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कामरेड मेजर जयपाल सिंह और भारतीय राजनीति में उनका योगदान

Major Jaipal Singh

Major Jaipal Singh

जयपाल सिंह का जन्म 1916 में मुज़फ्फरनगर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता ब्रिटिश औपनिवेशिक सेना में मजबूरन काम करते थे। खुद भी जल्दी ही गाँव छोड़ कर अपने पिता के पास निराक में चले गए। सौभाग्य से उन्हें उच्च शिक्षा पाने का अवसर मिला। मैट्रिकुलेशन के बाद बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की और आगरा के सेंट जौन कॉलेज से स्नाकोत्तर किया। यहाँ पर शहरी धनाढ्यों को लेकर उनके मन में नापसंदगी पैदा हुई जो पूरी ज़िन्दगी बनी रही।

शादी और निजी जीवन

उनकी शादी 1938 में हुई। उन्होंने अंतरजातीय विवाह किया और दहेज बिलकुल नहीं लिया। वे अपने गाँव के पहले आदमी थे, जिसने अपने पत्नी को पर्दा से मुक्त रखा। कॉलेज में ही जयपाल स्वाधीनता संग्राम से रूबरू हुए। वे गांधीवाद से विरक्त हो चुके थे। कारण था कि 1930 में जब गाँधी ने शामली में नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान 20,000 लोगों को तितर-बितर करने के लिए मात्र 5 सिपाहियों की जरूरत पड़ी। उन्हें लगा कि अंग्रेजों से लड़ने के लिए हथियार की जरूरत है। आगरा में उनका संपर्क एक एक समूह से हुआ जिनके पास उन्हें कई प्रतिबंधित किताबें पढ़ने का मौका मिला।

ब्रिटिश सेना में भेदभाव

जब द्वितीय युद्ध का माहौल बन रहा था, तब उन्होंने औपनिवेशिक सेना में दाखिल होने का मन बनाया। साल 1941 में वे ऑफिसर के रूप में कमीशन हुए। यहाँ पर उनके ऊपर अंग्रेज ऑफिसरों द्वारा नस्ली भेदभाव का भी सामना करना पड़ा। मुक्ति संग्राम की बढ़ती हुई लहर ने उनके मन में साम्राज्यवादी भावनाएं पैदा हुयीं। अन्य ऑफिसरों के साथ मिल कर फौज में ‘काउन्सिल ऑफ़ एक्शन’ नमक संगठन का गठन किया, जिसका मकसद अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने में किसी मौके पर हथियारबंद मदद पहुँचाना था।

भारत छोड़ो आंदोलन में उनका योगदान

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जयपाल और उनके संगठन ने 3000 से अधिक हथियार मुहैया किये। स्पष्ट है कि उन लोगों ने गांधीवादी अहिंसा के चाहद्दी से आंदोलन को बाहर निकालने में अहम् भूमिका निभाई। ये सारी बातें उनकी संस्मरण में (1941-42 से लेकर 46 तक) में लिखित हैं। उनका यह मानना था कि जनता के साम्राज्यवादी उफान के साथ सेना में भी बगावत पैदा करनी चाहिए। जनवरी 1946 के काउन्सिल ऑफ एक्शन में हुई बैठक में इस नतीजे पर पहुंचे कि न सिर्फ अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए बल्कि मुल्क के बंटवारे को रोकने के लिए भी बगावत जरूरी थी। काउन्सिल ने जयपाल को सचिव चुना और राजनीतिक दलों से संपर्क साधने की शुरुआत की। पर 1946 के नौसैनिक विद्रोह का काँग्रेस द्वारा विरोध से निराशा हाथ लगी। समाजवादियों ने धैर्य रखने का सलाह दिया!

इस बीच जयपाल और उनके साथियों को अंग्रेजों की गुप्त योजना, ‘ऑपरेशन असायलम’ दस्तावेज हाथ लगा। इसका उद्देश्य आंदोलन के नेताओं को उत्तर-पूर्व यात्रा के दौरान फौजी दस्ता के मदद से आदिवासियों द्वारा मौत के घाट उतरना था। इस बात को कांग्रेसी और समाजवादी नेताओं को बताया गया जिसका उन्हों ने संज्ञान नहीं लिया। अंततः इस दस्तावेज को जनता के सामने लाया गया और मेजर और साथियों को फौज छोड़ कर भागना पड़ा, अन्यथा कोर्ट मार्शल हो सकता था। भागने के बाद समाजवादियों ने उन्हें शरण दी। समाजवादी नेतायों के संपर्क में आने के बाद जयपाल ने उनके बारे में निराशा व्यक्त की। जयप्रकाश नारायण, डाक्टर लोहिया आदि क्रन्तिकारी काम नहीं बल्कि क्रन्तिकारी लफ्फाजी में ही लगे रहते थे।

भारत पाकिस्तान का बंटवारा

1947 तक आते-आते ‘काउन्सिल ऑफ एक्शन’ में भी मतभेद दिखने लगे थे भारत पाकिस्तान बंटवारे को लेकर और इसे भंग कर दिया गया। आजादी के बाद इन लोगों ने नेहरू के नाम खुला पत्र लिखा और एक समझौते के अनुसार जयपाल ने 3 सितम्बर 1947 को भारतीय सेना के समक्ष आत्म समर्पण किया। दोष मुक्त करने के बजाय उनको गिरफ्तार किया गया और भगौड़ा होने और विश्वासघात का आरोप लगाया। नवम्बर 1947 में उन्होंने नेहरू को दोबारा पत्र लिखा और अपने ऊपर लगे आरोप का खंडन किया, पर कोई जवाब नहीं मिला। एक वर्ष के बाद वे फोर्ट विलिअम, कलकत्ता के आर्मी कैद से दीवार फंड कर भाग गए। करीब 10 साल भूमिगत जीवन व्यतीत किया।

