‘जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी’ एलआईसी की यह टैगलाइन तो आप ने पढ़ी और सुनी होगी। बीमा कंपनियों के व्यवसाय की शुरुआत भी शायद मनुवादी व्यवस्था के बीच से निकली है। इस देश में भविष्य के लिए बचत का सब से भरोसेमंद साथी माना जाता है ‘एलआईसी ऑफ इंडिया’। किसान और दिहाड़ी मजदूर से ले कर उच्च मध्यम वर्ग की रिस्क का एकमात्र हिमायती। अगर इसी जन्म को जीना चाहते हो या ब्राह्मणवाद से छुटकारा पा कर मानव जीवन का उपयोग करना चाहते हो तो अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे बीमा के रूप में बर्बाद करने की बजाय जब तक जिंदा है तब तक कर्मों के फल का आनंद उठाना चाहिए।
ब्राह्मणवाद दुनिया की ऐसी क्रूरतम व्यवस्था है जो न जिंदा लोगों को नोचने से परहेज करती है और न मुर्दों को। कर्महीनों का ऐसा जाल बुना हुआ है कि आस्था की चादर ओढ़ा कर हर गैर नैतिक कार्य को जायज ठहरा दिया जाता है। एक अदृश्य शक्ति का भय दिखा कर जनता को भेड़ों के झुंड की तरह हांक रहे हैं। यह इस देश के लोकतंत्र की, इस देश के संविधान रक्षकों की विफलता ही है कि बीमार होने पर नागरिकों के चिकित्सा की उचित व्यवस्था नहीं कर पाए। यह हमारे देश के हुक्मरानों की नाकामी है कि हम मर कर अपने बच्चों को जिंदा रहने की व्यवस्था करने को मजबूर है। किसानों की किसानीयत व नीति निर्माताओं का ज़मीर मरता है तो किसान बीमा कंपनियों की गुफाओं में माथा मार कर आत्महत्या करने को मजबूर होता है। मानवता का पेट भरने वाला खुद के पेट के लिए बीमा कंपनियों के हवाले हो चुका है।
बीमा ब्राह्मणवाद का दूसरा स्वरूप है, जहां मौत-बीमारी-घाटे का डर दिखा कर अरबों लूटे जाते हैं लेकिन लौटाने के रास्तों में पंडित से ले कर यमराज तक के दर्जनों दरवाजे खड़े कर दिए गए हैं ताकि लुटा-पीटा इंसान उन तक पहुंचते-पहुंचते हांफ जाए। फर्क सिर्फ इतना है कि पंडित पिछले जन्म की सजा व अगले जन्म की बेहतरी के सब्जबाग दिखा कर लुटता है और बीमा वाले सरकारी नाकामियों का डर दिखा कर लूटते हैं।
अगर बीमार हो गए तो इलाज कौन उपलब्ध करवाएगा? मर गए तो तुम्हारे बच्चों का क्या होगा? मां-बाप का क्या होगा? मतलब जो जीते हुए टैक्स भरा, वो तो लोकतांत्रिक देवताओं के हवाले हो चुका है। अपना अस्तित्व बचाना है तो बीमा जरूर करा लें। भारत की भूली-बिसरी जनता ने मनुवाद से निकलने की कोशिश में नवमनुवाद की तरफ रुख बड़ी आसानी से किया हुआ है। चमत्कारों की आस में सिमटी जनता ने डायवर्सन रकम दोगुनी करने या बीमारी में इलाज या मौत पर परिवार पालने के लालच में अपना वर्तमान बर्बाद कर डाला। आस्था की आड़ में पाखंड व अंधविश्वास फैला कर दान व दक्षिणा का जो बगीचा ब्राह्मणों ने सजाया था, उसी व्यवस्था का पूंजीवादी स्वरूप है बीमा।
जिस प्रकार सदियों से हम बीमारियों, समस्याओं का समाधान पाखंड के अड्डों में ढूंढते हुए खुद के वर्तमान व बच्चों के भविष्य को बर्बाद करते आए हैं, उसी प्रकार बीमा उस जकड़न से बाहर निकलने पर लूट का दूसरा जाल है। भारतीय समाज सदा सार्वजनिक व्यवस्था पर भरोसा करता आया है। इसलिए सार्वजनिक धार्मिक अड्डों से बाहर निकलने की कोशिश की तो लोकतंत्र द्वारा स्थापित सार्वजनिक उपक्रमों में भरोसा कर बैठे।
पिछले दिनों एलआईसी ऑफ इंडिया ने IDBI बैंक को बचाने की कोशिश में लाखों निवेशकों का पैसा गड्ढे में डाल दिया। भारत सरकार की तरफ से कोई गारंटी नहीं है कि यह पैसा वसूल नहीं हुआ तो एलआईसी को कैसे लौटाया जाएगा? I L&FS ग्रुप पर 91 हजार करोड़ रुपए का कर्ज है। 57 हजार करोड़ रुपए सार्वजनिक बैंकों के बकाया है। सरकार की तरफ से एलआईसी ऑफ इंडिया को इस ग्रुप की हालत सुधारने की जिम्मेदारी मिली है।
क्या करिएगा। पहले अगले जन्म का लालच दिखाकर पंडितों ने खूब लूटा है और अब बीमा की आड़ में छिप कर पंडित लूट को जारी रखे हुए है। मनुवाद का नवस्वरूप बीमावाद है। अगर नागरिक धर्म निभाना है, तो बीमा करवा कर निजीकरण में योगदान देने के बजाय अपने टैक्स का हिसाब मांगिए। जो टैक्स हम भरते हैं उस पैसे का उपयोग शिक्षा, चिकित्सा व बुनियादी जरूरतों के लिए न हो तो हम टैक्स भर क्यों रहे है?
