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“शुक्रगुज़ार हूँ कि बिहार ने मुझे स्त्रीलिंग में बंधे रहने के लिए बाध्य नहीं किया”

LGBTQ people and Hindi Language

LGBTQ people and Hindi Language

भाषाओं की अपनी कहानियाँ हैं। अपने दस्तूर  हैं। भाषाओं की ख़ोज बातों के लिए, मसलों को सतह तक लाने के लिए, अपने भावों को व्यक्त करने, दुःख बताने, एक-दूसरे से जुड़ने जैसी कई चीजों के लिए हुई।  जब कुछ भी लिखे जाने को कोई रास्ता नहीं था तब बन रही थी ज़बान। हम जब भाषा को केंद्र में रखते हैं, तो सबसे पहली चीज जो मन में आती है वह है पुकारना, फुसफुसाना, पुचकारना, प्यार करना, नाम देना और  ऐसी कई परतों के बाद भाषा पहुँचती है दस्तावेजीकरण तक। लेकिन अमूमन भाषा लिंग, जाति, धर्म, गाँव और शहर और  देश के आधार पर बंट जाती है। हिन्दी को मद्देनज़र रखें, तो यह बात कहनी पड़ेगी जो आम तौर पर सभी भाषाओं पर लागू होती है। हिंदी का उपयोग व्यक्ति की भाषा से लेकर सोच और विचार की अभिव्यक्ति तक कई मामूली और महत्वपूर्ण चीजों के लिए होती है।  

हिन्दी भाषा का दो जेंडर में बंटवारा

लेकिन भाषा के व्याकरण से पता चलता है कि व्याकरण स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में  बंटा हुआ है। भाषाओं के लिंगों में  बंटने की एक  वजह  समाज का स्त्री – पुरुष में बंटा होना है। वहीं दूसरी वजह जेंडर  आधारित समाज के बंटवारे में  सिर्फ स्त्री-पुरुष के पैमाने को मान्यता देना  और तीसरी वजह खुद समाज को बांटने का पैमाना है।  इसमें समलैंगिक समुदाय के लोग मौजूद भाषा की संरचना  में, जेंडर और यौनिकता के स्थापित स्पेक्ट्रम  में स्त्री-पुरुष  संबोधन से खुद की पहचान हासिल नहीं कर पातें हैं। वह खुद को स्त्री-पुरुष में नहीं  बाँट पाते। अगर वह खुद को स्त्री और पुरुष में बाँध  भी ले, तो भी समाज उन्हें अपनाता नहीं है। जैसेकि ट्रांसजेंडर महिला से आप महिलाओं वाले संबोधन से बात नहीं करते हैं। इसकी वजह है उनकी पुरुषों जैसी शारीरिक संरचना। वह अगर खुद के लिए स्त्री संबोधनों  का उपयोग करें, तो यह समाज उनका मजाक बनाता है। उन्हें अपमानित करता है, नामर्द और जनाना जैसे शब्दों के प्रयोग से उनके भावनाओं को ठेस पहुंचाता है। लोग महज भाषा के इन शब्दों से या सेट के प्रयोग से उन्हें असुरक्षित महसूस करवाते हैं। शैक्षणिक संस्थानों से ले कर दफ्तरों तक, हम इसी स्त्री-पुरुष आधारित भाषा में पढ़ने, लिखने और काम करने को बाध्य हैं।

समावेशी न होना क्रिएटिवटी में बाधा

हमें ये बाध्यता क्रिएटिव होने से रोकता है। हिंदी पट्टी के छोटे शहरों में जेंडर आधारित बातें सामने न आने की एक बड़ी वजह रोजगार की कमी है। भाषा बाजार की संपत्ति है। जिस भाषा में रोज़गार होगा उसी भाषा में परिस्थितियों की बातें की जाएगी और बाजार ज्यादातर  स्त्री पुरुष आधारित है। बड़ी कम्पनियां – कॉर्पोरेट , निजी शैक्षनिक  संस्थान , बड़े अस्पताल , कॉलेज  आदि में ज्यदातर कार्यक्रम , प्रोजेक्ट और आम संवाद अंग्रेजी में लिखी-पढ़ी जाती है। हम देख सकते हैं कि क्वियर समुदाय से जुड़े संवाद भारत के मेट्रो सिटी में कुछ स्तरों  तक ही रोजमर्रा के जीवन और और भाषा का हिस्सा बन पायी है। इसका कारण यह है कि कम्पनियां वैश्विक स्तर पर चेन्स में  कार्यरत हैं। दुनिया के बाकी कई हिस्सों में जहाँ क्वियर फ्रेंडली समाज स्थापित हो चुका है,  वहाँ  खुद के बेहतर प्रतिनिधित्व की उम्मीद रहती है। ऐसे समाज को समावेशी बनना पड़ता है। समावेशी होना इनकी बाध्यता बन जाती है और ऐसे में इसका कुछ फायदा इन जगहों पर क्वियर लोगों को होता है।

