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आइसलैंड जैसी महिला हड़ताल भारत में बार-बार होनी चाहिए

अगर देश की सभी महिलाएं 1 दिन की छुट्टी पर चली जाएं तो? ना ना, छुट्टी का मतलब सिर्फ नौकरी से छुट्टी नहीं। हर काम से छुट्टी। घरेलु कामकाज (unpaid) से लेकर नौकरी (paid) सब बंद। सोचिये वो 24 घंटे कैसे हो अगर महिलाएं काम करना बंद कर दें।

आइसलैंड देश में 24 अक्टूबर 2023 को महिलाओं और नॉन बाइनरी नागरिकों ने यही किया। ये विरोध का ज़रिया था। लैंगिक हिंसा और गैर बराबरी के खिलाफ आवाज़ उठाने का ज़रिया।

पूरे देश की महिलायें संगठित होकर स्ट्राइक पर रहीं ताकि महिलाओं के श्रम के योगदान की ताकत दिखाई जा सके। महिलाओं के मुद्दों की गूँज सुनाई जा सके। महिलाओं पर होने वाली हिंसा, नौकरी में असमान वेतन और भेदभाव जैसे मुद्दों को की तरफ ध्यान केंद्रित किया जा सके।

महिलाओं के हड़ताल की शुरुआत कैसे हुई?

1975 में पहली बार आइसलैंड में इस हड़ताल की शुरुआत हुई। वैसे तो तब से लेकर 2023 तक 7 बार ये हड़ताल हो चुकी है। लेकिन साल 2023 में दूसरी बार इतने बड़े स्तर पर ये हड़ताल आयोजित हुई और सुर्ख़ियों में आई। 1975 में भी मुद्दे वही थे – पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन देने के विरुद्ध विद्रोह करना और देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान की कीमत का प्रदर्शन। 1975 की ऐतिहासिक हड़ताल के बाद आइसलैंड की संसद ने महिलाओं के लिए समान वेतन का कानून पारित किया। जिसकी वजह से महिला – पुरुष वेतन का अंतर कुछ कम हुआ, पर पूरी तरह खत्म नहीं हुआ।

2023 में महिलाओं की हड़ताल का स्लोगन था “Kallarðu þetta jafnrétti?” जिसका मतलब है “आप इसे बराबरी कहते हैं?”

ये सवाल उठाया गया कि अगर आज भी आइसलैंड में महिलाएं बराबर काम के लिए पुरुषों से 21% कम वेतन पा रही है और 40% से ज्यादा महिलाएं अपनी ज़िन्दगी में लैंगिक हिंसा का सामना कर चुकी है तो इसे हम लैंगिक बराबरी कैसे कह सकते है?

दूसरे देशों की तुलना में आइसलैंड की स्थिति और छवि

ध्यान दीजियेगा कि वर्ल्ड इकनोमिक फोरम (WEF) की जेंडर रिपोर्ट में आइसलैंड पिछले 14 साल से पहले स्थान पर रहा है। अतः विश्व में आइसलैंड की छवि महिलाओं के मामले में एक प्रगतिशील और अव्वल देश के रूप में की जाती है। हालाँकि इसका निष्कर्ष ये नहीं निकाला जा सकता कि इस देश में लैंगिक बराबरी स्थापित हो चुकी है।

WEF की जेंडर रिपोर्ट कई मापकों का विश्लेषण करके निकाली जाती है। आर्थिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य एवं राजनितिक सशक्तिकरण के मापदंडो को जाँच कर ये समझा जाता है कि कौनसे देश ने कितनी लैंगिक बराबरी हासिल की है। 0 (गैर बराबरी) से 1 (बराबरी) अंक के बीच का स्कोर बताता है कि किस देश में हालात क्या हैं। हालाँकि आइसलैंड प्रथम स्थान पर है पर इसका स्कोर 0.91 है यानि कि आइसलैंड को भी लैंगिक बराबरी हासिल करने में कुछ और कदम आगे बढ़ना होगा।

