बचपन से ही एक हाथ में किताब और दूसरे हाथ की अंगुली से कुछ बताते हुए एक नीले रंग की बेजान सी मानव आकृति घूर गड्ढों के पास अक्सर देखता था। बताया गया कि बाबा साहेब हैं, फिर शिक्षा शुरू हुई। किताबों में भी पढ़ा। लेकिन वह मानव आकृति से ज्यादा कुछ न थे। फिर कॉलेज पहुंचा। वहां भी दलित के लिए ये किया, वो किया। वहां भी ये बेजान पत्थर ही रहे। फिर जब ऐकडेमिक से प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में लगे तो इनकी महत्ता का आभास हुआ। फिर भी श्रद्धा न जगी। फिर जब जीवन संघर्षों का दौर शुरू हुआ और इतिहास काम्पिटिशन के लिए नहीं रुचि से पढ़ना शुरू किया तब पता चला कि आम्बेडकर कौन हैं। एक वाक्य में समझ आ गया कि आम्बेडकर ने मानव को वह दिया जिसके लिए मनुष्य पशु से अलग होता है। वह है -समानता व अधिकार। यह कहना बेईमानी होगा कि आम्बेडकर सिर्फ दलितों के लिए लड़े। यह माना जा सकता है मूल में दलित भले ही रहा हो पर वह मानवता के लिए लड़े। समानता के लिए लड़े। वह अचानक से शिल्पाकृति से मूर्ति प्रतीत होने लगे। अब कहीं भी गन्दी जगहों पर मूर्ति देख कर स्वयं को ग्लानि महसूस होने लगी कि श्रधेय महामानव इस जगह पर क्यों। मानवता की लड़ाई का यह प्रतिफल क्यों? परन्तु धीरे-धीरे उनको यह सम्मान मिलने लगा है। लोग अपने मसीहा को पहचानने लगे हैं।
“जब आम्बेडकर सिर्फ मूर्ति नहीं, समानता और मानवता के लिए लड़ने वाले व्यक्ति बन गए”

Dr. Ambedkar