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“मणिपुर हिंसा: महिलाओं को ‘इज्जत’ का सूचकांक बनाने की सोच को बंद करें”

Stop violence against women

Stop violence against women

हमारे समाज में कई समस्याएं हैं। उनमें से ही एक है- महिलाओं के खिलाफ हिंसा। यहां हमारे समाज से मेरा तात्पर्य भारतीय समाज तक सीमित नहीं है बल्कि जहां जहां इंसान ने अपनी सभ्यता बनाई है, हर उस सभ्यता में महिलाओं को दोयम दर्जे की उपाधि दी गई है। हालांकि, समाज प्रगतिशील स्वभाव का हो तो कुरीतिया दूर की जाती है परंतु प्रगतिशीलता के आधार पर हम सिर्फ सतह पर दिखने वाले प्रगतिशील बदलाव को तवज्जो देते है। किसी भी कुरीति  के आधार पर आक्रमण करना सामाजिक चेतना में बुरा या नामुमकिन समझा जाता है और इसलिए जब भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा की खबर आती है तो हम सब बटोरने लगते है अपने अपनी हिस्से का प्रगतिशील स्वभाव और तुरंत बता देते है कि ये हिंसा एक अपराध है और अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। अच्छी बात है कि सजा हो पर क्या ऐसे अपराधो के पीछे की सोच को समझना और उस सोच पर आक्रमण करना हम सब के लिए नामुमकिन है? 

क्यों नहीं रुक रहा महिलाओं पर हिंसा

दिल्ली गैंगरेप मामले में (साल 2012) के उपरांत जब एक क्रांति की आवाज उठी थी और अपराधियों को सज़ा मिली थी तब शायद यह क्रूर समाज अत्यंत आश्वस्त हो उठा था कि अब दोबारा हमारे समाज में स्त्रियों के खिलाफ ऐसा घिनौना अपराध ना होगा। हालांकि, यह आश्वासन भी किसी राजनेता की लॉलीपॉप जैसा मीठा और झूठा था, इस बात का प्रमाण सन् 2012 के बाद से अभी तक 3 लाख से भी ज्यादा दर्ज रेप केसेज है। ये केसेज सिर्फ दर्ज अपराधो की संख्या है और ना जाने कितने लाखो महिलाओं के साथ यौन हिंसा हर रोज़ हमारे घरों, मोहल्लों, गांव, नगरों, महानगरों, राज्यों और देशों में होती रहती है इसका आंकड़ा बताना लगभग नामुमकिन है क्योंकि अधिकांश मामलों में हम यूं ही अपने घर की महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को घर के अंदर बने टॉयलेट में फ्लश करके शांति से विचार और संतोष कर बैठते है कि घर की बात और घर की इज्जत घर में ही रहे तो अच्छा है। 

महिलाओं की सुरक्षा उनका मानवाधिकार है

ये जो घर की इज्जत वाला दृष्टिकोण हमारे समाज ने महिलाओं की अस्मिता से जोड़ दिया है, आधे से ज्यादा जिम्मेदारी इस सोच की ही है। महिला सुरक्षा को अधिकार नहीं पर इज्जत और प्रगति का सूचकांक बना के डब्बे में पैक कर दिया गया है। आज जब मणिपुर में हुई हिंसा का चलचित्र सोशल मीडिया पर वायरल हो उठा तो हमारे देश के प्रधामंत्री भी पीड़ा के मारे पूरे 140 करोड़ भारतीयों के शर्मसार होने की बात कर पड़े। यही शर्म अगर किसी ऐसी व्यवस्था में बदल जाए जहा हम अपने समाज के 50% हिस्से के लिए मानवीय मूल्यों को आधार बनाकर उन्हें उनके अधिकार और अधिकारों को सिक्योर करने की आजादी दे तो ज्यादा बेहतर होगा। किसी भी असभ्य और हिंसा युक्त समाज में महिलाओं का इसलिए रेप किया जाता है कि आपका दुश्मन आपकी तथाकथित ‘इज्जत’ पर आपके सामाजिक अस्तित्व पर दाग लगा रहा है। इसलिए मेरा मानना है कि हमें हमारे घर की महिलाओं को हमारी इज्जत का सूचकांक बनाने की सोच को बंद करना होगा। 

पितृसत्तात्मक सोच को बंद करें

भारत के लोकतंत्र होने के नाते हमारी यह मांग करना कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री, देश और अपने राज्य की महिलाओं की सुरक्षा का कड़ा इंतजाम करे, उचित है। हालांकि यह समझना कि इतनी मांग और हमारे माननीय नेताओं के भाषण और संवेदना काफी है, अत्यंत अनुचित होगा। हमे चोट करना होगा इस हिंसा को बढ़ावा देने वाली पितृसत्तात्मक सोच पर, चोट करना होगा हर वो अंक पर जो पुरुषों और महिलाओं के बीच दूरी और अनुचित भेद भाव लाता है। चोट करना होगा ऐसी व्यवस्था पर जिसने पुरुषों को इतना खोखला कर दिया है कि वह अपनी मानसिक खीझ को शांत करने का उपाय महिला पर यान हिंसा समझता है। चोट करना होगा हमारे घरों में उपजे पितृसत्ता के बीज को और फिर बनेगा वो समाज जहां महिला देवियों अर्थात भगवानों को पूजे जाने के लिए और महिला इंसानों को हिंसा सहने के लिए ताउम्र बुत बनकर खड़े रहना ना पड़े। 

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