सदियों से सामाजिक अवधारणाओं के आधार पर जेंडर के आधार पर मानक तय किये जाते रहे हैं। ये मानक पितृसत्ता के ढाँचे द्वारा महिलाओं के ऊपर अक्सर थोपे जाते रहे हैं। ऐसे में महिलाओं के पास उन्हें मानने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता है। सुंदरता के मानक भी कुछ ऐसे ही हैं । खासकर कि औरतों के लिए। आज हम बात करेंगे कुछ ऐसी ही रूढ़ियों और मान्यताओं की जिन्होंने औरतों के सामाजिकीकरण का हिस्सा ही ऐसी प्रथाओं को बना दिया था, जिनसे उनकी ‘सुंदरता’ वे खुद नहीं बल्कि समाज तय किया करते थे। सुंदरता के ये मानक कभी वज़न के लिए होते थे तो कभी त्वचा के रंग के लिए तो कभी शरीर के किसी अंग के लिए।पर होते उन्हीं ‘नज़रों ‘के अनुसार थे जो पुरुषों की थी।
आकर्षक बनाने के लिए ‘मोटा’ बनाना
सदियों से उत्तरी अफ्रीका के मॉरिटानिया में लड़कियों को उनके भावी पतियों के लिए आकर्षक बनाने के लिए ज़बरदस्ती मोटा करने वाली हाई कैलोरी डाइट्स खिलायीं जाती रही हैं ।आम तौर पर सूखाक्षेत्र होने के कारण छरहरे की बजाय थोड़ी मोटी लड़कियों को वहां अधिक प्राथमिकता और पूछ दी जाती है ।छह साल तक की बच्चियों को भी मोटा करने वाले ऐसे कैम्प्स में भेजा जाता है जहाँ ज़बरदस्ती उन्हें हज़ारों लीटर दूध वगैरह पिलाया जाता था। भले ही वे बीमार हो जाएँ। हालाँकि अब यह प्रथा शहरी इलाकों में कम हुई है पर ग्रामीण इलाकों में यह अभी भी मौजूद है। और अब मोटा होने के लिए लड़कियों को हॉर्मोन्स और स्टीरॉइड्स तक लेने पड़ रहे हैं।
टेपवर्म डाइट
अधिक वज़न को आकर्षक मानने की अफ्रीका की उक्त परंपरा के विपरीत विक्टोरियन काल में महिलाएं खुद को छरहरा रखने के लिए टेपवोर्म सिस्ट की गोलियां लेती थीं ।मूल बात यह थी कि ये कीड़े पेट में अतिरिक्त कैलोरी खींचकर खुद पनपते थे और महिला का वज़न नहीं बढ़ता था।साथ ही वे ऐसे में मन भर के जो चाहे खा सकती थीं ।पर यह बेहद खतरनाक तरीका था ।यहाँ तक कि मानक वज़न को पा लेने के बाद इन टेपवर्म्स को बाहर निकालने की प्रक्रिया में भी महिलाएं अपनी जान गँवा देती थीं ।ये टेपवॉर्म के एग्स दिमाग, नर्वस सिस्टम , डाइजेस्टिव सिस्टम आदि को असामान्य रूप से प्रभावित भी करते थे ।पर महिलाएं इसे समाज द्वारा माने जाने वाले सुंदरता के मानकों के लिए एक कुर्बानी या समायोजन के तौर पर देखती थीं।
नेक रिंग
म्यांमार और थाईलैंड के कयान जन जाति में लम्बी गर्दन वाली महिलाओं को आकर्षक माना जाता है ।तो इसके लिए बच्चियां और महिलाएं गले में धातु की कड़ी रिंग पहनती हैं ।यह प्रक्रिया दो से पांच साल की बच्चियों से शुरू हो जाती है क्यूंकि तब कॉलर बोन को डिफ़ॉर्म करना बहुत आसान होता है ।धीरे धीर रिंग की लम्बाई को बढ़ाया जाता है ।विकल्प के तौर पर जब बारह साल के आस पास लडकियां लड़कों को आकर्षित करना शुरू करती हैं (ऐसा माना जाता है ) तब अगर यह प्रक्रिया की जाए तो बेहद तकलीफदेह होती है । इससे ऐसा माना जाता है कि गर्दन लम्बी हो जाती है ।ये रिंग्स बीस घुमावदार टर्न्स भी हो सकती हैं और इनका वज़न पांच किलोग्राम तक हो सकता है । ये तकलीफदेह प्रथा असल में गर्दन को सुंदर नहीं बनाती। सिर्फ ऐसा सिर्फ आभास देती हैं ।
फुट बाइंडिंग
