पढ़े लिखे लोगों के पेशे से इतर भौकाल, झोली भर कमाई और रंगदारी या दबंगई के नजरिए तक सीमित रख दिया गया है। हालांकि इस सामाजिक नजरिए के पीछे भी कुछ जिवंत उदाहरण ही हैं, जो एक शिक्षित नौजवान तबके को राजनीति के क्षेत्र से अलग रखने का काम करते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर युवाओं की भागीदारी
स्वामी विवेकानंद जी कहते थे कि हमारे युवाओं को आगे आकर राष्ट्र का भाग्यविधाता बनना चाहिए। इसलिए ये सीनियर और जिम्मेदार नेताओं के साथ-साथ देश के विवेकपूर्ण नागरिकों की भी जिम्मेदारी है कि लोकतंत्र के इस एक महत्वपूर्ण स्तम्भ को युवा शक्ति से अधिक मजबूती प्रदान की जाए। लेकिन कैसे? क्योंकि जब राजनीति को दलदल गटर और कीचड़ जैसे नामों से सम्बोधित किया जाता हो, तब राष्ट्रीय युवा संसद जैसे महोत्सव भी बेनामी ही साबित होते दिखते हैं। ऐसे में सरकार के वर्तमान प्रयासों की सराहना करते हुए अन्य प्रयासों को फलक पर लाने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत महसूस होती है। अन्य प्रयासों में मुख्य रूप से स्कूली स्तर से लेकर यूनिवर्सिटी स्तर तक चुनावी प्रक्रिया को अनिवार्य करना शामिल किया जा सकता है। या यूँ कहें करना ही चाहिए। प्राइमरी, मिडिल और सीनियर सेक्शन से लेकर विश्वविद्यालय स्तर पर चुनावी प्रक्रिया को कानूनी तौर और प्रॉपर सिस्टम के साथ लागू करने के आधार पर ही हम नए, युवा व प्रतिभावान राजनेताओं को देश के सियासी सरजमीं पर प्रखर बदलाव लाते देख सकते हैं।
हर सेक्टर के युवाएं राजनीति में हो शामिल
ऐसा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सिर्फ यही जरिया है जिसके बूते हम इंजीनियरिंग, डॉक्टर, सिविल सर्वेंट या अन्य किसी सेक्टर के अलावा राजनीति को भी छात्रों के करियर ऑप्शन के रूप में जोड़ सकते हैं। शायद यही एक तरीका है जिसके आधार पर छात्रों और युवाओं को राजनीति में भविष्य और समाज के साथ साथ निजी व्यक्तित्व के निखार को भी बढ़ावा दे सकते हैं। हम सीधे कॉलेज पास आउट करने वाले युवाओं से उम्मीद नहीं कर सकते कि वह राजनीति में सक्रियता से भाग लें, क्योंकि देश का कल्चर ही कॉलेज से निकलने के बाद जॉब की तलाश का रहा है और एक बार जॉब व पैसे की आवक में लग गई युवा पीढ़ी को राजनीति पिछड़ी हुई नजर आने लगती है। वहीं यदि बचपन से ही एक छात्र के दिमाग में राजनीति की अच्छी बुरी बातें बिठा दी जाएँ, और 5वीं 6वीं क्लास से 12 वीं तक यदि वो 5 7 इलेक्शन लड़ लेता है तो उसके दिमाग में राजनीति के प्रति लगाव बढ़नी के बहुत सम्भावना है। कुलमिलाकर भारत में यदि युवा राजनेताओं की संख्या बढ़ानी है, और उन्हें राजनीतिक पद्धिति के साथ जोड़ना है तो स्कूल से लेकर कॉलेज यूनिवर्सिटी तक इलेक्शन प्रक्रिया को अनिवार्य करना ही होगा।