भारत में करीब 20 लाख लोग इस बीमारी से ग्रसित होते हैं। मुख्य कारण है तम्बाकू या इसके भिन्न रूप; गुटका, खैनी, गुड़ाकू, सिगरेट, आदि। आखिर सरकार इस ‘उद्योग’ को बंद क्यों नहीं करती? काँग्रेस से लेकर भाजपा तक और उनके सहयोगी गुटखा और सम्बंधित अखाद्य, नशीले पदार्थों के सेवन के खिलाफ जरूर प्रचार कर अपने कर्तव्यों को पूरा मान लेते हैं पर बंद नहीं करते। बंद करने के लिए कानून क्यों नहीं?
भारत में बढ़ता कैंसर
कुछ आंकड़ों को देखते हैं। भारत में मुंह का कैंसर सबसे आम कैंसरों में से एक है। यह पुरुषों में सबसे आम कैंसर है और महिलाओं में तीसरा सबसे आम कैंसर है। भारत में प्रति वर्ष मुंह के कैंसर के लगभग 100,000 नए मामले सामने आते हैं। मुंह के कैंसर का सबसे आम कारण तंबाकू का उपयोग है। टॉक्सिन में निकोटीन और अन्य रसायन होते हैं जो मुंह के जोड़ों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। टॉक्सिक का उपयोग मुंह के कैंसर के खतरे को 20 गुना तक बढ़ा सकता है। मुँह का कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसे रोका जा सकता है, लेकिन यह गरीबी और हाशिये पर रहने वाले समुदायों में रहने वाले लोगों में बेहद आम है। यह कई कारकों के कारण है, जिनमें से कुछ ये हैं-
स्वास्थ्य देखभाल तक असमान पहुंच
गरीबी में रहने वाले लोगों को नियमित दंत चिकित्सा देखभाल तक पहुंच की संभावना कम होती है, जिससे मौखिक कैंसर का शीघ्र पता लगाने और उपचार करने में मदद मिल सकती है। यहाँ पर असमानता के साथ समाजिक (एक टैबू है), अज्ञानता और अन्धविश्वास के भी अहम् भूमिका महत्वपूर्ण हैं।
पर्यावरणीय विषाक्त पदार्थों के संपर्क में आना
गरीबी में रहने वाले लोगों के पर्यावरणीय विषाक्त पदार्थों के संपर्क में आने की संभावना अधिक होती है जो मौखिक कैंसर के खतरे को बढ़ा सकते हैं, जैसे कि निष्क्रिय धूम्रपान और वायु प्रदूषण।
अस्वास्थ्यकर आहार और जीवनशैली
गरीबी में रहने वाले लोगों में अस्वास्थ्यकर आहार और जीवनशैली, जैसे धूम्रपान और अत्यधिक शराब का सेवन करने की संभावना अधिक होती है, जिससे मौखिक कैंसर का खतरा भी बढ़ सकता है। इन कारकों के अलावा पूंजीवाद स्वयं भी मुंह के कैंसर को बढ़ावा देने में भूमिका निभाता है। उदाहरण के लिए, तम्बाकू उद्योग मुंह के कैंसर में एक प्रमुख योगदानकर्ता है। यह कम आय और अल्पसंख्यक समुदायों को लक्षित करने के लिए आक्रामक विपणन रणनीति का उपयोग करता है। खाद्य और पेय उद्योग भी अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों का उत्पादन और प्रचार करके एक भूमिका निभाता है जो मुंह के कैंसर के खतरे को बढ़ा सकते हैं। पूंजीपतियों का मुनाफा और उससे होने वाले राजकीय राजस्व आम जनता के सेहत से ज्यादा महत्वपूर्ण है पूंजीवाद में। कुछ विशिष्ट उदाहरण हैं कि कैसे पूंजीवाद मुंह के कैंसर में योगदान देता है-
तम्बाकू उद्योग
तम्बाकू उद्योग एक अरबों रुपये का उद्योग है जो नशे की लत और घातक उत्पादों की बिक्री से मुनाफा कमाता है। तम्बाकू कंपनियाँ अपने उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए आक्रामक विपणन रणनीति का उपयोग करती हैं, जैसे कम आय और अल्पसंख्यक समुदायों को लक्षित करना। इससे इन समुदायों में तम्बाकू के उपयोग की दर में वृद्धि हुई है, जिसने मुंह के कैंसर के उच्च दर में योगदान दिया है।
खाद्य और पेय उद्योग
