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“सबसे बड़े लोकतंत्र में पहलवानों की मांग अगर देशद्रोह है, तो राष्ट्रवाद क्या है?”

Protesting wrestlers Vinesh Phogat, Bajrang Punia and Sakshi Mallick

Image source- PTI, Protesting wrestlers Vinesh Phogat, Bajrang Punia and Sakshi Mallick at Jantar Mantar, New Delhi

जंतर-मंतर पर सरेआम लोकतंत्र की हत्या हो रही। एक तरफ प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र के नए भवन का उद्घाटन किया जा रहा है। दूसरी तरफ हमारे लोगों की गिरफ़्तारियां चालू हैं। ये ट्वीट था भारतीय महिला कुश्ती खिलाड़ी विनेश फोगाट का। इसके बाद जैसी वीडियो और खबरें हमारे सामने आई, वो शर्मसार करने वाली थी। जिनपर इन महिला खिलाड़ियों ने आरोप लगाए थे, वो अब भी खुलेआम मुस्कुरा रहा था और बाहर महिला पहलवानों को बर्बर तरीके से पुलिस घसीटकर ले जा रही थी।

महिला पहलवानों से साथ बदसलूकी

सिर्फ इतना ही नहीं, मीडिया के अनुसार, जिस ब्रजभूषण के खिलाफ एफ.आई.आर दिल्ली पुलिस सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर दर्ज करती है, वही देर शाम होते-होते दिल्ली पुलिस ने प्रदर्शन के आयोजकों और अन्य के खिलाफ मामला दर्ज करती है। ऐसा इसलिए क्योंकि जंतर-मंतर पर धरने दे रहे पहलवानों ने कहा था कि वे शांतिपूर्ण तरीके से नए संसद भवन की ओर मार्च निकालेंगे।

दुनिया को क्या संदेश दे रहा है भारत

सुना है भारत विश्व गुरु बनने वाला है। जल्दी दुनिया के सब देश भारत के चेले बन जायेंगे। वो भारत से सीखेंगे कि कैसे हँसते-खेलते लोकतंत्र को भी तबाह किया जा सकता है। जब देश के संसद भवन के अन्दर राजशाही के प्रतीकों के चिन्हों की पूजा की जाने लगे, तब समझिये कि देश से लोकतंत्र मिटाने की तैयारी शुरू की जाने लगी है!

क्या लोकतंत्र में विरोध नहीं हो सकता

कहा जाता है लोकतंत्र में ना कोई राजा होता है, ना कोई प्रजा। बल्कि कुछ समय के लिए चुने हुए जनप्रतिनिधि होते हैं। तो विरोध करना और अपनी बात रखना लोकतंत्र में मौलिक अधिकार बनता है। बड़े बुज़ुर्ग कहते हैं कि ये धरने प्रदर्शन का अंदाज़ ही किसी भी लोकतंत्र को ज़िंदा रखने में दवा का काम करते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान देश ने देखा कि अपनी मांगों को लेकर धरने प्रदर्शन करने वालों को, टुकड़े-टुकड़े गैंग, खालिस्तानी, देशद्रोही जैसे शब्दों से नवाजा जाने लगा है।

शायद यही वजह रही होगी कि अक्तूबर 2021 में अमेरिकी टेनिस की पूर्व दिग्गज खिलाड़ी मार्टिना नवरातिलोवा अपने एक ट्वीट में भारत को लोकतंत्र और मोदी को लोकतान्त्रिक नेता बताने को एक मजाक बताया था। खैर वो उनकी राय थी। हमारी अपनी राय है हम इसे देशभक्ति कहते हैं और ऐसी बात कहने वालों को देशद्रोही!

सत्ता पर बैठी सरकार और बेबस जनता

किसान आन्दोलन के समय हमने वो खबरें पढ़ी थी। जिनमें किसानों को देशद्रोही कहा गया यहाँ तक कि ये भी कहा गया कि ये आन्दोलन नहीं है बल्कि मोदी जी को हटाने की देशविरोधी साजिश है! हालाँकि उनकी बिल वापसी की मांग थी और जैसे ही बिल वापस हुआ भी और वो धरना खत्म करके चले भी गये। फिर भी चलो अगर एक पल को मान भी लिया जाये मोदी जी को हटाने के लिए आन्दोलन हो सकता है लेकिन इसमें देश विरोध कहाँ से आ गया?

