मेरे दोस्त के दादाजी का निधन हो गया था। अंतिम संस्कार ( तेरहवीं ) की तैयारियां चल रही थीं। परिजनों को बुलाने के वास्ते कार्ड छापे जाने थे। दोस्त के पिताजी ने कार्ड का एक नमूना तैयार कर मुझे अशुद्धियां ठीक करने को दिया। कार्ड में सभी आवश्यक सूचनाएं सही थी लेकिन नीचे शोकाकुल परिवार के सिर्फ पुरुष सदस्यों के नाम थे।
श्राद्ध के कार्ड में क्यों गायब है महिलाएं
उस कार्ड में महिला सदस्यों के नाम नदारद थे। मैंने उनसे जिज्ञासावश पूछा, “चाचाजी, बाकी सब तो ठीक है। लेकिन इसमें चाची व बुआ के नाम छूट गए हैं। आप कहें तो उनके नाम भी जोड़ दूं?” चाचाजी ने मुझे घूरती हुई नजरों से देखा और बोले, “बहुएं दादाजी की संतान नहीं हैं। इसीलिए उनके नाम नहीं दिए जा सकते।”
बहुएं ही नहीं, बेटियाँ भी संतान नहीं
मैंने पूछा, “ठीक है, बहुएं दादाजी की संतान नहीं हैं। लेकिन बुआजी तो दादाजी की ही संतान हैं न। फिर उनका नाम जोड़ दूं?” चाचाजी ने नाराजगी भरे स्वर में कहा, “पुत्रियां संतान की श्रेणी में नहीं आतीं। अतः बुआजी का नाम छापने की कोई जरूरत नहीं है।”
मेरे दिल में एक टीस सी उठी। यह कैसा विधान है? बहुएं दूसरों के घर पैदा हुईं। इसीलिए इस घर की संतान नहीं हैं। बुआजी इसी घर में पैदा होते हुए भी इस घर की संतान नहीं हैं। फिर औरतें आखिर किसकी संतान हैं? मैंने मन ही मन सोचा, “औरतें ही मर्दों को जन्म देतीं हैं और वे खुद किसी की संतान नहीं हैं। भला यह कैसे हो सकता है?” उस कार्ड की यह ‘अशुद्धि’ मैं अभी तक ठीक नहीं कर पाया हूं!