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“मणिपुर हिंसा: क्या एक स्त्री का शरीर महज युद्ध का मैदान मात्र है?”

Manipur Violence

Manipur Violence

जब मणिपुर हिंसा का भयानक वीडियो वैश्विक स्तर पर वायरल हुआ, जिसमें दो आदिवासी महिलाओं को नग्न कर के कथित रूप से बलात्कार किया जाता है, तो इस घटना ने भारत की सामूहिक चेतना को झकझोर दिया। यह खबर दुनिया भर में फैल चुकी थी। इस वायरल वीडियो उसके ठीक बाद शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट ने दो महीने पहले हुई घटना का स्वतः संज्ञान लिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर कार्यपालिका अपना काम ठीक से नहीं करती है तो फिर न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ेगा। और फिर अचानक से कार्यपालिका नींद से जाग गई । लगभग 70 दिन की भयानक हिंसा, लोगों के विस्थापन और घरों के जलने के बाद आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुप्पी तोड़ी।

मुद्दे से भटकती मीडिया में मणिपुर पर चर्चा

उसके बाद मीडिया पर पक्ष एवं विपक्ष में चर्चा होने लगी। लोग एक दूसरे को ट्रोल करना शुरू कर देते हैं । राजनेता लोग एक दूसरे पर वोट बैंक की राजनीति के लिए निशाना साधने लगे। वैसे भी ये लोग समस्या या घटना की गंभीरता को दरकिनार करते हुए अक्सर अपनी प्रतिक्रियाओं में चयनात्मक (सेलेक्टिव) होते हैं। सत्ताधारी दल बजाय मणिपुर की समस्या की तरफ ध्यान केंद्रित करने, वीडियो के बाहर आने के समय (संसद के मानसून सत्र के ठीक पहले ) पर ही सवाल करने लगा। हमें तो यह सवाल पूछना चाहिए कि आखिर औरतें किसी भी युद्ध या लड़ाई में आसान टारगेट क्यों होती हैं? आखिरकार हम दुनिया को क्या सन्देश देना चाहते हैं? आखिर भारत के कई अन्य राज्यों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा इतनी अधिक क्यों है? और मणिपुर में हिंसा को रोकने के लिए क्या करना होगा?

क्या उत्तर पूर्व भारत को समझता है देश की मीडिया

वैसे दिल्ली स्थित मुख्याधारा की मीडिया अक्सर (दूर दराज़ )उत्तरपूर्व भारत के ख़बरों को ज़रा कम करके ही दिखाती है। मणिपुर हो या कहीं और ऐसे गंभीर मामलों को दबाने से उनकी गंभीरता कम तो नहीं हो जायेगी। उन्हें इस वीडियो के वायरल होने के बाद यह नहीं भूलना चाहिए कि समाचार के अन्य स्रोत भी हैं। और सोशल मीडिया अब उस जगह को ले रहा है। सारी दुनिया भारत की तरफ देख रही है कि हम कैसे इस परिस्थिति को सुलझातें हैं। क्योंकि इस वायरल वीडियो के पहले किसी को मणिपुर के इस कदर जलने का आभास भी नहीं था। सैकड़ों की भीड़ में युवा दो औरतों को बिना कपड़ों के ले जा रहे थे। कथित रूप से एक महिला के साथ बलात्कार की बात खबरों में आयी I पर जो दिख रहा है वह बलात्कार से भी वीभत्स है। अगर हम गैंगरेप तक भी न जाएँ तो क्या किया गया और क्यों किया गया, यह पूछना ज़रूरी है।

क्या नारी शरीर का मतलब युद्धक्षेत्र है?

