पिछले साल की बात है कई दोस्तों के साथ ऋषिकेश गया था। सभी लक्ष्मणझुला के पास बैठे भारतीय मीडिया चर्चा कर रहे थे। चर्चा का विषय था, क्या मीडिया झूठ फैलाता है! एक मित्र अतिराष्ट्रवाद और कथित मीडिया के प्रोपगेंडा से संक्रमित था। वह इस बात को कतई मानने को तैयार ही नहीं था कि मीडिया कई मौकों पर झूठ को भी प्रसारित कर देता है।
क्या मीडिया नैरेटिव गढ़ सकता है
चर्चा स्थल से करीब 100 मीटर दूर एक आइसक्रीम वाला खड़ा था। मैंने एक मित्र से कहा, जाओ अपनी गढ़वाली भाषा उससे आइसक्रीम ले लाओ। और हाँ, बाद में उससे ये जरुर पूछना कि आइसक्रीम ठंडी तो है ना? कल एक आइसक्रीम वाले ने मुझे गर्म आइसक्रीम दे थी जिससे मेरा मुंह जल गया था।
वो गया आइसक्रीम ली, बाद में मेरे कहे शब्द दोहराए, आइसक्रीम वाला उसके पागलपन पर मुस्कुराया और बोला, “सर आइक्रीम ठंडी ही होती है।” पांच मिनट बाद दूसरे को भेजा। उसने भी आइक्रीम ली। यही शब्द दोहराए कि आइसक्रीम ठंडी तो है ना? कल एक आइसक्रीम वाले ने गर्म आइसक्रीम दे थी जिससे मुंह जल गया था। लेकिन इस बार आइसक्रीम वाला मुस्कुराया नहीं, बस जवाब दे दिया कि सर आइक्रीम ठंडी ही होती है।
इसी तरह पांच लोग आइक्रीम ले आये। इस दौरान तक़रीबन बीस मिनट में आइसक्रीम वाले का माथा ठनक चुका था। जब अतिराष्ट्रवादी मित्र का नंबर आया, तो वो गया आइसक्रीम ली। और मेरे कहे शब्द दोहराए तो आइसक्रीम वाला गुस्से में बोला, “भाई कई लोगों की शिकायत आ चुकी है, जिसने भी कल यहाँ गर्म आइसक्रीम बेची उसको पकड़ेंगे और दोबारा ऐसा नहीं करने देंगे।”
खबर के बजाय प्रोपगेंडा फैलाता मीडिया
इस पूरे प्रसंग में मैं मित्र को समझाना चाह रहा था कि जब छह लोगों ने एक ही बात को दोहराया तो आइसक्रीम वाले को यकीन हो चला था कि गर्म आइसक्रीम भी होती है। दूसरा इससे मेरा अतिराष्ट्रवादी मित्र भी समझ गया कि अगर अफवाह एकरूपता से फैलाई जाये तो सच मान ली जाती है।
इस एक उदहारण से आप आज की मीडिया से समझ सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का नाम रोशन कर चुकी महिला पहलवान विनेश फोगाट और साक्षी मलिक की भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ शिकायत पर जांच के बाद क्या हुआ, यह अभी तक सामने नहीं आ पाया। लेकिन मीडिया ने हर रोज सूत्र के नाम पर अफवाह फैला देता है। परसों खबर फैलाई गई कि साक्षी मालिक ने आन्दोलन से नाम वापस ले लिया और नाबालिग पीड़ित लड़की ने भी शिकायत वापस ले ली है।
क्या पहलवानों का आंदोलन से नाम हटाने की बात सही
ये खबर एक या दो चैनल पर नहीं बल्कि उन सभी चैनलों पर चलने लगी जिन पर सरकार के नियन्त्रण के आरोप लगते रहते हैं। इसके बाद विनेश फोगाट और साक्षी मालिक ने ट्वीट की तो बजरंग पुनिया ने अपने इंस्टाग्राम पेज पर आकर खबरों का खंडन किया। लोगों को सचेत किया कि मीडिया उनके समर्थकों को निराश करने के लिए जानबुझकर ऐसी झूठी आधारहीन खबर फैला रही है।