मेजर जयपाल की भारतीय इतिहास में भूमिका

अब मेजर ने साम्यवादियों की तरफ रूख मोड़ा क्योंकि कांग्रेस और समाजवादी दलों से कोई उम्मीद नहीं बचा था। वे सीपीआई में शामिल हुए। यहाँ काकद्वीप, बंगाल में किसानों के हथियाबंद संघर्ष को मदद देने के लिए भेजा गया। 1950-51 में वे तेलंगाना गए। मेजर ने गुरीलाओं को सैनिक प्रशिक्षण देनें में अहम् भूमिका अदा की और साथ-साथ साम्यवादी विचारधारा से रूबरू हुए। 1953 में फ्रांसीसियों के खिलाफ चल रहे मुक्ति संग्राम के समर्थन में पोंडिचेरी गए। मणिपुर में आदिवासियों के चल रहे हथियारबंद आंदोलन में भी मेजर का हाथ रहा है। 1956 में मेजर जयपाल सिंह भूमिगत जीवन से बाहर आ गए और मुजफ्फरनगर में हजारों लोगों ने उनका स्वागत किया। 1957 के संसदीय चुनाव में सीपीआई ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया। कॉंग्रेसियों ने उन्हें डाकू घोषित किया। 70,000 लोगों ने उनके समर्थन में जुलुस निकाली। हालाँकि, अंततः वे चुनाव कुछ ही मतों से हार गए थे।

इसके बाद में वे दिल्ली आ गए और 61-62 में पार्टी केंद्र में काम किया। भारत चीन युद्ध के दौरान, 1962 में जब जनसंघियों ने पार्टी ऑफिस पर आक्रमण किया तो वे, एम् बसुपुन्नैया के साथ मिलकर, पार्टी ऑफिस की रक्षा किए। 1964 में जब सीपीआई का बंटवारा हुआ तो वे सीपीआई (एम) में शामिल हो गए और कलकत्ता आ गए आगे काम करने के लिए। 1970 में कौंग्रेस सरकार ने उन्हें दुबारा गिरफ्तार किया अंग्रेजों के आरोप के आधार पर। कलकत्ता के अलीपुर जेल में उन्हें 1 साल रहना पड़ा। छूटने के बाद दिल्ली आ गए और 1972 में प्रांतीय कमिटी के सचिव चुने गए और दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पार्टी के गठन और विकास में अहम भूमिका निभाई।

सीपीआई (एम) के सचिव का कार्यभार

1975 में इमरजेंसी लागु होते ही उन्हें मिसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें रोहतक जेल में रखा गया और नवम्बर 1976 में उन्हें रिहा किया गया। 1977 में सीपीआई (एम) की दिल्ली राज्य राज्य कमिटी के सचिव बने और 1978 में पार्टी के केन्द्रीय समिति के सदस्य चुने गए। जयपाल ने कभी भी अपने संस्मरण या बातचीत के दौरान काउन्सिल ऑफ एक्शन के सदस्यों की चर्चा नहीं की। पूछे जाने पर मुकर गए और कहा कि अपने साथियों के साथ कभी गद्दारी नहीं कर सकते। उन्होंने इतना जरूर कहा कि उनमें से कई भारतीय और पाकिस्तानी सेना में ऊँचे ओहदों पर तैनात हैं। साथ ही, तेलंगाना के दौर को छोड़ कर 1945 से लेकर 1956 तक अपने भूमिगत जीवन के बारे में भी जानकारी देने से माना कर दिया।

मेजर जयपाल का निधन

उनका निधन सीपीआई (एम) के 11वीं पार्टी कॉंग्रेस के पूर्व संध्या पर विजयवाड़ा में 25 जनवरी, 1982 में दिल का दौरा पड़ने से हुआ। यह वही जगह थी जहाँ उन्होंने (तेलंगाना में) 1951-52 में हथियारबंद किसान संघर्ष में हिस्सा लिया था। कृष्णा नदी के तट पर उनके डाह-संस्कार में 1 लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए। दुनिया के कई देशों में ऐसे सैनिक हुए हैं, जिन्होंने समाजवादी दर्शन पढ़ा और समझा और समाजवादी क्रांति के लिए संघर्ष किये और कुर्बानियां दी।

जयपाल सिंह के ‘जंग-ए-आज़ादी के परचम तले’ से: “अपनी जनता को गुलाम बनाने वाले (अंग्रेजी हुकूमत – मेरे द्वारा) के खिलाफ साजिश करना मेरा हक था और यही मैंने किया भी। मुझे इसका कोई पछतावा नहीं। मेरा ख्याल था कि अपनी जनता के सामने इतिहास के सामने इतिहास की तमाम सच्चाइयाँ पेश करना मेरा हक है। ऐसा करके मैं लोकप्रियता हासिल करना, प्राप्त करना नहीं चाहता था। एक सिपाही के नाते मेरी सारी ट्रेनिंग ही इस किस्म की रही है कि एक महान उद्देश्य के लिए जीवन बलिदान कर दो – बिना यह परवाह किये कि तुम्हें कोई रोने-गाने वाला है कि नहीं। लेकिन, अंग्रेजों ने मेरे चरित्र पर लांछन लगाये थे। मैं उसका जवाब देना चाहता था।”

कॉमरेड मेजर जयपाल सिंह को क्रन्तिकारी सलाम।

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