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हस्तकला की दुनिया में पहचान बनाता बिहार का भागलपुर

woman weaving saree

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भारतीय हस्तकला (Indian Handicraft) और हस्तकरघा (Indian Handloom) का दुनिया में कोई जोड़ नहीं है। मंदिरों, बर्तनों , स्मारकों आदि पर की गई नक्काशी की नज़ाकत को कौन नहीं जानता। इन सबसे भले हम आसानी से रूबरू होतें हैं, पर भारत में कपड़ा उद्योग में जो फैब्रिक और कला में प्रचुरता और विविधता झलकती है, वो काबिलेतारीफ है।

भागलपुरी तसर सिल्क से संस्कृति को सहेजना

भारतीय परिधानों (Indian Dresses) में साड़ी एक विशेष स्थान रखती है चाहे वो किसी भी फैब्रिक की हो। एक पारम्परिक परिधान होने के कारण भारत में हर मौके की नज़ाकत को समझते हुए सिल्क साड़ियों का प्रचलन तो है हीं, साथ ही कम मूल्यों पर भी बेहतरीन सिल्क उपलब्ध है। भारतीय रेशम की साड़ियां सहज हीं आकर्षित करती हैं। कई राज्यों में इन साड़ियों पर प्रादेशिक कला और शिल्प की छाप होती है, जो हमारी संस्कृति को सहेजने का एक माध्यम भी है।

बिहार के भागलपुर ‘रेशम शहर’ का कोई ज़ोर नहीं

सिल्क साड़ियों की बात हो तो बिहार के भागलपुर जिले (Bhagalpur District) का नाम लिए बिना सब अधूरा है। भागलपुरी सिल्क साड़ी (Bhagalpuri Silk Saree) का कोई सानी नहीं। भागलपुर को “रेशम शहर” के नाम से जाना जाता है। भागलपुरी सिल्क साड़ी को टसर सिल्क (Tussar Silk) के नाम से जाना जाता है। ये साड़ियां अपने रंगों और कलाकृतियों के कारण हमेशा हीं वार्डरोब में अपनी जगह बनायीं रहतीं हैं। इनके डिजाइन और गुणवत्ता हमें बरबस हीं अपनी तरफ़ खींचती है।

अहिंसक तरीके से बनाने के कारण शांति रेशम पड़ा नाम

वैदिक काल और मौर्य काल में अपना अस्तित्व कायम रखते हुए, आज भी ये सिल्क साड़ियां भारतीय समाज का अंग रहीं हैं। प्राकृतिक रंगों से इस रेशम को तैयार किया जाता है। साथ हीं पर्यावरण के अनुकूल रेशम बनाने के लिए इन रेशम के कीड़ों को कोई नुकसान न हो, इसका एहतियात और ख़्याल रखा जाता है। इसके निर्माण की अहिंसक प्रक्रिया के कारण इस रेशम को “शांति रेशम” भी कहा जाता है। वैसे रेशम तैयार करने के लिए ककून से सिल्क धागे निकाले जाते हैं। फिर धूप में रंगाई होती है और सूखाया जाता है। आजकल वनस्पति रंगों की जगह अम्लीय रंगों का उपयोग किया जाता है जो रेशम के लिए ज्यादा उपयुक्त होते हैं।

Tussar Silk की विशेषता और सांस्कृतिक कला की छाप

भागलपुरी रेशम की साड़ियां (Bhagalpuri Silk Saree) वज़न में बहुत हल्की होतीं हैं। इन साड़ियों पर बिहार की सांस्कृतिक कला जैसे मधुबनी (Madhubani), जनजातीय कला आदि की अपूर्व छटा देखते हीं बनती हैं। टसर साड़ियां अपनी बुनावट में झरझरा होती हैं जो गर्म मौसम में भी आसानी से पहनी जा सकतीं हैं। वैसे भी फैशन डिज़ाइनर टसर सिल्क का उपयोग प्रचुरता से कर बेहतरीन कपड़े तैयार करते हैं। साड़ियों के अलावा कुर्ते, दुपट्टे, गमछे, शाल आदि भी बनाए जाते हैं।

यूं तो भागलपुरी टसर सिल्क (Bhagalpuri Tussar Silk) की मांग आज बहुत बढ़ती जा रही। फिर भी भारतीय सिल्क में कई अन्य साड़ियां भी अपनी अलग पहचान रखतीं हैं। मसलन, राजस्थान की लहरिया साड़ी, केरल की कसावु साड़ी, पंजाब की फुलकारी साड़ी और ओडिशा की इक्कत साड़ी और दक्षिण भारतीय सिल्क साड़ियों की तो लंबी फेहरिस्त शामिल है।

बिहार की लुप्त होती कारीगरी को पुनः जीवंत करना

Powerloom (मशीन करघा) के आने से हस्तकरघा (Handloom) की जरूरत खत्म होती जा रही। फिर भी कई सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं भागलपुरी सिल्क साड़ी को पहचान दिलाने में जुटी हैं। बिहार की लुप्त होती टसर सिल्क की कारीगरी फिर से जीवन्त हो उठी है। अब बुनकरों को मुख्यधारा के ग्राहकों से सीधे तौर पर जोड़ कर इस विरासत को संभालने की जिम्मेदारी बढ़ गई है। बिहार में Silk Institute और Agriculture University भी भागलपुर में है जो अपनी अहम भूमिका निभा रहा।

अपने विरासत को संभालता सिल्क सिटी

भागलपुरी टसर सिल्क को संस्कृत में कोसा सिल्क(Kosa Silk) भी कहते हैं। बिहार के अलावा यह जापान, चीन और श्रीलंका में भी उत्पादित होती है। भारत का स्थान टसर सिल्क के उत्पादन में दूसरा है। वैसे बिहारी टसर सिल्क अभी झारखंड में बड़े पैमाने पर बनाया जा रहा। बिहार और झारखंड के अलावा छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के जनजाति भी टसर सिल्क (Tussar Silk) के उत्पादन में विशेष रूप से लगे हैं। ये साड़ियां बुनकर डेढ़ से तीन दिनों में बनाते हैं। जबकि मशीनकरघा से ज्यादा साड़ियां बनतीं हैं। और साथ हीं Mulberry Silk से ज्यादा किफायती टसर सिल्क होतीं हैं जिससे उनकी मांग भी अधिक होती है। हाथ से बनी इन सिल्क साड़ियां और टसर सिल्क से बने परिधानों की मांग भारत और विदेशों में भी बहुत है जिसे हमारे बुनकर पूरा करने में रात-दिन एक कर लगे होतें हैं। बिहार का भागलपुर जो “सिल्क सिटी” (Silk City Bhagalpur) कहा जाता है, यह न केवल उस शहर की बल्कि हम भारतीयों की भी जिम्मेदारी है कि हम अपनी विरासत की पहचान कायम रखें और अंतर्राष्ट्रीय फ़लक पर उसे ले जाएं।

नोट- यह रिपोर्ट पूजा चौधरी की है और एक बिहारी न्यूज में पहले प्रकाशित हो चुकी है।

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