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हिन्दी कविता: बेटी पैदा ना करना!

Stop sexual violence

Stop sexual violence

आज निकला मैं सड़क पर,

सन्नाटों का शोर था।

गहन अंधेरा, बीहड़ जंगल

सड़क के दोनों ओर था।

एहसास हुआ पीछे से मुझे

कंधे पर किसी हाथ का,

सहमी आंखें, बाल थे बिखरे,

देख उसे मैं अवाक था।

भाई- दबी आवाज़ में बोली-

लाश वहां मेरी पड़ी है।

आंख तुम्हारी के आगे,

अंतरात्मा मेरी खड़ी है।

आंखें मेरी बड़ी हो गई,

सांसें गई अटक-सी भीतर,

बुत बनकर मैं सुनता रहा,

खड़ा रहा लवों को सी कर।

क्या दोष मेरा भाई, बतलाओ,

क्यों कर मुझको मार दिया?

ना पहने थे कपड़े छोटे,

ना था सोलह श्रृंगार किया।

मैं तो स्कूल से लौटी थी,

जा रही थी नजरें झुकाए।

अधेड़ उम्र के चार थे वो,

पीछे से निकल अचानक आए।

पर भाई- रोने लगी बोलकर –

कैसे रोकती उन चारों को,

नहीं सिखाया मुझे तोड़ना

कभी कैद की दीवारों को।

मुझे घसीटा, मारा-पीटा,

खूब रोई मैं, खूब चिल्लाई।

आखिर लड़की होने की

मैंने भी सज़ा वही पाई!

अस्मत लूटी, मरी एक बार,

इतने पर भी नहीं रुके सब,

उठा के पत्थर मुंह पर फेंका,

मारा दूजी बार मुझे तब।

भर आया था उसका गला,

आंखों में पानी का झरना,

भाई- रुंधे स्वर में बोली

बेटी कभी ना पैदा करना!

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