कैसे झूठ के सहारे यहूदियों का नरसंहार किया गया
मुझे याद आने लगा जर्मनी का जोसेफ गोएबल्स जो हिटलर का खास आदमी और प्रोपगेंडा मिनिस्टर था। जो कहता था एक झूठ को अगर कई बार दोहराया जाए तो वह सच बन जाता है। इसके लिए उसने जर्मन इंजीनियरों से एक सस्ता रेडियो बनवाया। इसे पूरे जर्मनी में बेचा गया। चौराहों पर स्पीकर लगाए गए। गोएबल्स ने हर एक खबर को प्रोपेगैंडा बनाकर पूरे जर्मनी में फैलाया। आम जर्मन लोगों से कहा गया, पहले यहूदियों के आर्थिक बहिष्कार की खबरें चली फिर कहा गया यहूदी, ये हमें मार डालना चाहते हैं। वो हमारी पूजा भंग करना चाहते है, वो हिटलर को पसंद नहीं करते बस, फिर क्या था! जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार शुरू हो गया। यहूदियों को घरों से निकाल कर सड़कों पर घसीटा गया। दुकानें तोड़ दी गईं। यहूदी पूजाघरों को आग लगा दी गई। हजारों मारे गए, जो बचे, गैस चेंबर में डाल दिए गए। रातों-रात जर्मनी के लोगों के लिए यहूदी उनके सबसे बड़े दुश्मन बन गए।
ये सब इस कारण नहीं हुआ कि वो लोग यहूदियों से नफरत करते थे। नहीं! वो लोग रेडिओ पर प्रसारित खबरों पर विश्वास किया करते थे। उन लोगों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल बंद कर दिया था और जोसेफ गोएबल्स पर विश्वास करना आरम्भ किया लेकिन जर्मनी के लोगों की आँखें तब खुली जब जर्मनी बरबाद हो चूका था।
देश में लोगों तक पहुँच रही गलत खबर
आज इस उदहारण से समझे तो भारत में भी ऐसा ही कुछ होता दिख रहा है। यहाँ रेडियो तो नहीं लगाये बस इंटरनेट डाटा सस्ता करा दिया गया और झूठ को खबरों के साथ मिलाकर फेंक दिया जाता है। एक दो नहीं पचासों पोर्टल और न्यूज़ की हेडलाइन बना दी जाती है। यानि यहाँ तो घर-घर में जोसेफ गोएबल्स बैठ गये तो भारत का क्या होगा अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा।
तालिबान से भी नीचे देश का मीडिया रैंक
किसानों के आन्दोलन में हर एक हफ्ते न्यूज़ आती रही कि फला किसान नेता आंदोलन से हटे। कभी कहा गया कि राकेश टिकेत आन्दोलन स्थल से चले गये। कभी किसान संगठनों में दो फाड़ की खबर आती, कभी किसानों के पाकिस्तान, चीन से सम्बन्ध बताये जाते, कभी खालिस्तान से जोड़ा जाता तो कभी पाकिस्तान से। किसान नेता सामने आते और खबरों का खंडन करते। अंत में भले ही किसान जीत गये, लेकिन इस वर्ष भारतीय मीडिया का विश्व रेंकिंग में 161 स्थान पर आया। जब मैंने भारतीय मीडिया की रेटिंग देखी तो हैरान रह गया कि इस रेंक में तालिबान भी भारत से ऊपर 153 वें स्थान पर है। जहाँ न चुनी हुई सरकार है ना लोकतंत्र है। लेकिन दुनिया के सामने खुद को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने वाला देश ‘मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ का लिहाफ ओढ़े देश की मीडिया उससे कई पायदान नीचे है। इस पर हम शर्म करें या गर्व ?