क्या धार्मिक कोठों में बैठे कर्महीनों को दान दे कर, पालने की प्रथा को हम यूं ही जारी रखने की लाचारी में सिमट चुके हैं? धर्म के नाम पर दान व सुविधा हासिल करने के नाम पर बीमा एक ही सिक्के के दो पहलू है। बड़ी गजब की डाक व्यवस्था ईजाद की है इन्होंने। मसलन श्राद्ध। ब्राह्मण को खिलाओ और सीधे पुरखों के पेट में डिलीवरी। धर्म के नाम पर वैज्ञानिकता के खिलाफ इससे भद्दा मजाक और क्या हो सकता है? वर्तमान में जो समस्या है, उन की जिम्मेदारी पिछले जन्म पर और वर्तमान में कोई बगावत करने की सोचे, तो अगले जन्म में सजा का भय दिखा कर व्यवस्था को बनाए रखने की कोशिश।
बच्चा अजन्मा हो तो वहीं से वसूली की शुरुआत कर्मकांडों के नाम पर कर देते हैं। मौत पर भी अस्थि विसर्जन, दान-दक्षिणा आदि के नाम पर वसूली और फिर आत्माओं की तथाकथित काल्पनिक नगरी सजा कर हर वर्ष 15 दिवसीय खीर-पूड़ी-दान-दक्षिणा का इंतजाम। कुछ भी हो जाए मुफ्त में माल बटोरने की व्यवस्था बेशर्मी के साथ जारी है।
इन धर्म के धंधेबाजों के खिलाफ जब कोई बोलता या लिखता है, तो चोट आस्था पर नहीं इन के धंधे पर होती है। पूजा करना या करवाना कोई धर्म नहीं बल्कि ब्राह्मणों का धंधा है। मोची जूता बनाता है, धोबी कपड़े धोता है, बढई फर्नीचर बनाता है, यह सब उन का धर्म नहीं धंधा है। उसी प्रकार पूजा करना या करवाना ब्राह्मणों का धर्म नहीं सिर्फ धंधा है। इन के धंधे को, इन के रोजगार को, धर्म समझने की भूल मत करिएगा। अगर ब्राह्मण चाहे तो निस्वार्थ भाव से धर्म के प्रचारक बन सकते हैं। लेकिन धर्म के नाम पर पाखंड व अंधविश्वास फैला कर लोगों को धर्म का भय दिखा कर रंगदारी व वसूली का धंधा करना अधर्म है।
हर भारतीय संवैधानिक नागरिक का नैतिक कर्तव्य बनता है कि धर्म के नाम पर फैलते अधर्म को रोके। समझदार पढ़े-लिखे जागरूक लोगों का नैतिक कर्तव्य है कि भोली-भाली जनता को इन अधार्मिक लोगों के चंगुल से मुक्त करवाएं। धर्म के नाम पर जगह-जगह पैदा हुई रिश्वतखोर दलालों की सेना का इलाज करना लोकतंत्र व संविधान के हित में है। समानता, स्वतंत्रता व बंधुता की भावना को धरातल पर लाने के लिए धर्म की आड़ में हो रहे असंवैधानिक कृत्यों को हर हाल में बंद होना चाहिए। सब मानव बराबर के इंसान हैं। जातीय श्रेष्ठता के स्वघोषित देवताओं का धर्म के नाम पर पोषण करना बंद होना चाहिए।
श्राद्ध में पिंडदान नहीं बल्कि श्राद्ध का ही पिंडदान कर दीजिए। पूर्वजों के पेट को भरने वाली इस झूठी व्यवस्था से पिंड छुड़ाना ही असली धर्म है। धर्म के नाम पर कमा कर खाने वाला कभी धार्मिक नहीं हो सकता। कभी पूजनीय नहीं हो सकता। कभी उच्च नहीं हो सकता। असल में इन से धर्म को खतरा है और ये धंधा बचाए रखने के लिए बताते है कि धर्म खतरे में है। ये भेदभाव भरे शास्त्रों में आत्माओं की ट्रेन ले कर आ रहे हैं और आप लोग मिल कर इस ट्रेन को लौटा कर असली धार्मिक होने का परिचय दें।