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आखिर क्यों आदिवासी समाज में बढ़ रहा है लैंगिक भेदभाव?

Gender discrimination against Adivasis

Gender discrimination against Adivasis

सदियों से आदिवासी समाज भले ही आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हुआ है, लेकिन सामाजिक रूप से वह हमेशा सभ्य समाज की परिकल्पना को साकार करता रहा है।  जहां महिलाओं को जीवन के उन सभी क्षेत्रों में आज़ादी मिली हुई है, जिसके लिए आज आधुनिक समाज की महिलाएं संघर्ष कर रही हैं।  आदिवासी समाज कभी लड़के और लड़कियों के बीच भेद नहीं करता रहा है।  वहां लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने का पूरा अधिकार मिलता है।

मध्य भारत विशेषकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड आदिवासी बहुल राज्य माना जाता है।  इन राज्यों में आज भी आदिवासी समाज की महिलाएं पुरुषों से अधिक स्वावलंबी और आत्मनिर्भर मानी जाती हैं।  मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले धार, झाबुआ और अलीराजपुर में लड़कियों को पूरा सम्मान मिलता है।  यहां लड़कियों को कोख में नहीं मारा जाता है।  इन जिलों में आज भी नारी का खास महत्व है, क्योंकि यहां वधु पक्ष को दहेज देने की ज़रूरत नहीं होती है।

लेकिन बदलते समय के साथ अब आदिवासी अंचल में इस तरह के सकारात्मक वातावरण में बदलाव की विषैली बयार चलने लगी है।  अब यहां भी लड़की के जन्म पर माताओं को प्रताड़ित किया जाने लगा है।  इसका ताज़ा उदाहरण मध्यप्रदेश के धार जिला स्थित कुक्षी विकासखंड के खंडलाई गांव में देखने को मिला, जहां पिछले महीने लड़की के जन्म पर एक मां को इतना प्रताड़ित किया गया कि तंग आकर वह अपनी बेटियों को मौत के मुंह में धकेलने को मजबूर हो गई।  आदिवासी समाज की 30 वर्षीय रामकी बाई (परिवर्तित नाम) को दो बेटियों के जन्म देने के बाद से ही उसका पति आए दिन उसके साथ मारपीट करने लगा था।

वह उस पर बेटे को जन्म देने का दबाव बनाने लगा और ऐसा नहीं करने पर दूसरी शादी करने की बात कहने लगा था।  वह न केवल रामकी बाई पर अत्याचार कर रहा था बल्कि मासूम बच्चियों से भी नफरत करता था।  वह लगातार रामकी बाई पर बच्चियों के साथ मर जाने का मानसिक दबाव बनाने लगा।  जिससे तंग आकर एक दिन रामकी बाई ने अपनी दोनों बेटियों के साथ गांव के ही कुएं छलांग लगा दी।  कुएं में पानी पर्याप्त था।  ऐसे में उसकी 5 साल और साढ़े तीन साल की दोनों बेटियों ने कुएं में ही दम तोड़ दिया।  जबकि रामकी बाई ने जैसे-तैसे पाइप पकड़ कर अपना जीवन बचा लिया।

इससे पहले इसी वर्ष अप्रैल माह में भी बेटे जन्म देने के लिए पति और उसके घर वालों की प्रताड़ना से तंग आकर आदिवासी समाज की एक महिला ने अपनी बेटियों के साथ कुएं में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली थी।  सवाल उठता है कि जिस आदिवासी समाज में लड़के और लड़कियों में कोई भेद नहीं किया जाता था, आखिर क्या वजह है कि यह बुराई इस समाज में भी आ गई? इस संबंध में सामाजिक कार्यकर्ता और आदिवासियों के अधिकार के लिए दो दशक से कार्य कर रही श्रद्धा झा बताती हैं कि अब आदिवासी अंचल में भी बेटियों के प्रति मानदंड बदल रहे हैं।  यहां पर भी बेटों की चाह बढ़ती जा रही है।  जिस समाज में कभी भेदभाव नहीं किया जाता था, वहां पर कुछ लोगों की मानसिकता बदलने लगी है।