हिन्दी समाज का समावेशी न होना नुकसानदेह  

उदाहरण के तौर पर एप्पल के सीईओ एक गे व्यक्ति हैं। इस तरह ऐसी कंपनियों में समलैंगिक समुदाय के प्रति तुलनामूलक ज्यादा संवेदनशीलता दिखती है। हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसमें अमूमन मजदूर वर्ग और मध्यम वर्ग काम करता है। छोटे कस्बेनुमा शहर और गाँव से यह तबका आता है। इन जगहों में न बड़ी कम्पनियां हैं, न स्कूल – कॉलेज, न कॉर्पोरेट दफ्तर, न बड़े निजी अस्पताल हैं। समावेशी होना इनकी जरूरत नहीं होती है। बेहतर रोजगार लोगों की मजबूरी होती है और ऐसे में यह उन्हें समावेशी बनने या ऐसे जगह जो समावेशी नहीं हैं, वहाँ अपने लैंगिकता को खुलकर जाहिर करने नहीं देती। पितृसत्ता की जड़ें ऐसे में बहुत धीमे प्रक्रिया से खत्म होती है। 

मेरी खुद की पहचान एक नॉन बाइनरी इंसान के रूप में  विकसित हुई। मगर घर, स्कूल, कॉलेज से काम तक स्त्रीलिंग  में बंटे रहने की बाध्यता रही। मैं शुक्रगुज़ार हूँ बिहार के लिए, यहाँ आम बोलचाल में ‘हम’ का प्रयोग होता है। आप  ज्यादातर वक़्त बहुवचनीय शब्दकोष के अभ्यस्त होते हैं। यह आपको जेंडर की मार से बचा लेता है। हिंदी पट्टी के छोटे शहरों में  अधिकतर पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम में होता है। पर जेंडर का विषय पाठ्यक्रम में स्त्रीलिंग- पुल्लिंग तक ही सीमित हैं।  हिंदी  मीडिया, अख़बार, इलेक्ट्रॉनिक व विजुअल माध्यम भी क्वियर डिस्कोर्स को बेहतर ट्रीटमेंट नहीं देते हैं। इनमें बस बड़े शहरों में होती हुई प्राइड परेड की कुछ झलकियाँ अपनी  जगह बना पाती है। प्राइम टाइम शायद ही कभी क्वियर क्रेंदित होते हैं। पिछड़े छोटे शहरों में मीडिया इतनी व्यापकता से नहीं मौजूद है  और फासीवादी दौर में मीडिया की व्यापकता वैसे भी बिकी हुई  है। मीडिया एक्सपोज़र का एक बड़ा माध्यम है।  इन इलाकों में लोग आज भी टी.वी पर ज्यादा निर्भर करते हैं ।  टी.वी के सारे कार्यक्रम मर्द – औरत के बीच की समझ और सम्बन्ध  पर केन्द्रित है। ऐसे में भाषा क्वियर समुदाय के लिए अभिव्यक्ति का जरिया कम और दर्द, मानसिक परेशानी और हिंसा का जरिया ज्यादा बन जाती है। 