खाद्य और पेय उद्योग अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थ और पेय, जैसे शर्करा युक्त पेय, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ और फास्ट फूड का उत्पादन और प्रचार करता है। ये खाद्य पदार्थ और पेय मोटापे और अन्य पुरानी बीमारियों में योगदान कर सकते हैं, जिससे मौखिक कैंसर का खतरा बढ़ सकता है।
स्वास्थ्य सेवा उद्योग
भारत में और दुनिया के अधिकांश देशों में स्वास्थ्य सेवा उद्योग का अत्यधिक निजीकरण किया गया है, जिसका अर्थ है कि बहुत से लोग अपनी आवश्यक देखभाल तक पहुँचने में सक्षम नहीं हैं। इससे मुंह के कैंसर के निदान और उपचार में देरी हो सकती है, जिससे बचने की संभावना कम हो सकती है। पूंजीवाद में मुंह के कैंसर से निपटने के लिए क्या किया जा सकता है? पूंजीवाद में मुंह के कैंसर से निपटने के लिए कई चीजें की जा सकती हैं, जिनमें शामिल हैं।
तम्बाकू उद्योग को विनियमित करना
तम्बाकू उद्योग को भारी रूप से विनियमित किया जाना चाहिए, जिसमें तम्बाकू उत्पादों के विज्ञापन और विपणन पर प्रतिबंध लगाना भी शामिल है। लेकिन इसे बंद नहीं कर सकते हैं। सरकार को तंबाकू के उपयोग को कम करने और स्वस्थ आहार और जीवन शैली को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य शिक्षा और पहल को बढ़ावा देना चाहिए। सरकार को आय या बीमा स्थिति की परवाह किए बिना, सभी के लिए स्वास्थ्य देखभाल को अधिक किफायती और सुलभ बनाना चाहिए। यह भी आज तक़रीबन संभव नहीं है। मौखिक कैंसर के मूल कारणों का पता लगाकर, हम इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या को कम कर सकते हैं और जिन लोगों को यह बीमारी होती है उनके जीवित रहने की संभावना में सुधार कर सकते हैं। लेकिन पूंजीवादी मुनाफा पर आधारित चिकित्सा व्यवस्था इसमें सबसे बड़ी बाधा है।
कैंसर से लड़ाई के लिए चाहिए मजबूत व्यवस्था
जब कैंसर का पता चलता है या पहचान होता है, तब रोगी और उसके परिवार भी बेहद अन्धकार में रहते हैं और यह तय नहीं लार पाते हैं कि इलाज कहाँ और किस तरीके से करवाएं। कई संस्थाएं जो यह दावा करते हैं कि उनके पास रामबाण है। पर उनके पास से ऐसा कोई आंकड़ा नहीं मिलाता है जिससे रोगी या उसके अभिभावक तय कर सकें कि इलाज का रास्ता क्या हो। अंग्रेजी तरीके से इलाज करवाने में कई उपाय हैं, जैसे किमो थेरापी, रेडियो थेरापी, शल्य (औपरेशन) चिकित्सा। किसी भी एक अच्छे अस्पताल या क्लिनिक में इलाज करवाने में 12-15 लाख रुपये का खर्च आएगा। आयुर्वेद, होमिओपैथ आदि के दलाल भी इस बीच मरीजों के पास पहुंचाते हैं। 5-10 दाम पर इलाज करने का दावा करते हैं और रोगी, जो अक्सर एक अन्धविश्वासी और धार्मिक परिवृत्ति का होता है, अपनी बची खुची पैसे लगा देता है। स्वास्थ्य सही होने की उम्मीद में। वैसे ही इम्यून थेरपी, सेल थेरापी वाले भी पहुंचाते हैं और बिना ऑपरेशन के इलाज करने का दावा करते हैं और 60-70% तक ठीक करने का दावा करते हैं। स्वास्थ्य लाभ कर रोगियों के फोन नंबर मांगने पर निजता (गोपनीयता) का बहाना बनाते हैं। यहाँ भी 5 लाख से अधिक का खर्च पड़ेगा, जो ऊपर के अंग्रेजी तरीके से इलाज़ करवाने के आलावा है, जिसके लिए ऐसे डॉक्टर कहते हैं कि अंग्रेजी इलाज बंद नहीं करना है। करें तो क्या करें? अज्ञानता और अन्धविश्वास और ऊपर से कठिन बीमारी? खर्च करने की भी औकात नहीं है। बेबसी, तड़प और दैविक प्रकोप, भाग्य या फिर विद्रोह एक तार्किक आधार पर?