बचपन में अक्सर पढ़ा करता था कि हमारा देश भारत अनेकता में एकता का देश है। यहाँ भिन्न-भिन्न सभ्यता, संस्कृति और क्षेत्र के लोग मिल-जुल कर रहते हैं। यह सोच कर कि जब उच्च शिक्षा के लिए दूसरे राज्य जाऊंगा तो इस एकता के रंग को और भी करीब से महसूस करूँगा, मन ख़ुशी और उमंग से भर जाता था। मगर मेरी कहानी कुछ और ही है।
जोहार ( सबका कल्याण करने वाली प्रकृति की जय) साथियों! मेरा नाम कुणाल तिडू है और मैं झारखंड राज्य के जिला पश्चिमी सिंहभूम का रहने वाला हूँ। मैं एक आदिवासी हूँ और मुंडा जनजाति से आता हूँ। मैं पेशे से ऑडियो इंजीनियर हूँ। शायद यह सब कुछ मेरे परिचय के लिए काफी है। अरे रुकिए, एक बात बताना तो भूल गया। “मेरा रंग काला है और मैं एक भारतीय हूँ।” यह बताना बहुत जरूरी था क्योंकि इसके बिना मेरी बात शायद अधूरी रह जाएगी।
बात की शुरुआत दिल्ली से
बात शुरू करता हूँ जुलाई वर्ष 2004 से, जब कई लोगों की तरह मैं भी आंखों में कई सपने लिए एक छोटे से शहर से दिल्ली के लिए निकल पड़ा। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अपनी ग्रेजुएशन की डिग्री पूरी की, साथ ही अच्छी नौकरी जल्दी मिलने की चाहत में कुछ तकनीकी विषयों में भी डिप्लोमा ले लिया। इसके पश्चात कुछ कम्पनियों में नौकरी भी की, लेकिन दिल और दिमाग को यह काम पसंद नहीं आया। तभी अचानक वर्ष 2009 में मुझे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करने का मौका प्राप्त हुआ। मेरी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा क्योंकि कई बार मेरे मन मे मीडिया संस्थान में कार्य करने का मन हुआ था लेकिन मैंने इसके लिए खास पढ़ाई नहीं की थी जिसके वजह से मैं असमर्थ महसूस करता था।
जब सहकर्मी नस्लीय टिप्पणी करते
खैर जब मेरी ज्वाइनिंग एक न्यूज़ चैनल में हुआ, यह मेरी जिंदगी का एक टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ जिसे मैं कभी भूल नहीं सकता। मैं पहली बार चैनल में काम कर रहा था जिसके वजह से मुझे यहाँ की कार्यप्रणाली का जरा भी अंदाजा नहीं था। ज्यादातर सहकर्मी मुझसे थोड़ी बेरुखी से बात करते थे । कुछ दिनों के बाद जब भी मुझसे गलतियां होती थी तब कुछ सहकर्मी मुझे ” जंगली, नक्सली, आदिवासी” कह कर संबोधित करते थे। यह पहली बार हुआ था कि जब किसी ने मुझ पर नस्लीय टिप्पणी करने लगे थे। मेरी हालत कुछ ऐसी हो गई थी कि मैं ऑफिस जाने से घबराता था, रोने लगता था क्योंकि ऐसी टिप्पणियां आत्मविश्वास और आत्मम्मान को ठेस पहुँचाती थी।
मैं ने हार नहीं मानी