बाहुबली नेता और मीडिया से कैसे जीतेंगे पहलवान
मुझे नहीं पता खिलाडी अपनी इस जंग को कैसे जीतेंगे! उनके एक तरफ एक बाहुबली नेता है तो दूसरी तरफ बाहुबली मीडिया है। जिन्हें देहाती भाषा में सरकारी लठैत भी कहा जाता है। जिसने झूठी खबरों के लगातार प्रसारण से बहुत बड़े तबके को संक्रमित कर दिया है। जिन्हें न्याय की मांग करती महिला पहलवानों में देशद्रोह तक दिखने लगा और पोक्सो के आरोपी में राष्ट्रवाद। यही नहीं सत्ताधारी पार्टी के एक नेता जनार्दन मिश्रा ने तो अपने ट्वीट में पिछले दिनों खिलाडियों को संबोधित करते हुए पहलवानों के धरने का समर्थन करने आई कांग्रेसी नेता प्रियंका गांधी की तुलना पोर्न स्टार मिया खलीफा से कर दी।
आज अनेक लोग मानते हैं कि महिला पहलवान गलत है। उसका कारण क्या हो सकता है, सिर्फ इतना कि मीडिया के लगातार हमले जो लगातार ये भरोसा दिलाने की फ़िराक में है कि महिला पहलवान ही गलत है कुछ राजनीतिक लोग उनका इस्तेमाल कर रहे है? अब मीडिया के इस खेल को भी समझ लीजिये।
पहलवानों के आंदोलन का इतिहास
जनवरी में जब खिलाड़ी धरने पर आये तो किसी भी राजनीतिक दल को अपने मंच की इजाजत नहीं दी। तब कहा गया इनके साथ कोई नहीं है, ना इन्हें किसी का साथ मिल रहा है। वो आश्वाशन लेकर वापस भी लौटी। जब फिर से दुबारा धरने पर आई और अपना पक्ष मजबूत रखने के लिए समर्थन के लिए उन्होंने लोगों से अपील की तो तब कहा जाने लगा कि ये तो विपक्ष की साजिश है।
तमाम घटनाक्रम में एक बात समझ आई कि कितना मुश्किल भरा है उन महिला पहलवानों का जीवन जो हर रोज उन्हें अपमान के घूंट पीने को मजबूर कर रहा है। एक तरफ कहा जा रहा है कि हिन्दू राष्ट्र बनायेंगे, राम राज लायेंगे। लेकिन दूसरी ओर महिलाओं को लेकर जो तंज कसे जा रहे है वो ये सोचने पर मजबूर करता है कि क्या ऐसा ही राम जी का राज चलता था?
महिला पहलवान होना आसान नहीं
कितना मुश्किल होता है हमारे देश के पितृसत्तामक समाज में एक आम परिवार की लड़की का कुश्ती खेलना! पहले तमाम परिवार और गाँव के तमाम तंज सुनना फिर जिले में, फिर राज्य में। इसके बाद देश में और देश के बाद एशिया में टॉप करके ओलम्पिक तक पहुंचना। वहां पदक जीतना। सोचिये कितना संघर्ष भरा जीवन होता होगा उनका। सोचकर ही उनपर गर्व होता है।
खेल जगत में यौन हिंसा
यहाँ तक भी चलो सहन कर लिया। लेकिन इस के साथ जो असली संघर्ष है वो है यौन उत्पीड़न। 2020 में प्रकाशित द इंडियन एक्सप्रेस की एक इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2010 से 2020 के बीच भारतीय खेल प्राधिकरण के पास यौन शोषण के 45 मामले दर्ज किए गए थे। उन मामलों में से 29 मामलों में खिलाड़ियों ने कोचों के खिलाफ आरोप लगाए थे। कोच के अलावा खेल संघों के प्रशासकों और अधिकारियों पर भी यौन शोषण के आरोप लग चुके हैं।
हालाँकि हमारी मीडिया के अनेकों संस्थान जिनके कारण देश की मीडिया का 161 वां स्थान है उन्हें ऐसे आंकड़ों से कुछ लेना देना नहीं है। लेकिन सवाल रह जाता है कि महिला पहलवानों ने भले ही कुश्ती का अखाड़ा जीत लिया लेकिन मीडिया का अखाड़ा बाकी है क्योंकि यहाँ हर एक उस चीज की दुर्गति है जिसे ‘माँ’ कहकर पुकारा जाता है चाहे गाय हो गंगा या कन्या ही क्यों ना हो।