विकसित होने की होड़ में, हम किस कदर प्रकृति से छेड़छाड़ कर उसका अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। अब सचेत नहीं हुए क्लाइमेंट चेंज के प्रति तो कब? क्लाइमेंट चेंज होने के कई कारण हैं। इंसानों के द्वारा प्राकृतिक नियमों से छेड़छाड़, प्राकृतिक नियमों को अनदेखा कर, लूट की बुनियाद पर आधुनिक विकास। उनमें से पश्चिमी विक्षोभ, बढ़ते प्रदूषण, शहरीकरण, पर्यावरण से निरंतर छेड़छाड़ ,देश के अधिकांश शहर में ‘गैस चैंबर’ का इस्तेमाल, फिर कई शहरों में किसानों के द्वारा पराली का जलाए जाना अहम है।
गैस चेंबर प्रदूषण की बड़ी वजह
देश के अधिकांश शहर गैस चैंबर का इस्तेमाल करते हैं। इसके कारण छोटे-बड़े शहरों की हवा दूषित होती है। इन दिनों कहीं ना कहीं पराली जलाए जाने की खबरें सुनाई और दिखाई देती है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम जानने समझने के बाद भी पराली जलाए जैसी घटना को अंजाम देते हैं। इसके जलाए जाने से आबोहवा में जहर घुल जाता है, जो कि इंसान और जानवरों के लिए खतरनाक है।
हर साल अक्टूबर और नवंबर माह में उत्तर भारत के शहरों में जैसे कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, और उत्तर प्रदेश में किसानों द्वारा विशेषकर धान के फसल की कटाई के बाद उसके अवशेषों (पराली) को जलाए जाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नई फसल की जल्द बुवाई करने के चक्कर में किसान पराली को अपने खेतों में ही जला देते हैं। हमारे किसान इस बात से अंजान रहते हैं कि एक और जहां पर्यावरण में जहर फैल रहा होता है। वही खेतों में मौजूद भूमिगत कृषि मित्र कीट तथा सूक्ष्म जीवों के मरने से मृदा की उर्वरता घटती है। पराली जलाने से वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड कार्बन मोनो ऑक्साइड और मीथेन आदि विषैली गैसों की मात्रा बहुत अधिक बढ जाती है।पराली का बहुतायत में जलाया जाना भी क्लाइमेंट चेंज होने के प्रमुख वजहों में से एक वजह है।
क्लाइमेट चेंज पर आप की क्या जिम्मेदारी है
बहरहाल जो परिस्थितियां क्लाइमेंट चेंज को लेकर अभी है इसको लेकर चिंता सभी को है। पर ना तो कोई इसके लिए पौधा लगाना चाहता है और ना ही अपनी धुआं उत्सर्जन करने वाली गाड़ी की जगह सार्वजनिक बसों का प्रयोग करना और ना ही उसके स्थान पर साइकिल की सवारी को महत्व देना चाहता है। तथ्य से आँख फेरा जा सकता है लेकिन परिणाम भोगने से नहीं।
चरम आपदा के कारण जा रही हैं जानें
लेखक मंजीत ठाकुर सर आपने फेसबुक पोस्ट में जलवायु परिवर्तन के कारणों, आंकड़ों, खबरों पर बात करते हुए अपनी चिंता जाहिर कर लिखते हैं कि मौसम में चरम आपदाओं की घटनाओं ने पिछले पांच दशकों में भारत में करीब डेढ़ लाख लोगों की जान ले ली है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने पिछले 51 वर्षों का आंकड़ा जारी किया है और बताया है कि 1970 से 2021 के बीच भारत में जलवायु से जुड़ी 573 चरम आपदाएं जैसे बाढ़, सूखा, तूफान, लू, भीषण गर्मी, भूस्खलन और दावाग्नि की वजह से 138,377 लोगों ने अपनी जान गंवाई है।
क्लाइमेंट चेंज होने की वजह पर अगर हम बात करते हैं तो ऐसे में सवाल उठता है कि धरती पर जीवन के अनुकूल परिस्थितियों के लिए आखिर हमने छोड़ा क्या? डब्ल्यूएमओ यह जानकारी हर चार वर्षों में होने वाली विश्व मौसम विज्ञान संगठन में जारी करता है। डब्ल्यूएमओ का कहना है कि जलवायु में आते बदलावों और वैश्विक तापमान में होती वृद्धि के चलते यह चरम मौसमी घटनाएं कहीं ज्यादा प्रबल हो चुकी हैं। हालांकि, चेतावनी प्रणालियों के बेहतर होने से जानमाल की हानि को कम करने में मदद मिली है। इन आपदाओं में करीब 90 फीसदी मौतें विकासशील देशों में हुई है, जो स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि ऐसे देश इन आपदाओं के लिए तैयार नहीं हैं। इतना ही नहीं इन जलवायु आपदाओं से हुए नुकसान का करीब 60 फीसदी भी इन कमजोर देशों को ही वहन करना पड़ा है।
विकास के नाम पर हम कहां बढ़ रहे हैं
विकासशील देश विकसित होने की होड़ में इस कदर लगे हैं कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन हो रहा है। हमारे स्वार्थी कर्मों का ही यह नतीजा है कि हवा जल भूमि तथा भोजन सभी प्रदूषित हो रहे हैं। कई वजहों में यह भी है कि पौधे हम लगाना नहीं चाहते और जो लगे हैं उसे कथित विकास के नाम पर काटे जा रहे हैं। ऐसे में हमें धरती पर जीने का कोई नैतिक हक नहीं बनता। हम आज भी क्लाइमेट चेंज के प्रति गंभीर नहीं हैं ना ही सजग। हमें इसके प्रति अपनी सजगता दिखानी होगी।