अगर लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी किसी सरकार से सवाल पूछना, उसकी नीति के विरुद्ध आन्दोलन करना पाप और देश विरोध है, तो इससे पहले इस देश की जिन-जिन सरकारों ने ऐसे सवाल नीतियों के विरुद्ध आन्दोलन किये क्या वो सभी देश विरोधी आन्दोलन थे? भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी राम मनोहर लोहिया नेहरु की नीति का विरोध किया करते थे। इनकी वजह से साल 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा क्या लोहिया जी को देश विरोधी कहा जायेगा या कहा गया था?

क्यों न हो सरकारी नीतियों पर सवाल

5 जून 1974 को जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। विपक्ष को एकजुट किया। सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। इंदिरा हटाओ आन्दोलन हुए, कई छात्र भी पुलिस की गोली से मारे गये। ये इंदिरा गांधी के सरकार को खुली चुनौती थी। तो क्या जेपी का आन्दोलन देश विरोधी साजिश थी? और जेपी देश द्रोही?

क्या उस समय जेपी को आतंकी, खालिस्तानी, पाकिस्तानी गुंडा मवाली भेड़िया कहा गया था? मेरा जन्म बाद में हुआ तो पूछ रहा हूँ! इसके बाद राजीव गाँधी सरकार में बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को ठोकर मार आए वीपी सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नए मसीहा के साथ अवतरित हुए। मंडल कमीशन की सिफारिशों को देश में लागू किया। इसके खिलाफ देश भर में सवर्ण समुदाय ने आंदोलन किया। बड़ा आन्दोलन हुआ जिसमें कई जानें भी गयी। क्या वो भी देश विरोधी गतिविधि थी?

मनमोहन सरकार के खिलाफ बीजेपी ने देश भर में महंगाई का आन्दोलन किया। जगह-जगह प्रदर्शन किये। इसके अलावा दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना का लोकपाल आन्दोलन कौन भूला होगा? क्या उस दौरान कांग्रेस हटाओ और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खिलाफ लगते नारे देश विरोधी साजिश थी? क्या अन्ना जी देशद्रोही थे? क्या उनका आन्दोलन करना पाप था?

क्यों सरकार से सवाल देशद्रोह है

अगर आजादी के बाद देश में विभिन्न सरकारों के कानून, फैसलों, नीतियों के विरोध में हुए तमाम छोटे बड़े आन्दोलन देशविरोधी आन्दोलन नहीं थे तो आज सरकार के सामने आन्दोलन करना देशविरोधी कैसे? अगर लोकतान्त्रिक ढांचे में जनता के द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि का विरोध करना देशद्रोह है, तो सवाल बनता है कि सितम्बर 2013 में नकली लालकिला बनाकर राष्ट्र को सन्देश देते और तत्कालीन सरकार पर सवाल उठाते आज के वर्तमान प्रधानमंत्री जी क्या कर रहे थे! देशविरोध या देशभक्ति?

इस सवाल को अपनी आत्मा की गहराई से सोचे, खुद से और उन तमाम तथाकथित पत्रकारों से ये सवाल कीजिये जो कंगना रनौत के देश को 2014 में मिली आजादी के बयान को जस्टिफाई कर रहे थे? बेशक संसद लोकतंत्र का मंदिर होता है। लेकिन जब तंत्र लोक की बात करना बंद कर दे उसे लोकतंत्र कहना सही है या एकतंत्र? ये सवाल मन में इस कारण उठा कि सरकार और नागरिक का रिश्ता बड़ा ही नाज़ुक होता है। विश्वास का भी होता है और अविश्वास का भी। समर्थन का भी होता है और विरोध का भी, मांग का भी होता है और इनकार का भी। एक परेशान नागरिक के तौर पर आप एक बार सड़क पर उतरकर देखिये आपको स्वयं ज्ञान होगा कि देश की अनेकों सरकारी संस्थाएं वाकई कितनी असंवेदनशील हो गई हैं।

