ये उन दिनों की बात है जब मैं बनारस के केंद्रीय विश्वविद्यालय काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। बीए का पहला साल था। अपने घर भोपाल से पहली बार कहीं बाहर आई थी। मन में दृढ़ संकल्प और ढेर सारे सपने लेकर आई थी। मैं पढ़ने के लिए बीएचयू आयी थी, पर पता नहीं था कि छात्र जीवन में मुझे शिक्षक बनने का भी अवसर प्राप्त होगा।
हाशिए पर रह रहे बच्चों को पढ़ाने का अवसर
15 अक्टूबर, 2019 को मेरे एक दोस्त राहुल का जन्मदिन था। उसने मुझसे कहा कि वो मुझे एक जगह ले जाएगा जहां हम मिलकर जन्मदिन मनाएंगे। हमने लंका बीएचयू से केक खरीदा और सीर गेट गए। जैसे ही हम वहां पहुंचे, 4-5 बच्चे दौड़ते हुए आए और राहुल से आकर लिपट गए। चेहरे पर मुस्कान और चमकती हुई आंखों के साथ वो बच्चे ‘सर जी! सर जी’ चिल्ला रहे थे। राहुल ने सभी को गले से लगा लिया।
फिर उसने मुझे बताया कि वो हर दिन वहां आता है, उन बच्चों को पढ़ाने के लिए। बीएचयू परिसर में मजदूरी व अन्य कार्य करने के लिए यूपी-बिहार के कई गाँव से हज़ारों लोग वहाँ आते हैं। ये उन्हीं कर्मचारियों के बच्चे थे। वे विश्वविद्यालय के अंदर ही कच्चे मकान बनाकर रहते थे। वे कभी स्कूल नहीं गए, और ना कभी पढ़ाई-लिखाई के बारे में सोचते भी होंगे।
पेंसिल पकड़ने से लेकर पढ़ाई तक
राहुल ने जब पहली बार उन्हें देखा तो उसने निश्चय किया कि वो उन बच्चों को पढ़ायेगा। उसने उन्हें पेंसिल पकड़ना सिखाया, चॉक से स्लेट पर लिखना सिखाया, किताब पढ़ना सिखाया। वह क्लास के बाद हर दिन वहाँ आता था और बच्चों के साथ समय व्यतीत करता था। उस दिन राहुल ने जब मुझे बच्चों से मिलवाया तब उन्हें देखकर मेरी आँखों में आंसू थे। राहुल ने उन्हें सिखाया कि मुझे ” मैडम जी ” बोलें। और वो नन्हें बच्चे तितलियों की तरह मेरे आस पास मंडराते रहे। उन सभी को मुझसे मिलकर बहुत खुशी हुई। फिर हमने केक काटा और सभी बच्चों को खिलाया। केक खाकर उन्हें जो खुशी हो रही थी, वो उन सभी के चेहरे से साफ़ झलक रही थी। उस दिन राहुल को देखकर मुझे एहसास हुआ कि खुशियां बांटना कितना आसान होता है, दिल को सुकून सा मिलता है।
रोज इन बच्चों से मेरा मिलना
उस दिन के बाद से मैं लगभग रोज़ ही वहाँ जाने लगी। उन प्यारे बच्चों से मिलने। हम उनके साथ वक़्त बिताते थे, बातें करते थे और पढ़ाई करते थे। मैं वहां उन्हें पढ़ाने जाती थी, पर हर दिन मुझे उनसे ही कुछ नया सीखने को मिलता था। जिस ऊर्जा से बच्चे पढ़ने को तैयार रहते थे, वो देखकर मेरा दिल खुश हो जाता है। उल्लास से भरपूर वो बच्चे हर दिन अपनी शरारतों से मेरा दिल जीत लेते थे। वे मस्तीखोर थे, पर जब पढ़ाई करने की बारी आती थी, तब पूरी लगन से पढ़ते थे। अनपढ़ माता-पिता होने के बावजूद भी, शिक्षा को लेकर उन बच्चों की रुचि काबिल-ए-तारीफ़ थी। अपने उस छोटे से शिक्षा के मंदिर को राहुल और मैंने नाम दिया था, ‘अपनी पाठशाला’। वहाँ हमने कई बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया। ए-बी-सी-डी, वन-टू-थ्री और क-ख-ग से लेकर हिन्दी-अंग्रेज़ी की कई कविताएँ और कहानियाँ हमने उन्हें सिखाईं थीं।
कोरोना और लॉकडाउन के वक्त स्कूलों का बंद होना
अक्टूबर 2019 से फ़रवरी 2020 तक लगातार कई दिनों तक मैं अपने स्टूडेंट्स से मिली। फ़रवरी 2020 के बाद कोरोना और लॉकडाउन की वजह से मैं काफ़ी समय तक ‘अपनी पाठशाला’ जा नहीं पायी। लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद साल 2022 में जब मैं फिर से बीएचयू गई तब मुझे वहाँ वो बच्चे नहीं मिले। कुछ लोगों से पूछने पर पता चला कि वहाँ रहने वाले सारे परिवार लॉकडाउन में अपने गाँव लौट गए थे। ये सुनकर मैं काफ़ी निराश हुई।
बच्चों के भविष्य में योगदान
मुझे नहीं पता आज वो बच्चे कहाँ होंगे। पर मुझे लगता है कि मैंने उन बच्चों के सफल भविष्य में थोड़ा बहुत योगदान दिया। और मुझे विश्वास है कि मेरे प्यारे स्टूडेंट्स आज जहां भी होंगे, एक अच्छी और बेहतर ज़िंदगी जी रहे होंगे। उन नन्हें बच्चों ने मुझे टीचर होने का अहसास दिलाया था। तब मुझे समझ आया कि जीवन में एक शिक्षक का क्या महत्व होता है। उम्मीद करती हूँ कि राहुल और मेरी तरह किसी और ने भी उन बच्चों को पढ़ाने का ज़िम्मा उठाया होगा।