बच्चों का लालन-पालन करना कोई आसान काम नहीं है। उस पर से बच्चा अगर किसी असाध्य शारीरिक, मानसिक या आनुवांशिक समस्या, जैसे कि डायबीटिज से ग्रसित हो, तब तो उसके माता-पिता सहित उसके आसपास रहनेवाले अन्य सभी लोगों की भी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे उसे एक ऐसा स्वस्थ और खुशनुमा वातावरण प्रदान करें, जिसमें रह कर वह खुद को एक सामान्य बच्चा ही समझे, पर अफसोस कि ज्यादातर मामलों में ऐसा होता नहीं है। हमें जैसे ही पता चलता है कि फलां बच्चा फलां बीमारी या समस्या से ग्रस्त है, हम उसे दया दृष्टि से देखने लगते हैं. उसके प्रति सांत्वना जताना शुरू कर देते हैं। उसके मुंह पर ही कहने लगते हैं कि ”अरे, देखो तो बेचारी/बेचारा के साथ कितना बुरा हुआ। इतनी छोटी-सी उम्र में ही इसे ऐसी तकलीफ झेलनी पड़ रही है.” ऐसी बातों से उसके आत्मविश्वास को ठेस लग सकती है और वह खुद को भीड़ से अलग पा सकता है, इसलिए बंद करें ऐसा रोना-धोना। ऐसे बच्चों को दया की नहीं, बल्कि आपके-हमारे सपोर्ट और थोड़े से एक्सट्रा केयर की जरूरत होती है। फिर तो ये बच्चे भी अन्य बच्चों की तरह जीवन की ऊंचाइयों को हासिल कर सकते हैं।
बच्चों में दो डायबीटिज मुख्यत दो तरह का
टाइप-1 डायबीटिज
इसे जुवेनाइल डायबिटीज (juvenile diabetes) भी कहते हैं। यह किसी बच्चे के शरीर की एक ऑटोइम्यून नन-क्यूरेबल अवस्था है, जिसमें बच्चे के शरीर में मौजूद इम्यून सेल्स उसके पैंनक्रियाज़ यानि अग्नाशय में बीटा सेल्स को नुकसान पहुंचाता हैं। इसकी वजह से पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन नहीं बन पाता। बता दें कि बीटा सेल्स ही इंसान के शरीर में इंसुलिन हार्मोन्स का निर्माण करती हैं। जब शरीर में इंसुलिन का उत्पादन कम मात्रा में होता है तो शरीर रक्त में मौजूद ग्लूकोज़ से शक्ति प्राप्त नहीं कर पाता, जिससे रक्त और यूरीन में ग्लूकोज का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है। दो तरह का होता है टाइप-1 डायबीटिज-
हाइपोग्लाईसेमिया : – टाइप-1 डायबीटिज की सबसे सामान्य इमरजेंसी होती है- हाइपोग्लाइसेमिया यानी शरीर में शर्करा की मात्रा तेजी से कम होना। रक्त में 70 मिलीग्राम प्रति डेका लीटर (mgdl) शर्करा की मात्रा में निम्न ब्लड शूगर का द्योतक है और एक बार इस बात की जानकारी होते ही अभिभावकों को चाहिए कि वह हमेशा अपने बच्चे के लिए ‘आपातकालीन भोजन’ के रूप में संतरे का जूस, शूगर कैंडी, ग्लूकोज पाउडर या ड्रिंक, ग्लूकोज जेल टेबलेट या उच्च शर्करा वाले फलों जैसे कि अंगूर, अनार आदि को स्टोर करके रखें। जरूरत पड़ने पर उसे बच्चे को देकर 15 मिनट बाद उसका ब्लड टेस्ट करें। ऐसी स्थिति में अगर बच्चा अपनी चेतना खोने लगे या उसे बेहोशी छाने लगे, तो जितनी जल्दी हो, उसे ग्लूकागॉन हॉरमोन का इंजेक्शन लगाना चाहिए। ऐसा नहीं होने पर टाइप-1 डायबीटिज से प्रभावित बच्चों या वयस्कों की संज्ञानात्मक क्षमता प्रभावित हो सकती है।
हाइपरग्लाइसेमिया : बच्चे द्वारा भोजन करने के दो घंटे बाद भी यदि उसका ब्लड शूगर लेवल में 200 mgdl रहे, तो उसे हाइपरग्लाइसेमिया या हाई ब्लड शूगर की स्थिति कहा जाता है। ऐसी स्थिति में बच्चों को अधिक शारीरिक श्रम वाले कार्य (खेलकूद, धमाचौकड़ी) नहीं करने देना चाहिए।
टाइप-2 डायबिटीज़