गौरतलब है कि हर वह कृत्य बलात्कार है, जो किसी महिला की सहमति के बिना उसके शरीर के साथ किया जाता है। किसी के सम्मान को ठेस पहुंचाना और उसके साथ सरेआम खिलवाड़ करना बलात्कार है। बलात्कार की क़ानूनी परिभाषा बहुत कमज़ोर है। यह हिंसा पौरुषिक ताक़त, दबंग मर्दानगी और नफरत की उपज है। और मणिपुर में इस आंतरिक संघर्ष में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की यह कोई अकेली घटना नहीं है। ऐसी कई घटनाएं प्रकाश में आ रहीं हैं । क्या नारी शरीर का मतलब युद्धक्षेत्र है? मणिपुर जैसी घटनाओं में संघर्ष का सबसे बड़ा निशाना महिलाएं हो रहीं हैं। स्त्री का शरीर जाति, धर्म, देश, क्षेत्र और नस्ल का युद्धक्षेत्र बन जाता है। पुरुषवादी सोच का मानना ​​है कि युद्ध जीतने के लिए उन्हें दूसरी तरफ की महिलाओं को ‘जीतना’ होगा। यदि आप उन्हें हराना चाहते हैं तो दूसरी तरफ की महिलाओं पर हमला करें। महिला केवल अपने समुदाय के सम्मान की एकमात्र प्रतिनिधि नहीं हैं इस बात का ध्यान रखना होगा। झूठी पौरुष की ताकत यह मानती है कि बात सिर्फ हार-जीत की नहीं है। वह दूसरे समूह को नीचा दिखाना चाहता है।

समाज का सम्मान क्यों महिलाओं के जिम्मे

इसलिए, हमले का परिणाम केवल किसी को मारना नहीं है। यह ‘पौरुष’ की ताक़त हमें बताती है कि यौन हिंसा करनी है। महिला को किसी खास तरीके से निशाना बनाना है। केवल उन्हीं अंगों को निशाना क्यों बनाया जाए? क्योंकि महिलाओं ने समाज के सम्मान का बोझ अपने ऊपर उठा रखा है, पुरुषत्व ने सम्मान को इसके कुछ हिस्सों तक ही सीमित कर दिया है। इसीलिए दूसरे समूह की महिलाओं को निशाना बनाया जाता है, ऐसे में पुरुषवादी समाज मान लेता है कि उसने उस समुदाय की ‘इज्जत लूट ली है’। महिलाओं के खिलाफ इस तरह की यौन हिंसा करके हमलावर पक्ष खुद को विजेता और दूसरे समूह को हारा हुआ मानता है। इतना ही नहीं बल्कि ऐसा करके वे दूसरे समूह के पुरुषों को अपमानित भी करते हैं। मणिपुर में भी एक पक्ष खुद को विजेता मानता है जबकि दूसरे को हारा हुआ दिखाता है।ऐसा नहीं है कि ऐसी जीत का उत्साह केवल महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा में ही पाया जाता है। कई पुरुषों को भी ऐसी हिंसा का सामना करना पड़ा है। जहां एक समूह दूसरे समूह के पुरुष की मूंछें काट देता है और सिर के बाल मुंडवा देता है, यानी उन्हें मर्दानगी की तथाकथित पहचान से वंचित कर उनका अपमान करता है। ऐसी शत्रुता नफरत की राजनीति के बिना संभव नहीं है जो दो समूहों के बीच शत्रुता और विभाजन की भावनाओं को बढ़ावा देती है।

