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हिन्दी कविता: तुम जब भी मिलना!

Love in life

Love in life

इस जहां में जब भी मिलना तुम, बस अपने आप को लाना तुम,

न लाना उन लम्हों को साथ जो मेरे बिना बीते हैं ये पाँच साल, 

जो शाम मेरे बिना ही चाय के साथ गुजरें हैं और शायद हमारे बातों के 

हाँ शायद मेरे ख़्वाब के बिना ही या किसी और के सपनों मे होकर चूर 

हो सकता है अब मैं नहीं कोई और हो संगिनी तुम्हारी,

जो मुझे अलग कर तुम हो गए हो उनके आँखों के नूर ,

वो किताब भी लाना जो कहानी तुम पढ़ के सुनाते थे मुझे,

अपने हाथों में मेरी हाथों को थामे चलते थे एकदम दुनिया से दूर!

पर मैं नाराज़ नहीं तुमसे, तुम जब भी मिलना,

ये पाँच साल कैसे गुजारे मैंने ये देखना जरूर!

अपनेआप को लाना जरूर! बस अपनेआप को लाना जरूर!

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