क्या लोकतंत्र में अपनी बात कहने की आज़ादी है

कमाल है कि इस तरफ भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। भाषणों में मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी बताया जाता है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजधानी और वहां अपनी बात रखने की कोई जगह नहीं! मैंने पहले भी लिखा था कि हमारी दिल्ली लंडन के हाइड पार्क या अमेरिका के व्हाइट हाउस जैसी क्यों नहीं हो सकती? देश की राजधानी दिल्ली में आखिर ये क्या हो रहा है? प्रदर्शनों के लिए जंतर-मंतर बंद, संसद मार्ग बंद, वोट क्लब बंद, नॉर्थ और साउथ ब्लॉक के सामने नारे लगाने का सवाल ही नहीं, कोई प्रधानमंत्री तक, सरकार तक अपनी आवाज़ कैसे पहुंचाए?

लोकतंत्र हमेशा सरकारों को मंच देकर सुनता आया है। इसलिए अगर लोकतंत्र जीवित रखना है तो सुनना बंद मत कीजिये, ये कोई विरोध शोर नहीं अपितु ये विरोध ही लोकतंत्र के गीतों से सजी वो थाल है जिनसे हमेशा सत्ता के ललाट पर तिलक होता आया है। आपने भी किया, आगे आने वाले भी करेंगे!

जनता का कर्तव्य है जरूरतों की मांग

कालिदास की प्रमुख कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम का प्रसंग है कि जब माता गौतमी आधी रात में दुष्यंत के महल के बाहर पहुंचती है और सैनिक से पूछती है क्या मैं इस समय राजा दुष्यंत से मिल सकती हूं? तब सैनिक कहता है अवश्य माता; एक नागरिक होने के नाते ये आपका मौलिक अधिकार है आप घंटा बजाइए। सोता हुआ दुष्यंत महल से बाहर जरूर आएगा।

वो तब का लोकतांत्रिक भारत था। अब भारत विश्व गुरु बन चुका है। अब यहाँ पीड़ित को ही गिरफ्तार किया जाने लगा है। इसके अलावा थोड़े समय पहले तमिलनाडु के किसान अपनी मांगों के नाम पर नग्न होकर, चूहे खाकर, मृतक किसानों की खोपड़ियां लेकर प्रदर्शन करते रहे, अपनी बात रखने के लिए अपनी मांगों का घंटा बजा रहे थे लेकिन मिलने, सुनने कौन आया?

जबकि एक लोकतंत्र का ढोल पिटा जा रहा है वो लोकतंत्र ही स्वीकारता है इस देश की विविधताओं को, अनेकों संस्कृतियों के समागमों को, विभिन्नताओं को, अलग-अलग भाषाओं और धर्म-सम्प्रदायों समेत विरोध और पक्ष के सभी सुरों को। केवल मतदान करने और सरकार बना लेने भर से एक नागरिक का लोकतांत्रिक कर्तव्य पूरा नहीं होता बल्कि उसका असली संघर्ष सरकार बनने के बाद शुरू होता है जब वह अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने खड़ा होता है। इसलिए उसने आपको चुनकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाई अब उसे विरोध और प्रदर्शन का मंच देना भी आपकी नैतिक ज़िम्मेदारी है।

इराक से जाकर कुर्द लोग अमेरिका की नीति के खिलाफ व्हाइट हाउस के बाहर प्रदर्शन कर सकते हैं, म्यांमार में रोहिंग्या शरणार्थी संकट के विरोध में, अलग बलूचिस्तान की मांग को लेकर या गुआंतानामो-बे स्थित जेलों को बंद करने की मांग को लेकर विरोध कर सकते है। मतलब विरोध कहीं का हो, मांग कोई भी हो दुनिया के किसी भी विरोध प्रदर्शन से व्हाइट हाउस को कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन नई दिल्ली को सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कतई बर्दाश्त नहीं। वो सिर्फ मन की बात सुने, उसे ही लोकतंत्र का संगीत समझे। शायद यही पाठ पढ़ाने की कोशिश जारी है। इसे ही ये राष्ट्रवाद बताया जा रहा है अगर ये ही राष्ट्रवाद है तो फिर धृतराष्ट्रवाद क्या है?

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