पिछले कई सालों से जलवायु परिवर्तन की समस्या को हम अपने स्कूल पढ़ते आए हैं। फिर बड़े होकर नीजी जिंदगी में उसके बढ़ते परिणाम को भी महसूस करते आए। कहीं पहाड़ों के जमी बर्फ का अचानक फट जाना , उतराखंड में पानी का सैलाब आना । कहीं सूखा, तो कहीं फसलों का खराब होना। एक साथ ये कभी पूरे देश में नहीं हुआ, तो लगता था हमारे साथ तो ये नहीं होना चाहिए।
बिहार और मुंबई का मौसम समान होता हुआ
दिसंबर – फरवरी के महीने में जहां बहुत ठंड होती है, यही सोचकर उत्तर भारत में हम सब अपने गाँव गए। पूरे गरम कपड़ों के साथ कुछ दिन वही रहने के लिए। परंतु कोई फर्क नहीं। मौसम लगा जैसे हमारे मुंबई में रहता है वैसे ही था। बस थोड़ी हल्की ठंड थी बिहार में। तब लग रहा था इस बार ठंड नहीं हैं बिहार में। पर ऐसा नहीं था। पूरे उत्तर भारत में ठंड का ज़्यादा असर नहीं हुआ। ये सब ग्लोबल वार्मिंग का असर हो रहा था। फिर फरवरी के मौसम में इतनी गर्मी हुई मुंबई में मानो इस बार लग रहा था कुछ ज़्यादा गलती किए हो और प्रकृति हमसे बदला ले रही है।
जिस महीने में बसंत के फूल खिलते हैं वो इस मौसम में खिले ही नहीं। गर्मी भयंकर हुई और अब भी कई इलाको में भीषण गर्मी हो रखी है। इसका प्रभाव हमारे घरों पर पहले होता है। जैसे गर्मी के कारण इस साल कई इलाको में नदिया सुख रही हैं, जिस नदी से पानी आ रही है वह प्र्याप्त पानी नहीं। मुंबई जैसे देश के सबसे बड़े शहर में पानी की कटौती की जाने लगी। अब या तो हमारे घरो में पानी जितना आता हैं उतना इस्तेमाल कीजिये या तो खरीद लीजिये। परंतु 25 मई 2023 को एक ऐसा तस्वीर दिखा मानो हम शहर में रहने वाले लोग कभी नहीं समझ सकते।
महाराष्ट्र में पानी की किल्लत से जूझती औरतें
महाराष्ट्र के कुछ जगहों पर पानी की किल्लत छा गयी और कुओं से पानी से भरने के लिए बहुत सी ग्रामीण औरतों को मीलों दूर जाना पड़ा। कुछ पानी के लिए टैंकर के आस-पास झूल पड़ी। पर सिर्फ औरतों को ही आप पाएंगे ऐसे तस्वीर में। ऐसा क्यों? औरतों को ही क्यों झेलना पड़ेगा इस जलवायु से परिवर्तन का अधिक बोझ? ये एक छोटा सा किस्सा था जो हमारे समाज में लैंगिक असमानता को दर्शाता है।
महिलाओं पर अवैतनिक कामों का बोझ
पर सच तो यही है कि काम चाहे कोई भी हो उसमें औरतों का काम आज भी लोगों ने बाँट कर रखा है। जैसे सूखा पर जाने पर खाद्य सामग्री को संजोग कर रखना या उनकी पूर्ति करना ये सब औरतों के पल्ले आता है। अगर पानी भरने जाना हो या खेती में काम करना हो तो औरतों को जाना ही पड़ता हैं। कभी-कभी तो घर के बच्चों में अगर लड़का लड़की दोनों हो, तो हमेशा देखा गया है कि लड़कियों को अपने स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ती है क्योंकि उन्हें पानी भरने माँ के साथ मीलों दूर जाना पड़ता है।
ये सच है क्योंकि पिछले ही साल के एक न्यूज़ चैनल पर प्रकाशित राजस्थान में ऐसी ही एक घटना हुई थी। यह बहुत ही गंभीर समस्या है। सूखा पड़ने पर या बाढ़ के आने पर घर पर कामों को कैसे संभालना है, ये सब एक गृहणी पर ही आ जाता हैं। हम समाज में अभी इस असमानता को खत्म नहीं कर पाए हैं। आखिर कब तक इस परिवर्तन का असर सिर्फ और सिर्फ औरतों और लड़कियों पर होगा? या घर के कामों के वजह से कोई एक समूह असुरक्षित महसूस करेगा?
कामकाजी औरतों पर दोहरी जिम्मेदारी
कभी-कभी कामकाजी औरतों को दफ्तर से छुट्टी लेनी पड़ती हैं। अगर पानी नहीं आया घर पर, गर्मी के कारण स्कूल अचानक बंद हो जाने पर बच्चो को संभालना, घर को संभालना, बारिश हो गई और घर पर कोई बुजुर्ग हैं, उनकी तबीयत खराब हो जाने पर उनकी सेवा की ज़िम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ औरतों पर ही आती हैं। सच तो यही है कि जलवायु परिवर्तन की मार पुरुषों से कहीं ज्यादा औरतों पर है। महिलाएं सब कुछ छोड़कर बस अपनी कामों को ज़िम्मेदारी समझ कर उन्हें बखुभी निभाती भी रहती हैं। शायद समाज उनकी इसी चुप्पी का फायदा भी उठा रहा है। जलवायु परिवर्तन जिस तरह तेजी से हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है, क्या महिलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी इसमें फंसी रहेंगी? क्या हमारे समाज में लैंगिक असमानताओं को दूर करने के लिए प्रयास होंगे?