समान काम का कम वेतन और घरेलू कार्यों की अनदेखी

महिलाओं ने शिक्षा और नौकरी की आज़ादी तो पा ली पर इन क्षेत्रों में पितृसत्ता ने अपना अलग-अलग रूप ले लिया। उनमें से एक रूप है एक जैसे काम का एक जैसा पैसा ना मिलना। चाहे कोई भी फील्ड हो, समान पद पर होकर भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर तनख़्वाह नहीं दी जाती है। जिसे हम जेंडर पे गैप (Gender Pay Gap) कहते हैं। और घरेलू काम की तो आर्थिक नज़रिये से गिनती ही नहीं जोकि पितृसत्ता में अक्सर महिलाओं पर थोप दिया जाता है, जैसे कि पुरुषों को इस से कोई लेना देना ही ना हो।

कुल मिलाकर जहाँ वेतन है वहां कम पैसे मिल रहे है और जहाँ बिना वेतन का काम हैं वो सिर्फ महिलाओं के ज़िम्मे। ये महिलाओं के साथ आर्थिक ज्यादती है कि नहीं?

देश के नेताओं का हड़ताल को समर्थन

देश के राष्ट्रपति ने हड़ताल के समर्थन में कहा – “1975 के प्रसिद्ध #womensdayoff के बाद आज फिर 7वी बार आइसलैंड की महिलाएं स्ट्राइक पर है। लैंगिक बराबरी के लिए उनकी ये सक्रियता आइसलैंड के समाज को बेहतर बनाती आई है और आज भी बना रही है।”

वहीं प्रधानमंत्री Katrín Jakobsdóttir ने लिखा – “लैंगिक बराबरी तक पहुंचने के लिए हमें स्त्री-पुरुष के वेतन के अंतर को खत्म करना होगा और महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना होगा। हमें ऐसा समाज चाहिए जहां ये संभव हो। माता पिता के लिए अवकाश, बच्चों के लिए डे केयर और सांस्कृतिक बदलाव से हम ये पा सकते हैं।“

सबसे अहम बात महिला हड़ताल की कार्यकारिणी कमिटी की सदस्य Drífa Snædal ने कही – “महिलाओं के खिलाफ हिंसा और लेबर मार्किट में महिलाओं के काम की कम कीमत, दोनों एक सिक्के के दो पहलु हैं और दोनों एक दूसरे पर असर डालते हैं।“

क्या भारत में #WomensDayOff जैसी हड़ताल संभव है?

WEF जेंडर रिपोर्ट 2023 के हिसाब से भारत लैंगिक बराबरी में 127वें स्थान पर है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा और भेदभाव में हमारी स्थिति काफी खराब है। इस हिसाब से तो भारत में हर साल और बार बार #womensdayoff जैसे आंदोलनों की ज़रूरत है। पर इस तरह से स्ट्राइक को सफल बनाने में भारत की महिलाओं के सामने कई चुनौतियाँ हैं। अधिकारों के प्रति जागरूकता, जन चेतना, मज़बूत संगठन, राजनीतिक बाधाओं आदि कारकों को पार करके ऐसी बड़ी स्ट्राइक की जा सकती है। महिलाओं पर होने वाली हिंसा की समझ अभी बस बलात्कार या घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों तक सीमित है। कामकाजी दुनिया में स्त्रियों को मिलने वाला आसमान वेतन और घरेलू काम को एक बिना वेतन की मजदूरी के रूप में देखने की समझ अभी समाज में पैदा नहीं हो पाई है।

आइसलैंड एक छोटा देश है जिसकी आबादी करीब 375000 है। विकास और लैंगिक बराबरी के कई मापदंडो में काफी अच्छी स्थिति में है। महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता और चेतना अच्छी है। ऐसे में महिलाओं का भारी मात्रा में भाग लेना और स्ट्राइक का सफल होना लाज़मी है।

खूबसूरत बात है कि आइसलैंड की वर्तमान प्रधानमंत्री एक महिला है जिन्होंने #womensdayoff का समर्थन करते हुए इसमें भाग लिया और 24 घंटे के लिए अपना काम बंद किया।

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