यह एक लाइफस्टाइल डिज़ीज़ है, जिसमें इंसुलिन की कमी या इंसुलिन प्रतिरोध की वजह से ब्लड शुगर का स्तर ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ने लगता है।। इस स्थिति में शरीर अग्न्याशय द्वारा उत्पादित इंसुलिन का ठीक से उपयोग करने में विफल रहता है। इंसुलिन का ठीक से उपयोग करने में असमर्थता के कारण रक्त में शर्करा जमने लगता है, जो मधुमेह का कारण बनता है और इसके बाद कई अन्य स्वास्थ्य समस्याएं जैसे उच्च रक्तचाप या तंत्रिका क्षति जैसी दिक्कतें शुरू हो जाती हैं। बच्चों में टाइप-2 डायबीटिज का एक बड़ा कारण मोटापा, जंकफूड, जेनेटिक, प्रेग्नेंसी और आलस्य है।
कांची कामाकोटी चाइल्ड ट्रस्ट हॉस्पिटल, चेन्नई के सीनियर कंसल्टेंट डॉ के।जी। रविकुमार के अनुसार- दुनिया भर में टाइप-1 डायबीटिज से ग्रस्त सबसे ज्यादा बच्चे भारत में हैं। यहां 0-19 वर्ष की आयु समूह के करीब 2।4 लाख बच्चों सहित कुल 8।75 लोग टाइप-1 डायबीटिज से ग्रस्त हैं। मोटे तौर पर मानें, तो यह आंकड़ा प्रति एक लाख व्यक्तियों में से 10 व्यक्तियों का है।
बच्चों में डायबीटिज को लेकर ज्यादातर लोगों के मन में कई तरह की भ्रांतियां होती है, खास तौर से टाइप-1 डायबीटिज के बारे में। इन्हीं भ्रांतियों के संदर्भ में मैं आपको निम्नलिखित कुछ बातें बताना चाहती हूं :
टाइप-1 डायबीटिज वाले बच्चे भी खेल-कूद सकते हैं
यह एक कटु सत्य है कि डाइबीटिज से प्रभावित बच्चों के साथ दुनिया भर में भेदभाव होता है। दरअसल इसकी एक बड़ी वजह इस बीमारी के प्रति लोगों में पर्याप्त जागरूकता का अभाव होना है। ऐसे बच्चों को उनके डायबीटिक होने की वजह से उन्हें स्कूल, स्पोर्ट्स या अन्य सोशल एक्टिबिटिज से दूर रखना बिल्कुल ही बेमानी है। आपको बता दें कि टाइप-1 डायबीटिज बच्चे वे सब कर सकते हैं, जो एक्टिव पैंक्रियाज वाले बच्चे कर सकते हैं। उन्हें बस थोड़े से एक्सट्रा केयर और कंसर्न की जरूरत होती है। उनके ब्लड शूगर लेवल को समय-समय पर चेक करते रहना पड़ना है। साथ ही, इसके संबंध में पर्याप्त आवश्यक जानकारी रखने की जरूरत है कि इमरजेंसी की स्थिति में उन्हें किस तरह से ट्रीट किया जाये। बाकी उनके साथ इमरजेंसी की स्थिति तभी हो सकती है, जैसे कि आम बच्चों का ध्यान न रखने पर उनके साथ होती है।
डायबीटिक बच्चों से भेदभाव उनके बाल अधिकारों का हनन है
इंपीरियल कॉलेज ऑफ लंदन डायबीटिज सेंटर की पेड्रियाट्रिक एंडोक्राइनोलॉजिस्ट डॉ। अमानी उस्मान, जिन्हें ऐसे कई बच्चों की इलाज का अनुभव प्राप्त है, मानती हैं कि प्रत्येक बच्चे का यह हक है कि उसके स्कूल में उसके साथ अच्छा व्यवहार किया जाये। वह कहती हैं- ”किसी भी डायबीटिक बच्चे को मात्र उसकी आंतरिक शारीरिक स्थिति की वजह से एक सामान्य जीवन जीने, खेलकूद, मस्ती या यात्राओं से दूर रखने या उसे उसके मनपसंद भोजन से वंचित कर देना पूरी तरह से उसके अधिकारों का हनन है। पर्याप्त सावधानियों सहित डायबीटिक बच्चे भी वो सब कर सकने में सक्षम हैं, जो अन्य बच्चे कर सकते हैं।” हमारे यहां कई सारे सेलेब्रिटिज भी टाइप-1 डायबीटिज से ग्रस्त हैं, लेकिन वर्तमान में उनके अचीवमेंट्स और परफॉर्मेंस को देख कर शायद ही किसी को इस बात पर यकीन हो। जैसे कि- बॉलीवुड अभिनेत्री सोनम कपूर, अभिनेता कमल हासन, क्रिकेट खिलाड़ी अनिल कुंबले,
कैसे कर सकते हैं डायबीटिज का बेहतर प्रबंधन
