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असम में हो रहा विरोध, बाल विवाह कानून और उसके अमल पर सवाल करती है

औपनिवेशिक भारत में मूल्क के खुदमुख्तारी के ख्याल से काफी पहले, एक दौर सुधारवादी आदोलनों का चला। आधुनिक शिक्षा ने कुछ समुदाय में मानवीय चेतना का विस्तार किया, जिसके कारण एक साथ कई सामाजिक कुरतियों सतीप्रथा, बालविवाह, बेमेल विवाह, विधवा विवाह के साथ-साथ महिलाओं में भी शिक्षा के सवाल पर सुधारवादी आंदोलन अपने वजूद में आया। सुधारवादी आंदोलन उस दौर के कुछ दशकों के बाद भारत खुदमुख्तार मूल्क बना और देश के नागरिकों के हितों के संरक्षण में कई कानून भी बने। तमाम प्रगतिशील कानून के बाद भी महिलाओं से जुड़े सवाल जो समानता और स्वतंत्रता के लक्ष्य से जुड़े हैं, शिक्षा, जागरूकता के साथ-साथ आर्थिक-सांस्कृतिक और सामाजिक बाध्यताओं के कारण सतह पर बहस का विषय बनकर उभरते रहते हैं। जिस देश में सबसे पहले कानून आज से 94 साल पहले बनाया गया था, उस देश में आज भी बाल विवाह एक गंभीर सवाल बना हुआ है। यह सिद्ध करता है कि इस समस्या से समाधान केवल कानून बनाकर तो नहीं किया जा सकता है। सामाजिक-सांस्कृतक और आर्थिक स्तर पर एक साथ कई प्रयोग करने की आवश्यकता है। खासकर देश के ग्रामीण भारत में शिक्षा और जाग रूकता की अलख जलानी होगी।

बीते दिनों देश के राज्य असम से बाल विवाह के खिलाफ सरकार की मुहिम देश-दुनिया का ध्यान खींच रही है। वहां बाल विवाह निषेध के बाद भी हजारों केस दर्ज किए गए है और कई गिरफ्तारियाँ भी हुई हैं। अनुमानित है कि भारत में वर्ष 18 से कम उम्र में करीब 15 लाख लड़कियों की शादी होती है, जिसके कारण भारत में दुनिया की सबसे अधिक बाल वधुओं की संख्या है। साल 2005-06 से 2015-16 के दौरान 18 साल से पहले शादी करने वाली लड़कियों की संख्या 47 प्रतिशत से घटकर 27 प्रतिशत रह गई थी, जो काफी हद तक उत्साह बढ़ाने वाले थे। परंतु, वैश्विक कोरोना महामारी के बाद रोजगार न होने के चलते आर्थिक तंगी के कारण बाल विवाह के एनसीआरबी के आकड़ों के अनुसार दोगुने हो चुके हैं। साल 2019 में 512 और साल 2021 में 1045 बाल विवाह के मामले दर्ज हुए हैं। गरीबी, नौकरियों का छूटना, पारिवारिक आय में कमी, शिक्षण संस्थाओं का बंद होना, कुछ ऐसे प्रमुख कारण है जिसके कारण बाल विवाह के मामले फिर से बढ़ गए हैं। मौजूदा वक्त में बाल विवाह को जड़ से खत्म करने का लक्ष्य तभी पाया जा सकता है, जब बाल विवाह की वार्षिक दर में 22 फीसदी तक की कमी आए।

अधिक अफसोस जनक यह है कि चाहे देश का कोई भी राज्य हो वहां मौजूद सरकारी सिस्टम इस सत्य को स्वीकार करने में झिझकता है कि आज भी बाल विवाह जैसी प्रथा समाज में प्रचलित है। बच्चे खासकर बेटियां इसका शिकार हो रही हैं। यह समझना अधिक जरुरी है कि बाल विवाह जैसा अपराध को स्वीकारना भी बच्चों के साथ अन्याय करना होगा। कम उम्र में शादियां होने कारण न ही केवल कुषोषित बच्चे पैदा हो रहे है बल्कि नवजात बच्चों का विकास भी अवरुद्ध हो रहा है। हाल ही में नैशनल फैमली हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि बाल विवाह के चलते मातृ और शिशु मृत्यु दर में बढ़ोतरी हो रही है, जिसके बाद असम सरकार अचानक से अपने कुम्भकरण के नींद से जागी और आनन-फानन में एक साथ कई कार्यवाही कर रही है। पर शेष राज्य सरकार अभी भी गहरी नींद में सोई हुई है। दूसरा केंद्र सरकार राज्य के हक में बाल सुरक्षा अधिकार देकर, कब तक अपना पल्ला इससे झाड़े रहेगी। अंतराष्ट्रीय मंच पर तो अपनी बेइज्जती राज्य सरकारों के असफलता के कारण ही झेलनी पड़ती है। जाहिर है बाल विवाह के साथ एक नहीं कई महत्वपूर्ण सवाल महिलाओं के साथ-साथ देश के शर्मिदगी से भी जुड़े हुए है।

सवाल है जिस तत्परता और सक्रियता के साथ आज असम के सरकारी संस्थान काम कर रहे है, वही चुस्ती पहले दिखाई होती तो आज हज़ारो-लाखों का जीवन बर्बाद होने से बच जाता। खेलने-कूदने के उम्र में मां बनने का बोझ उठा रही नाबालिग लड़कियों को दोखज में धकेलने वालों के खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए। आखिर एक चेतनाशील समाज इसके दुष्परिणामों से कैसे अनभिज्ञ रह सकता है? वे अभिभावकों भी सजा के हकदार है जो जानबूझकर अपनी बच्चियों की जान को जोखिम में डाल रहे हैं। धर्म, नस्ल और वर्गगत भेदभाव से उठकर सभी संबंधित दोषियों पर कारवाई होनी चाहिए। केवल असम ही नहीं देश के दूसरे राज्यों में भी एक कुप्रथा की बेदी पर स्वहा किया जा रहा है वहां सख्ती से कारवाई होनी चाहिए। बच्चियों के खिलाफ अपराध को लेकर पास्को एक्ट लगाने की कवायद तेज होनी चाहिए। बाल विवाह के अधेरी रात की सुबह तभी आएगी जब समाज बाल विवाह कानून से डरेगा और बच्चियों के हितों के संरक्षण के लिए जागरूक प्रहरी के तरह मुस्तैद होगा।

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