निजीकरण की ओर बढ़ती देश की स्वास्थ्य व्यवस्था उदारीकरण और निजीकरण के इस दौर में आर्थिक सुधारों के समर्थकों को यह जानकर सचमुच उनकी बांछें खिल जाएगी कि भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया की सर्वाधिक निजीकृत स्वास्थ्य सेवाओं में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक अगर स्वास्थ्य सेवाओं पर किए जाने वाले खर्च को आधार माना जाए तो भारत में स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले हर एक रुपए में मात्र 24 पैसे ही सरकारी बजट से आते हैं, बाद बाकी 76 पैसे आम आदमी की जेब से जाता है।
स्वास्थ्य पर कितना खर्च करती है सरकार
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी खर्च पिछले एक दशक से सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) के लगभग 1.3% के आंकड़े पर ही टिका हुआ है। सेहत के मामले में भूटान, श्रीलंका और नेपाल जैसे गरीब देशों का भी सालाना खर्च भारत से अधिक है। पिछले 100 सालों में देश की आबादी 7 गुना से अधिक बढ़ गई, पर स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर हमारी गति आज भी दो कदम आगे तो तीन कदम पीछे वाली ही है। जन औषधि केंद्रों के मार्फत सस्ती दवाइयों तक अधिकाधिक पहुंच बढ़ाने के दावे के बावजूद स्वास्थ्य सेवाएं अत्यंत महंगी है।
स्वास्थ्य खर्च के चलते आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे
एक ताजा अध्ययन के मुताबिक दिनों दिन बढ़ते चिकित्सा खर्च के कारण प्रतिवर्ष एक बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे चली जाती है। भारतीय संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। लेकिन आजादी के 75 वर्ष बाद भी सबको स्वास्थ्य का नारा अभी किताबी ही बना हुआ है।अफसोस की बात यह है कि यह नाकामी किसी और कारण से नहीं बल्कि स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रति सार्वजनिक जिम्मेवारी से मुंह चुराने और काफी हद तक उदासीनता बरतने का नतीजा है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही
मुक्त बाजार के अव्वल पैरोकार देशों में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति ऐसी लापरवाही नहीं दिखती जैसी भारत में यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देती है। विकसित देशों में जहां स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय सकल घरेलू उत्पाद के 5 से लेकर 10% तक और निजी खर्च 2% से लेकर 2.5% तक है वहीं भारत में सार्वजनिक व्यय GDP का मात्र 1.3% और निजी खर्च GDP का 5% के आसपास है। चिंताजनक पहलू यह भी है कि निजी व्यय की 100% रकम खर्च करने वाले की जेब से जाती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि स्वास्थ्य पर निजी व्यय का पूरा बोझ बीमार या उसके परिवार को उठाना पड़ता है। इसलिए कई बार सामान्य बीमारियों में भी होने वाले खर्च का भार परिवार को आर्थिक रुप से कमजोर कर देता है।
स्वास्थ्य पर खर्च का बोझ
लोग कर्ज के जाल में फंस जाते हैं, गरीबी की रेखा से किसी तरह ऊपर उठे परिवार एक बीमारी के झटके में ही फिर से गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। हमारे देश में आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, प्रधान मंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना, राज्य स्वास्थ्य प्रणाली संसाधन केंद्र योजना, जननी सुरक्षा योजना, सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता योजना, एन आर एच एम फ्लेक्सीपूल, राज्यों में 108 एंबुलेंस सेवा, इंद्रधनुष टीकाकरण, ग्रामीण स्वास्थ्य स्वच्छता जैसी अनेक आधारभूत व्यवस्थाओं, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन, तृतीयक देखभाल कार्यक्रम, स्वास्थ्य चिकित्सा शिक्षा, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (प्रजनन) आदि सरकारी इंतजामों के बावजूद देश में प्रतिवर्ष 10 लाख से अधिक नवजात बच्चों की मृत्यु हो रही है।
क्या बताते हैं अंकड़ें
सेव द चिल्ड्रन (Save The Children) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में नवजात शिशु की कुल मौतों में से 30% अकेले भारत में होती है। यानी कि गरीब परिवार अपने बच्चों के इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ है। इसकी एकमात्र वजह सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की लगभग ना मौजूदगी और उसे पूरी तरह से निजी क्षेत्र और बाजार के भरोसे छोड़ देने की सार्वजनिक नीति है। इस नीति के कारण देश में एक अत्यंत असमान दोहरी स्वास्थ्य व्यवस्था को फलने-फूलने का मौका मिला है।
