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“प्रिय दक्षिणवासियों, बिहारी महज चोर और अपराधी नहीं होते!”

Bihari waiting to board train

आज़ादी के 75 वर्षों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी क्षेत्र के आधार पर भेदभाव एक चिंताजनक विषय है जो इस देश के अखण्डता के लिए कदापि सही नहीं है । यह सही है कि भेदभाव के लिए कई तर्क और कुतर्क का सहारा लिया जाता है और भेदभाव को सही साबित किया जाता है लेकिन इसका दीर्घकालीन दुष्प्रभाव देखने को मिलेगा जो इस देश की संप्रभुता के लिए सही नहीं है।

दानापुर से सिकंदराबाद जंक्शन तक

बिहार की राजधानी पटना में एक स्टेशन है जिसका नाम दानापुर स्टेशन है जो पटना जंक्शन की विस्तारित स्टेशन है जहां से सम्पूर्ण भारत के लिए ट्रेन उपलब्ध है। मेरी यात्रा प्रारंभ हुई 2 जुलाई 2023 को जो 3 जुलाई को सिकंदराबाद में जाकर सम्पन्न हुई। लेकिन इस यात्रा के दौरान जो घटनाएं घटित हुई वह वाकई झकझोर देनी वाली थी। कारण इसमें पलायन, बेरोजगारी, संवेदनहीनता, रेलवे की लूट, रेलवे नियमावली की अनदेखी, यात्री सुविधाओं का घोर अभाव, यात्री सुरक्षा का घोर अभाव, बेबसी, मानवाधिकार का हनन इत्यादि देखने को मिला।

जब ट्रेन वाराणसी पहुंची

बिहार के दानापुर से ट्रेन जब खुली तो नेक्स्ट स्टेशन आरा और उसके बाद बक्सर पहुंची, इन स्टेशनों पर बिहारी प्रवासी मज़दूरों की भारी संख्या इस ट्रेन बिना रिजर्वेशन के ट्रेन में चढ़ गए क्योंकि यह मज़दूर बिना तय किये हुए ही रोजगार के लिए पलायन कर रहे थे । इससे जनरल डब्बे के साथ साथ स्लीपर क्लास में भी पैर रखने तक की जगह नहीं बची। इसके बाद रेलवे टीटीई की चांदी हो गई वह बिहारी मज़दूरों को जानवरों की तरह ट्रीट करना प्रारंभ किया औऱ किसी को 500₹ तो किसी को 1000₹ तो किसी को 1500₹ का फाइन वसूलना प्रारंभ कर दिया जिससे बिहारी मज़दूरों के बेबसी पर तरस आ रहा था। इनके मानवाधिकार का हनन हो रहा था। साथ में यात्री सुविधाओं का घोर अभाव और स्वच्छता का मज़ाक उड़ रहा था।

बिहारियों के प्रति भेदभाव का व्यवहार

जब ट्रेन वाराणसी पहुंचा तो उसमें दक्षिण भारत के राज्य तेलंगाना तथा आंध्र प्रदेश(सीमांध्र) के निवासी काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन के उपरांत वह लौट रहे थे जो इसी ट्रेन में सवार होकर आने के लिए रेल के बोगी में सवार हो गए। लेकिन उनका व्यवहार बिहारी मज़दूरों के प्रति दोयम दर्जे के साथ नकारात्मक विचारों से प्रभावित था। मसलन उनके आसपास कोई भी प्रवासी मज़दूर बैठ नहीं सकता है क्योंकि बिहार के लोग चोर और अपराधी प्रवृत्ति के होते हैं। वेटिंग टिकट या फाइन लगा हुआ टिकट के साथ प्रवासी बिहारी मज़दूर उनके लिए बाधक है। अगर कोई बिहारी प्रवासी मज़दूर बैठ भी जाएं तो उन्हें दक्षिण भारतीय लोग उन्हें तिरस्कार करके उठा देते हैं और लाइट को पूरा रात जलाकर रखते हैं ताकि उनके आसपास कोई बिहारी प्रवासी मज़दूर आकर बैठ न जाएं।

क्या है बिहार के प्रवासी मज़दूरों की समस्या

बिहार के प्रवासी मज़दूर तय करके रोजगार के लिए नहीं निकलते हैं उनकी इच्छा अपने घर और परिवार से बिछड़ने का दर्द सताता है और वह यात्रा को नकारता है लेकिन जब पेट में भूख की ज्वाला फूटती है तब उन्हें विवश होना पड़ता है पलायन करने के लिए। प्रवासी मज़दूरों को अपने गृह राज्य बिहार में रोजगार के कोई साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण ही इतनी बड़ी संख्या में लोग अन्य राज्यों में पलायन करने पर विवश हैं लोग। उसके बाद जब आर्थिक स्थिति जवाब दे देती है तब वह निकल पड़ता है रोजीरोटी की तलाश में अन्य राज्यों में जहां कमतोड़ मेहनत के बाद दो जून की रोटी अपने औऱ अपने परिवार के लिए जोड़ पाता है। इस हड़बड़ी में टिकट लेने में विलंब कर देता है जिससे उन्हें वेटिंग टिकट ही मिल पाता है और नतीजा उन्हें रेल में कई तरह की परेशानियों को झेलना पड़ता है ।

क्या है दक्षिण भारत के लोगों की समस्या

आज़ादी के बाद से ही उत्तर भारत के लोगों के प्रति एक पूर्वाग्रह बनता गया कि उधर के लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं और असंस्कारी होते हैं। मूल्यविहीन होते हैं और दक्षिण भारत के लोगों से घृणा करते हैं इत्यादि जो शतप्रतिशत मिथ्या है। तेलंगाना राज्य तथा आंध्र प्रदेश के लोग काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन के लिए प्रायः वाराणसी आते हैं जब भी ट्रेन से सफ़र करते हैं तो उन्हें बिहार के प्रवासी मज़दूरों से संवेदना समाप्त हो जाती है।

भाषा भी बाधक बन गई है

दक्षिण भारत के वासियों की अपनी क्षेत्रीय भाषा है जिसमें तेलगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम इत्यादि भाषा प्रमुख है तो वही बिहारी प्रवासी मज़दूरों की भाषाओं में भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मगही, सुरजापूरी भाषा प्रमुख हैं। लेकिन जब अन्य राज्यों के लोगों से संवाद करते हैं तो वह हिंदी उच्चारण करते हैं जिससे दो राज्यों के लोगों के बीच परस्पर वार्तालाप संभव न होने के कारण भी दूरियां और अविश्वास की स्थिति उत्पन्न होती है।

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