अभिभावकों को अपने बच्चे के प्रति ईमानदार होना चाहिए और उनकी स्थिति को उनके स्कूल और दोस्तों से छिपाना नहीं चाहिए, ताकि उनको सही समय पर मदद मिल सके। इसके साथ ही-
· अभिभावकों को चाहिए कि स्कूल जानेवाले बच्चों के लिए एक स्पेशल मेडिकल किट तैयार करके उसके स्कूल में रखवाएं, जिसमें ग्लूकोज टेस्टिंग किट, इंसुलिन वायल, सिरींज आदि रखे हों। आमतौर पर ऐसे बच्चों के शरीर में डॉक्टर एक स्वचालित ग्लूकोज पंप अटैच कर देते हैं, जिसमें समय-समय पर आवश्यकतानुसार इंसुलिन को भरना होता है। इसके लिए आप चाहें, तो किसी प्रशिक्षित नर्स की सहायता ले सकते हैं या फिर स्कूल प्रबंधन को इसके लिए अनुरोध कर सकते हैं।
· टाइप-1 डायबीटिक एक बच्चे को दिन भर में तीन बार के प्रमुख भोजन (ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर) से पहले इंसुलिन डोज लेने की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा, शारीरिक रूप से सक्रिय डायबीटिक बच्चो को 05-15 ग्राम से आसपास कार्बोहाइड्रेट की मात्रा वाले कोई भी स्नैक लेने पर उसे इंसुलिन लेने की जरूरत नहीं होती है,लेकिन जो बच्चे बहुत ज्यादा एक्टिव न हों, उन्हें किसी भी कार्बोहाइड्रेट युक्त किसी भी तरह के भोज्य पदार्थ का सेवन करने से पहले इंसुलिन डोज लेने की जरूरत होती है।
· कभी-कभी हाइपर एक्टिव बच्चों का ब्लड शूगर लेवल अचानक से इतना कम हो जाता है कि वे अपनी चेतना खोने लगते हैं। ऐसी स्थिति से बचने के लिए उनकी देखभाल करनेवाले व्यक्ति को इंट्रा-मस्कुलर ग्लूकागॉन इंजेक्शन देने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जिससे कि उनके शरीर में इंसुलिन का प्रवाह नियमित हो सके।
· टाइप-1 डायबीटिक बच्चों को और उनके आसपास के वातावरण को बेहद साफ-सुथरा रखने की जरूरत होती है अन्यथा उन्हें इंफेक्शन का खतरा रहता है। साथ ही, उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा इंडोर गेम्स में बिजी रखने की भी जरूरत है, ताकि वे बाहरी प्रदूषण से बचे रहें।
· टाइप-1 डायबीटिक बच्चों को मौसमी फ्लू से बचाये रखना भी जरूरी है। इसके लिए उन्हें वैक्सीन दिलाना चाहिए, अन्यथा कई बार उनकी छोटी-सी बीमारी भी गंभीर रूप धारण कर सकती है। ऐसे बच्चों का प्रति तीन महीने पर HbA1C टेस्ट करवाना चाहिए। साथ ही, साल में एक बार किडनी टेस्ट, कॉलेस्ट्रॉल टेस्ट, थॉयराइड टेस्ट तथा आंखों का टेस्ट भी नियमित रूप से कराते रहना चाहिए।
· ऐसे बच्चों को घर या स्कूल में नियमित रूप से शारीरिक क्रियाकलापों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि उनका बॉडी वेट संतुलित रहे। छह साल या उससे अधिक के बच्चों में मोटापा या औसत से अधिक शारीरिक भार आजकल डायबीटिज का बहुत बड़ा कारण बनता जा रहा है।
· डायबीटिक बच्चों के खानपान पर विशेष नजर रखने की जरूरत होती है। कोशिश रहे कि वे हमेशा संतुलित आहार का सेवन करें, जिसमें कार्बोहाइड्रेट तथा साबुत अनाज की मात्रा अधिक हो और प्रोसेस्ड फूड तथा मीठे की मात्रा नाममात्र की हो।
· किशोर डायबीटिक बच्चों के मामले में उनके स्कूल/कॉलेज को अधिक संवेदनशील होने की जरूरत है, ताकि उनके साथ किसी भी तरह का भेदभाव न होने पाये अन्यथा इसका दीर्घजीवी प्रभाव उनके परफॉमेंस पर पड़ सकता है और वे डिप्रेशन का शिकार हो सकते हैं।