बदहाल सरकारी अस्पताल
दोहरी शिक्षा व्यवस्था की तरह ही एक ओर अभावग्रस्त उपेक्षित और बदहाल सरकारी अस्पताल है, जो दिन पर दिन खुद बीमार होते जा रहे हैं, तो दूसरी ओर देश के सभी छोटे-बड़े शहरों नगरों और कस्बों में तेजी से फल-फूल रहे नर्सिंग होम, क्लिनिक, और पांच सितारा अस्पतालों की लंबी भीड़ है, जो इलाज के नाम पर मरीजों का खून चूसने में यकीन करते हैं। कई बार इस षड्यंत्र सिद्धांत पर यकीन न करने की कोई वजह नहीं दिखती की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को जानबूझकर कमजोर और बीमार किया जा रहा है ताकि उसकी कीमत पर निजी नर्सिंग होम और निजी अस्पताल दिन-दूना रात-चौगुना फले-फूले, लेकिन इसका नतीजा भयावह है।
सरकारी अस्पतालों से कतराते लोग
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की उपेक्षा का कई सूचकांकों पर नकारात्मक असर पड़ा है। सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर बच्चों की डिलीवरी की संख्या में कमी आई है, वहीं नर्सिंग होम में यह संख्या बेतहाशा बढ़ी है। नियमित टीकाकरण के दर में भी कमी दर्ज की गई है। देश में लगभग 70 हजार अस्पतालों में से 71% से अधिक अस्पतालों में आवश्यक बुनियादी सुविधाओं का अभाव है।
व्यक्ति की कमाई का 40% हिस्सा तक इलाज पर खर्च हो रहा है।आयुष्मान योजना की पहुंच अधिकांश परिवारों तक नहीं हो पाई है, वहीं प्राथमिक उपचार के लिए घोषित डेढ़ लाख हेल्थ एंड वैलनेस केंद्र का ढांचा अब तक तैयार नहीं हो सका है।देश के अधिकांश निजी अस्पताल आयुष्मान योजना की तय दरों पर इलाज करने के लिए राजी नहीं है। निजी अस्पतालों में 10% आरक्षित बिस्तर गरीबों के लिए मुहैया कराने का स्पष्ट प्रावधान है, लेकिन प्रशासनिक हीला-हवाली के कारण मरीजों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है।
जेनेरिक और ब्रांडेड दवाइयों का फर्क
जिंदगी और मौत से जूझ रहे बीमार व्यक्ति के तीमारदार मजबूर होकर निजी अस्पतालों की ओर जाने के लिए बाध्य होते हैं। बाजार के ताने-बाने से लैस निजी अस्पताल उनका आर्थिक दोहन करते हैं। जेनेरिक और ब्रांडेड दवाइयों का फर्क समझाते हुए मरीजों से अनाप-शनाप दवा के दाम वसूले जाते हैं। एक ही दवा के अलग-अलग ब्रांडों की कीमतों में जमीन आसमान का फर्क है। लेकिन ऐसा विरले ही होता है कि एक ही केमिकल के बावजूद डॉक्टर आपके लिए सस्ती दवा लिख दे।
क्यों नहीं देते डॉक्टर सस्ती दवाइयाँ
महंगी दवा से ज्यादा कमीशन मिलने के कारण इस बात की ज्यादा संभावना रहती है कि वह आपकी पर्ची में कोई महंगा ब्रांड ही लिखेगा। हालांकि अब नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों से लेकर विश्व बैंक तक स्पष्ट रूप से कहने लगे हैं कि भारत जैसे विकासशील और स्वास्थ्य के मामले में गरीब देशों में जहां की बड़ी आबादी की पहुंच आधुनिक दवाओं तक नहीं है। वहां सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के तंत्र को मजबूती देनी होगी। जाहिर है कि सबको स्वास्थ्य का नारा स्वास्थ्य सेवाओं के व्यापक विस्तार उसे सस्ता सुलभ बनाए बगैर हकीकत में नहीं उतर सकता है।
निजी अस्पतालों का दोहन बंद हो
इसके लिए स्वास्थ्य क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के साथ-साथ निजी अस्पतालों जैसी दोहरी स्वास्थ्य व्यवस्था को प्रोत्साहन देना बंद करना होगा, लेकिन सरकार आयुष्मान भारत जैसे कुछ टोटको से आगे जाने को लगता है तैयार नहीं है। स्वास्थ्य का मामला सभी छोटे-बड़े लोगों से जुड़ा हुआ है। चूंकि यह क्षेत्र लंबे समय से उपेक्षित है इसलिए स्थिति इक्का-दुक्का योजनाओं या बजट में मामूली बढ़ोतरी से नहीं सुधरेगी।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के मुख्य लक्ष्य में बीमारियों उपचार और गंभीर बीमारियों के लिए बीमा उपलब्ध कराना है, लेकिन हमारे यहां बीमा का लाभ निजी कंपनियां उठा रही हैं। भारत दुनिया में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन चुका है, तुलनात्मक रूप से भारत की आर्थिक विकास दर भी संतोषजनक है। पर इन उपलब्धियों का क्या फायदा अगर देश की 80% आबादी आधुनिक दवाओं से महरूम रहे और सब के लिए स्वास्थ्य सिर्फ सपना बना रहे?