यह चीन की वह प्रथा थी जिसमें किशोरियों के पैरों को ‘लोटस फ़ीट ‘आकार में बदलने के लिए कसकर बाँधा और तोड़ा जाता था ।ऐसा माना जाता है कि यह दसवीं सदी के चीनी दरबारों में नर्तकियों के समय से शुरू हुआ था ।यह प्रथा महिलाओं की सुंदरता के साथ साथ उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ भी जुड़ी थी।पहले यह सिर्फ शाही क्षेत्रों में थी पर सत्रहवीं सदी में यह निचले वर्गों तक भी पहुँच गयी ।लगभग बीसवीं सदी में जाकर इस प्रथा पर कानूनन रोक लगायी गयी ।हालाँकि 2007 तक भी कुछ बूढी महिलाओं के लोटस आकार के पैर आप चीन में देख सकते थे। इस प्रथा की प्रक्रिया तो तकलीफदेह थी ही पर इसके कारण महिलाओं को चलने फिरने में दिक्कतों का सामना भी करना पड़ता था और विकलांगता का सामना करना पड़ता था ।
लिप प्लेटिंग
एथियोपिआ की मुर्सी और सुरमा जनजाति की महिलाओं के होठों को लकड़ी या क्ले मिटटी की गोलाकार डिस्क से बंद कर दिया जाता है क्योंकि यह महिला सौंदर्य और स्टेटस का सूचक माना जाता है। इसमें लड़कियों के प्यूबर्टी से शुरू करके लगातार बड़ी होती आकार की डिस्क को उनके निचले या ऊपरी होठों से जोड़ दिया जाता है। ऐसा मानते हैं है कि जिसकी जितनी बड़ी लिप प्लेट होगी उसको उतना दहेज़ मिलेगा!
लाइज़ोल का इस्तेमाल
मध्य बीसवीं सदी के दशकों में के दौरान कुछ विज्ञापनों के ज़रिये एक एक प्रचलन चला था कि औरतों को यह बताया जाता था कि उनकी शादियां टूट सकती हैं या टूट रही हैं ।और इसकी वजह उनके अपने यौनांगों को साफ़ रखना नहीं है ।इसके लिए लाइज़ोल जो आज टॉयलेट साफ़ करने के काम आता है वह इस्तेमाल करना होगा ।इन विज्ञापनों में यह बताया जाता था कि चाहे महिला के अंदर कितने भी अच्छे गुण हों और वह कितनी भी परफेक्ट पत्नी क्यों न हों , उसकी एक ‘गलती ‘ उसे अपने पति के लिए यौन रूप से अनाकर्षक बना देती है ।तो महिलाएं सालों तक लाइज़ोल जो एक ताक़तवर रसायन है कीटाणु मारने का , उसे इस्तेमाल करके अपने वैजाइना को दुष्प्रभावित करती रही हैं ।क्यूंकि इससे स्वतः वजाइना में पाए जाने वाले अच्छे बैक्टेरिया भी मर जाते थे ।
त्वचा को गोरा करने वाले रसायन
प्राचीन ग्रीस और रोम में त्वचा के गोरेपन को महिलाओं की सुंदरता से जोड़के जाता था ।विक्टोरियन काल में भी यह माना जाता था ।हालाँकि यह मानसिकता आज भी मौजूद है और इसके लिए औरतें तरह तरह के उपाय करती हैं। सफ़ेद सीसा और मरकरी वाले इन रासायनिक तत्वों के कारण अंततः त्वचा क्षरित हो जाती थी ।दरअसल श्रमिक वर्ग की औरतें बाहर काम करने के कारण त्वचा को धूप और मौसम की मार से नहीं बचा पाती थीं। इसीलिये महारानी विक्टोरिया और अन्य शाही व ऊंचे तबके की औरतें अपने स्टेटस को बनाये रखने के लिए त्वचा को गोरा करने वाले इन एजेंट्स का इस्तेमाल करती थीं ।
सौंदर्य सामाजिक नहीं व्यक्तिगत मामला
हालाँकि औपनिवेशवाद के कारण यह मानसिकता और इस तरह के रसायनों का इस्तेमाल लगभग पूरे विश्व में ही फ़ैलता गया और आज भी इसके लिए हम बात कर रहे हैं। शरीर और चेहरे की सुंदरता अलग अलग प्रकार की हो सकती है यह आज मानने की जरूरत हो रही है। भारत में फेयर एंड लवली के ग्लो एंड लवली बन जाने मात्र से सिर्फ यह सोच नहीं बदलेगी कि शारीरिक सुंदरता की परिभाषा महिला की अपनी होनी चाहिए ।और यह अवैज्ञानिक और अतार्किक तो बिलकुल भी नहीं होनी चाहिए । सुंदरता व्यक्ति के चरित्र और उसके काम में होनी चाहिए और खुद को शारीरिक सुन्दर बनाने के ये तरीके सामजिक रूप से थोपे ना जाएँ ।