क्वियर  समुदाय को पहचान क्यों नहीं

भाषा इंसान को  आइडेंटिटी देती है और क्वियर  इंसान इन्हीं भाषाओं में अपनी आइडेंटिटी खो देते हैं। हालांकि इसके लिए भाषा , व्याकरण या शब्दकोष नहीं ज़िम्मेदार हैं। इसके लिए ज़िम्मेदार है हमारी संस्कृति जिसने स्त्री और पुरुष के अलावा किसी को मान्यता नहीं दी। मेरा दोस्त निगम एक बहुत अच्छा फोटोग्राफर है। वह  अच्छी कविताएं लिखता है। जब वह लिखता है कि ‘मैं लिखता हूँ’ , तो दुनिया उसे व्याकरण के हवाले से कहती है, ‘अरे! लड़की मैं लिखती हूँ होगा यहाँ पर।’ निगम कैसे कहे कि  मैं लिखता हूँ ही उनकी अभिव्यक्ति है। भाषाई स्तर से अपमानित होने ने कई क्वियर लोगों को अपनी बात रखने की आजादी से खुदको मोड़ दिया है।

रोजमर्रा के जीवन में भाषा को लैंगिकता में बांटना  

मैं कर दूंगा बोलने से, शर्ट पहन लेने से, बाल छोटे कर लेने से तुम मर्द नहीं हो जाओगे। अरे, तुम बाल क्यों नहीं लम्बे कर लेती हो, तुम पर अच्छे लगेंगे। मेरी शादी में यूं ही मत आना जीन्स शर्ट लटका के , साड़ी पहन के आओगी तो ही एंट्री मिलेगी। आओ तुम्हें लिपस्टिक लगा दूं, तुम पर बिंदी कितनी फबेगी। LGBTQ+ समुदाय के लोग इन छोटे संवादों में भी  भाषा के वजह से अपमानित होते हैं।  इस तरह से भाषओं का क्वियर लोगों के लिए प्रयोग होना न असंवैधानिक है और न ही दुर्व्यवहार। यूट्यूब पर मौजूद क्वियर व्लोगर्स  के लिए लोग तरह-तरह के हेट कमेंट्स लिखते हैं। कारण सिर्फ इतना कि उनके संबोधन, पहनने- ओढ़ने के तरीके, जीने का अंदाज़ सेट जेंडर नॉर्म को नकारता है।

जेंडर और यौनिकता से जुड़ी बातचीत

ऋत्विक की चाहत थी कि उन्हें ऋतू बुलाया जाये। भाषा के पहले पहलुओं  में से एक है नाम देना। आप सोचिए कि आपका नाम ही आपका दम तोड़ने लगे तो ?  हिंदी के परिपेक्ष्य में यह कहना उचित होगा कि यहाँ जेंडर, यौनिकता का संवाद अभी केंद्र में समग्रता से अपनी जगह नहीं रखता है। अपवाद के लिए लाइव लॉ हिंदी  क़ानून एवं जेंडर से जुड़ी खबरे शेयर करते हैं। जेंडर से जुड़ी बातें हिंदी में जानने के लिए इन्टरनेट पर स्त्रीकाल, फेमिनिज़म इन इंडिया, विमेंस वेब , शी द पीपल टीवी हिंदी, इन्द्रधनुष, द थर्ड ऑई हिंदी , एजेंट ऑफ़ इश्क और  यूथ की आवाज़ जैसे कुछ पोर्टल्स पर मौजूद है। यह छोटे इलाकों के जेंडर , यौनिकता और भाषा पर केन्द्रित कुछ आयामों में अपनी बात रखने में सफल हो जातें हैं मगर फिर भी एक बड़ी आबादी तक नहीं पहुँच पाते हैं। कारण है पहुँच की कमी।