इसके पीछे एक बड़ा कारण इन क्षेत्रों में लड़कियों के साथ बढ़ती दुष्कर्म की घटनाएं भी हैं। जिससे यह समाज अब लड़कियों को जन्म देने से कतराने लगा है। वहीं दहेज़ जैसी कुरीतियां भी इसका एक कारण बनती जा रही है। इन सब कारणों के चलते वैचारिक रूप से समाज में परिवर्तन का दौर शुरू हो गया है। खंडलाई गांव के सरपंच पर्वत सिंह भी समाज की सोच में आ रहे परिवर्तन को दुखद मानते हैं। वह कहते हैं कि भले ही यह छोटा और विकास में पिछड़ा गांव है। लेकिन यहां पर इस तरह की स्थिति कभी नहीं बनती थी। उन्होंने कहा कि ग्राम पंचायत की बैठकों में इस मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा की जाएगी ताकि भविष्य में इस सोच को पनपने न दिया जाए क्योंकि यदि इस तरह की घटनाएं बढ़ने लगी तो निश्चित रूप से न केवल आदिवासी समाज विकृति हो जाएगा बल्कि बेटियों की जिंदगी के लिए यह एक बड़ा खतरा साबित होगा.

भौगोलिक दृष्टिकोण से विविध धार जिले की कुल ग्रामीण आबादी करीब 15 लाख से अधिक है। भील, भिलाला और पटेलिया समुदायों की बहुलता वाले इस आदिवासी क्षेत्र में सर्वाधिक 45 प्रतिशत भील समुदाय की आबादी है। जबकि भिलाला समुदाय की 35 प्रतिशत वहीं पटेलिया समाज की आबादी 20 प्रतिशत है। इनमें भील और भिलाला आदिवासी समुदाय आर्थिक रूप से बेहद पिछड़े हुए हैं। इन समुदायों में मात्र 49 प्रतिशत साक्षरता की दर है। जिसमें पुरुषों में 42 प्रतिशत जबकि महिलाओं में मात्र 35 प्रतिशत साक्षरता की दर पाई जाती है। यह समुदाय घनी बस्ती से दूर जंगल के करीब रहना पसंद करता है.

यही वजह है कि अनुसूचित जनजाति बहुल इस क्षेत्र में सही अर्थों में विकास नहीं हो पाता है और लोगों को बुनियादी सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। अलग-अलग मैदानी और पहाड़ी क्षेत्र में रहने के कारण संपूर्ण विकास की स्थिति नहीं बनती है। यही कारण है कि स्कूल भी गांव से दूर स्थापित हैं। इसके विपरीत इस क्षेत्र में सामान्य और पिछड़ा वर्ग की करीब 20 प्रतिशत आबादी भी विधमान है। जिनमें साक्षरता की दर 70 से अधिक है। इनका सामाजिक और आर्थिक जीवन भील, भिलाला और पटेलिया आदिवासी समुदाय की तुलना में काफी उन्नत है। यह समुदाय यहां खेती के साथ साथ सफल कारोबारी भी है.

बहरहाल, आम लोग आदिवासी समुदाय को भले ही अशिक्षित और पिछड़ा मानते हों, लेकिन प्रकृति के पूजक और रक्षक यह समुदाय आत्मनिर्भरता के साथ विकसित समाज से कहीं अधिक उन्नत रहा है। जहां बेटी पैदा होने पर मातम नहीं मनाया जाता है। समाज में लड़के और लड़कियों के बीच कोई विभेद नहीं होता था। ऐसे में इस समाज में भी विभेद की इस मानसिकता का पनपना न केवल दुखद है बल्कि आगामी भविष्य के किसी गंभीर खतरे की ओर इशारा कर रही है.

यह आलेख धार, मप्र से स्वतंत्र पत्रकार प्रेम विजय ने चरखा फीचर के लिए लिखा है

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