विशेष समूह के प्रति नफरत क्यों

विशेष समूहों के प्रति घृणा, भय और आक्रोश की राजनीति उनकी धार्मिक और जातीय पहचान पर आधारित है। राजनेताओं ने कुछ समूहों को बलि के बकरे के रूप में इस्तेमाल किया और उन्हें आर्थिक चुनौतियों, सुरक्षा मुद्दों और अन्य कथित खतरों के लिए उनमे असुरक्षा ही भावना पैदा किया । राजनेताओं ने कुछ समूहों से समर्थन जुटाने के लिए पहचान-आधारित बंटवारे का फायदा उठाया जब वे दूसरों को बदनाम करते हैं।वे समर्थन हासिल करने और कुछ कार्यों को उचित ठहराने के लिए डर का इस्तेमाल करते हैं। नफरत की राजनीति का समाज पर कई परिणाम हो सकते हैं, जैसे सामाजिक तनाव बढ़ना, संस्थाओं पर भरोसा कम होना और लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट। इससे कुछ समूहों को हाशिए पर धकेला जा सकता है और भेदभाव किया जा सकता है, जिससे समाज अधिक खंडित और शत्रुतापूर्ण हो सकता है। संवेदनहीनता की राजनीति में हम आंखों पर पट्टी बांधे हुए हैं। इसलिए हम यौन हिंसा को अपनी सुविधा के हिसाब से देखते हैं। कुछ दिन पहले; देश की जानी-मानी महिला पहलवान धरने पर बैठीं। वे रोते हुए कह रहीं थीं कि उनके साथ यौन हिंसा हुई है। चूंकि उनका धरना एक खास तरह की राजनीति को पसंद नहीं आया, इसलिए उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाया गया।

क्या समाज हिंसक और महिला विरोधी होता जा रहा है

उनका मजाक उड़ाया गया। उनसे वीडियो के रूप में सबूत देने को कहा गया। लेकिन उनके पास दिखाने के लिए कोई वीडियो नहीं था। हमारा समाज कान में तेल डाल कर चुपचाप सो रहा है । हालांकि अब मामले की सुनवाई कानूनी प्रक्रिया के तहत हो रही है, लेकिन पूरे मामले को राजनीति के चश्मे से देखा जा रहा है।पिछले कुछ वर्षों में सच से पलायन करने के तौर पर यौन हिंसा के मामलों में आरोपियों की पहचान को देखते हुए, हम या तो खुलकर उनके साथ खड़े हो गए, चुप हो गए, या उन महिलाओं के खिलाफ हो गए जो यौन हिंसा की पीड़िता रहीं और न्याय के लिए लड़ती रहीं । हाल के दिनों में हमारे आसपास ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहां एक समाज के तौर पर हमें यौन हिंसा के खिलाफ एक स्वर में खड़ा होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इतना ही नहीं, इस राजनीति का नतीजा यह है कि इसी विचार के मुताबिक राज्य भी कहीं न कहीं अपराधियों के साथ खड़ा नजर आ रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो दो महीने पहले मणिपुर में जो घटना हुई, उस पर कार्रवाई हो गयी होती। इतना ही नहीं बल्कि इस वीडियो के आने के बाद भी कई लोग अगर-मगर के साथ बात कर रहे हैं। हिंसा के एक रूप के जवाब में वे दूसरे प्रकार की हिंसा का हवाला देने लगते हैं। जब हम दूसरे के विरुद्ध हिंसा का उल्लेख करते हैं, तो हम हिंसा का विरोध नहीं कर रहे होते हैं बल्कि उसका समर्थन कर रहे होते हैं। यह एक बड़ा संकेत है कि हम एक समाज के तौर पर हिंसक और महिला विरोधी होते जा रहे हैं।

