Site icon Youth Ki Awaaz

अहं ब्रह्मास्मि पर आचार्य शंकर तथा महर्षि दयानंद सरस्वती

अहं ब्रह्मास्मि यह उपनिषद का प्रसिद्ध वचन है इसका अर्थ “मैं ही ब्रह्म हूं” ऐसा आचार्य शंकर करते है। ऋषि दयानंद इसका अर्थ “मैं ब्रह्मस्थ हूं” ऐसा करते है। यह समाधि की वह स्थिति है जब जीवात्मा का ईश्वर से साक्षात्कार होता है और जीव को सर्वत्र उस ब्रह्म की व्यापकता का बोध हो जाता है और स्वयं को उस ब्रह्म में स्थित हुआ जान लेता है। तब यह वचन उसमे सिद्ध हो जाता है ऐसा मान लिया जाता है। यहां दो अर्थ में भेद का कारण यह है कि आचार्य शंकर ऐसा मानते है की जीव वस्तुत: कोई अलग तत्व न हो कर उस ब्रह्म का ही अंश है। ऋषि दयानंद जी इस बात से सहमत नही है। ऋषि का कहना है यदि जीव ब्रह्म का ही अंश है इसका अर्थ यह हुआ की उपासक स्वयं उपास्य का ही अंग है। यानी जीव जीव न हो कर वस्तुत: ब्रह्म ही है। अतः इसमें दोष यह है की फिर यह स्वीकार करना पड़ेगा की उपासक स्वयं उपास्य है। फिर उपासक उपसाना किसकी करेगा? अंश होने से जीव में भी फिर वही गुण विद्यमान होने चाहिए जो ब्रह्म में हैं। इस लिए आचार्य शंकर का अर्थ ठीक नही।

Exit mobile version