लिखने को लिख सकता हूं मैं, राज धर्म भी, धर्म राज भी
लेकिन दबा नहीं सकते वो, उन जैसे मेरी आवाज़ भी
देखे मैंने कलमकार जो, एक से एक नगीना थे
जो यथार्थ में इस समाज का, कभी कीमती आईना थे
तर्क संगत है जो लेखनी, धूल फांकती रही आज भी
लेकिन दबा नहीं सकते वो, उन जैसे मेरी आवाज़ भी
नई कलम है, नए शब्द हैं, नहीं हाशिए पर रेखा
दवा धर्म की पिला रहे हैं, मरज़ किसी ने ना देखा
हो गई है विषाक्त स्याही, और विषैला अंदाज़ भी
लेकिन दबा नहीं सकते वो, उन जैसे मेरी आवाज़ भी
संस्कृति और राष्ट्र आधार बना कर भरमाते हैं सब
बेकारी की मार झेलते, नौजवान फंस जाते हैं सब
भूल गए अपना वजूद, जय जय उनकी से करें आगाज़ भी
लेकिन दबा नहीं सकते वो, उन जैसे मेरी आवाज़ भी
गगन चूमती खड़ी इमारत, मिथ्या विकास का रोना है
जो अर्जित कर रहे ज्ञान, उससे विकास ना होना है
कलम के पहरेदार कमल के लिए कत्ल कर गए लाज भी
लेकिन दबा नहीं सकते वो, उन जैसे मेरी आवाज़ भी
माना आज कलम वाला, हर शख्स उन्हीं की गागर भरता
अजय दलालों के सारे कर्मों को रहे उजागर करता
रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा और, साथ में बोलूँगा अनाज भी
लेकिन दबा नहीं सकते वो, उन जैसे मेरी आवाज़ भी!