महिलाएं क्यों निशाने पर होती हैं

अतीत में कई राज्यों या केंद्र शासित प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ बहुसंख्यकवादी हिंसा हुई, उदाहरण के लिए, 1984 में दिल्ली में सिखों के खिलाफ, 1989-90 में कश्मीर में पंडितों के खिलाफ और 2002 में गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ। क्या यह संयोग है कि मणिपुर या अन्य स्थानों पर एक आक्रामक समूह दूसरे समूह की महिलाओं का यौन उत्पीड़न करता है? महिलाओं को निशाना बनाने का पहला मकसद हत्या नहीं था। पहले उनके साथ यौन हिंसा फिर उसके बाद कुछ और। दुःखद बात यह है कि ऐसे अधिकांश मामलों में यौन हिंसा केवल सामुदायिक मुद्दा बनकर रह जाती है। दुनिया भर में जहां भी समुदायों के बीच संघर्ष होता है, महिलाएं निशाने पर होती हैं। खासकर कमजोर पक्ष की महिलाएं। आजादी और बंटवारे के समय भी हमारे देश में ऐसी कई घटनाएं घटीं। उस काल में हिंदू, सिख और मुस्लिम दूसरे समुदाय की महिलाओं का अपहरण कर लेते थे। उनका यौन उत्पीड़न किया। यह मानते हुए कि उन्होंने दूसरे की ‘इज्जत लूट ली’ और दूसरे पर ‘जीत’ ली।जहां संघर्ष हुआ है वहां की महिलाओं को ये सब सहना पड़ा है। अगर हम चाहते हैं कि ऐसी यौन हिंसा रुके, तो कुछ कदम उठाना बहुत जरूरी है। ऐसी हिंसा को किसी एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ यौन हिंसा मानना ​​ग़लत होगा। यह यौन हिंसा समुदाय के ख़िलाफ़ है, समाज के बुनियादी ढाँचे और संविधान के ख़िलाफ़ है और महिला की गरिमा के ख़िलाफ़ है। इसलिए सबसे पहले तो इस तरह की यौन हिंसा को कानूनी तौर पर एक अलग तरह की यौन हिंसा ही मानना ​​होगा।

भारतीय सभ्यता महिलाओं के खिलाफ हिंसा नहीं सिखाता

भारतीय सभ्यता का इतिहास महिलाओं के ख़िलाफ़ ऐसी हिंसा की इजाज़त नहीं देता। यदि हमारे सभ्यतागत मूल्यों को संरक्षित रखना है तो एक सभ्य समाज के रूप में हमें सामूहिक रूप से इस बारे में तुरंत सोचना चाहिए। याद रखें, अगर ये वीडियो नहीं आता तो क्या हम यौन हिंसा के आरोप स्वीकार कर लेते? अगर हम चाहते हैं कि मणिपुर जैसी घटना का कोई दूसरा वीडियो किसी दूसरे कोने से न आए तो हमें एक समाज के तौर पर सहानुभूति की भावना के साथ ऐसी स्थिति से निपटने के लिए कुछ असाधारण कदम उठाने होंगे। अगर हम चाहते हैं कि पूरी दुनिया हमारा सम्मान करे तो हमें अपनी आंखों में देखना चाहिए। चाहे कोई भी करे, हमें इसका विरोध करने और इसके खिलाफ आवाज उठाने की आदत डालनी होगी। नफरत की राजनीति ने हमें सामाजिक रूप से असंवेदनशील, नैतिक रूप से भ्रष्ट और राजनीतिक रूप से विभाजित समाज बना दिया है।राज्य अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। सामने आ रही घटनाओं के बीच, सभी हितधारकों तक पहुंचने के लिए एक तटस्थ, निष्पक्ष और सकारात्मक राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करना आवश्यक है। प्रमुख समुदायों को विश्वास में लेने के लिए वहां एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजना समय की मांग है। किसी भी अन्य संघर्ष-प्रभावित क्षेत्र की तरह, मणिपुर में हिंसा के समाधान के लिए एक व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो शांति, सुलह और विकास को बढ़ावा देते हुए हिंसा के मूल कारणों को संबोधित करे। सरकार और विद्रोही समूहों सहित विभिन्न हितधारकों के बीच एक सार्थक बातचीत शुरू करना महत्वपूर्ण है। बातचीत से शिकायतों को दूर करने, सामान्य आधार खोजने और शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में काम करने के अवसर पैदा हो सकते हैं। सुलह प्रयासों में पिछले अत्याचारों की स्वीकारना , पीड़ितों के लिए न्याय और उपचार और माफ़ी के अवसर शामिल हैं।

यह लेख पहले अंग्रेज़ी में प्रकाशित हो चुका है। इसे स्पर्श चौधरी द्वारा अनुवादित किया गया है।

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