छोटे इलाकों की समस्या

छोटे इलाकों में लोग ज्यादातर अब भी टीवी पर आधारित हैं। निम्न वर्गीय परिवार के पास फ़ोन नहीं है, जिनके पास फ़ोन की उपलब्धता है वो इन्टरनेट सर्फ करना इस तरीके से नहीं जानते की वह इन पोर्टल्स पर जा कर खुद को शिक्षित कर सकें। ऐसे में इन पोर्टल्स के पाठक प्रिविलेज्ड  वर्ग तक सीमित हो जातें हैं। गाँव – कस्बाई शहर , छोटे टाउन में जागरुकता की कमी की वजह भी क्वियर कहानियों को सतह पर जाहिर नहीं होने देती नहीं। मेनस्ट्रीम का भाग नहीं बनने देती है। यह इन कार्यरत पोर्टल्स को ऐसे तमाम ढकी कहानियों तक नहीं पहुँचने देते हैं । रोज़ी रोटी का दबाव इन तबकों  पर इतना गहरा होता है की जेंडर जैसे आयाम समझने की ज़रूरत इतनी महत्वपूर्ण नहीं लगती है। पितृसत्तात्मक संस्कृति , जो  आम संस्कृति , मानवतावादी संस्कृति , ईश्वरीय संस्कृति के रूप में  घोषित है  , जहाँ स्त्री और पुरुष के कार्य पुरुष के शारीरिक बनावट और इच्छा अनुसार बाँट दिया जाए, जहाँ स्त्रियों के पुरुष द्वारा गढ़ी गयी  लज्जा, मर्यादा, विवाह आदि संस्कृति को ढोने के आदेश हो, स्त्रियों का मुख्य कार्य सिर्फ वंश को आगे बढ़ाना हो, जहाँ स्त्रियों के हक का फैसला भी मर्द अपनी जेब से निकालता हो, वहाँ जेंडर के अन्य  पहलुओं को केंद्र में रखना पितृसत्ता को मंजूर नहीं होती। जो भी उस भूमिका के अधीन नहीं है , वह सब अप्राकृतिक , एब्नार्मल है। ऐसे अप्राकृतिक मनुष्यों के लिए न संस्कृति बनती है और ना ही भाषा।

लोकल खबरों से दूर रहती क्वियर डिस्कोर्स

क्वियर डिस्कोर्स पर लोकल हिंदी अखबारों में कुछ नहीं छपता है। आम लाइब्रेरीज में भी जेंडर विषयों  पर हिंदी में उपलब्धता नहीं हैं ।स्त्री -पुरुष सम्बन्ध पर बातचीत का तरीका भी यहाँ ठीक से विकसित नहीं हुआ है। इस लिहाज से हमारी असल चुनौती यह है कि हम भाषा के पैमाने से ऊपर उठे, जेंडर और यौनिकता का विभाजन ख़त्म हो और भाषा का विकास इंसान की प्राकृतिक , शारीरिक और मानसिक समृद्धि की तरफ बढ़े। देश में अमूमन जेंडर  और यौनिकता पर चर्चा अंग्रेजी में होती है। अब तक प्राइड परेड या क्वियर  डिसकोर्स भी अंग्रेजी भाषा में होती आई है या अंग्रेजी के शब्दों और भावों को अपनाते हुए होती है। समलैंगिक विवाह कानून की कोर्ट प्रक्रिया भी हम अंग्रेजी में सुन रहे थे । इससे एक धारणा यह भी बनती है कि हिंदी में लिंग भेद करने का कोई तरीका नहीं है। लेकिन हिन्दी में जब हम अपने बड़ों को संबोधित करते हैं, तो अपने दोस्तों और साथियों की तुलना में उसका व्याकरणिक रूप अलग होता है।

हिन्दी भाषा में क्या हो सकता है हल

हम हिंदी में दे /देम प्रारूप को, बहुवचन संज्ञाओं से बदल सकते हैं। जैसे आप क्या करती हो के बजाय आप क्या करते हैं? हम भाषा की लैंगिकता से ऊपर उठकर संबोधन को जीवन में ला सकते हैं। लोगों से पूछें कि वह किस तरह संबोधित होना चाहते हैं और यह कुछ हद तक बड़े शहरों में होती हुई दिख भी रही है। संवेदनशील जागरूक लोग अक्सर आपसे आपके प्रोनाउन्स पूछ लेते हैं। हम भाषा के ऐसे अकादमिक विकास की ओर बढ़ें जहाँ क्वियर समाज की बातें भी केंद्र में समान रूप से मौजूद हो ।  भाषा जो एक लम्बे अर्से से एक ख़ास प्रारूप में स्थापित है, वह एकदम से मिट नहीं सकेगी। हमें  समावेशी नजरिए की जरूरत है। जैसे अपने लिए एहसास करें वैसे ही सबके बीच बात कर पाए और स्वीकृत, आवश्यक और वांटेड महसूस  करें। हम अपनी चेतना से  क्वियर स्लर्स को अनलर्न करें, और इन बाध्यताओं के बिना एक बेहतर कल की कल्पना करें। इसके लिए सभी को अपने स्तर पर काम करना होगा।

Note: The author is part of the September 2023 batch of the Writer’s Training Program in collaboration with Yes We Exist

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