लेकिन फिर भी मैंने कभी हार नहीं मानी और निरन्तर अपने काम को बेहतर बनाने में प्रयास करता रहा, जिसके फलस्वरूप वर्ष 2012 में मुझे एक नेशनल न्यूज़ संस्थान में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। चूंकि यह एक नेशनल न्यूज़ संस्थान था, इसलिए यहाँ देश के विभिन्न राज्यों से आये हुए कर्मचारी थे। सोचा कि खुद को एक्सप्लोर करने के लिए यह बेहतर होगा। लेकिन कुछ चीजें मेरा पीछा नहीं छोड़ी! इस संस्थान में कुछ सहकर्मियों में मुझे पहली बार एहसास दिलाया कि मेरा रंग काला है। सिर्फ यही नहीं, कुछ ने मुझे “केन्या, युगांडा” के नाम से संबोधित करने लगे। इतना से उनका मन नहीं भरा तो मेरे धर्म को लेकर मुझे ताने मारने लगे, और कुछ लोग नक्सली कहना बन्द नहीं किया। खैर इतने समय तक मुझे यह समझ आ गया था कि ऐसे लोगों को कैसे चुप किया जा सकता है! अब मैं एक दूसरे न्यूज संस्थान को ज्वाइन कर लिया है जहाँ भले ही थोड़ा कम लेकिन नस्लीय टिप्पणियों का दौर जारी है। 15 साल बीत गए सुनते-सुनते, लेकिन ऐसे लोगों से निपटने के लिए मेरी लड़ाई हमेशा जारी रहेगी।
आदिवासी समुदाय, बॉलीवुड और मीडिया की भूमिका
दरअसल यहाँ कुछ दोष सिनेमा और मेनस्ट्रीम मीडिया का भी है। सिनेमा (खासकर कमर्शियल सिनेमा क्योंकि इनके दर्शक बड़ी संख्या में होते हैं) जिसे समाज का आईना कहा जाता है, उसमें आदिवासियों को कभी केंद्र बिंदु में रखा ही नहीं गया। गीत के नाम पर भी सिर्फ “झींगा ला-ला हू-हू” कर संबोधित किया गया और अगर कहानी दिखाई गई तो भी सिर्फ नक्सल पृष्ठभूमि पर लिखी गई। कई लोगों को यह मालूम भी नहीं कि आदिवासी कौन लोग हैं, उनकी सभ्यता- संस्कृति क्या है? इसी तरह मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है, उसमें भी आदिवासियों के जीवन, संघर्ष को दरकिनार रखा गया। कुछ गिने-चुने अखबारों या न्यूज़ चैनलों को छोड़ बाकी किसी ने भी इनके आवाज को उठाने की कोशिश नहीं की। लेकिन जब राष्ट्रपति पद के लिए आदिवासी महिला का नाम आया तो सभी बड़ी न्यूज़ चैनलों ने breaking News में जोर-शोर से से आदिवासियों की बात कहने लगे । कोई आदिवासी क्षेत्रों में तो कोई आदिवासियों के जीवन शैली और संस्कृति को लेकर रिपोर्टिंग करने लगा। ऐसा लगा कि मानो अब आदिवासियों को ले कर समाज मे जितनी भी भ्रांतियां है, सब खत्म हो जाएगी लेकिन परिस्थिति अभी तक जस की तस है।
खैर सरकार से सवाल करना या उनके जवाब का इंतजार करना तो अलग ही बात है। लेकिन मेरा सवाल आप सभी से है कि हम एक ही देश के वासी हो कर एक दूसरे के क्षेत्र , धर्म की इज्ज़त क्यों नहीं करते। क्यों हम नस्लीय टिप्पणियों के द्वारा दूसरों के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाते हैं ?क्यों आज भी शक्ल सूरत के जरिये क्यों नागरिकता पर व्यंग्य किया जाता है ? जब हम अपने ही लोगों को बराबरी का सम्मान और अधिकार नहीं देंगे तो फिर हमें दूसरे मुल्क में सम्मान पाने की चाह को त्याग देना होगा। लेकिन मुझे आज की युवा शक्ति और उनकी सोच समझ पर पूरा यकीन है जो पूरे देश के लोगों की सोच को अपने विचारों से बदल सकती है। पूरे समाज को एक सूत्र में बांध कर देश में एकता ला सकती है। बस जरूरत है एक ईमानदार सोच की!