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हिन्दी कविता: “मैं और गमन”

के उस रोज मैं निकम्मा सा था 

और उम्मीद एक गैर सा ख्वाब थी

नाकामयाबी का तो डर ही इतना था… 

के मेरी कोशिशें …

तो दूर की बात थी …

एक शाम उलझने आई 

मैं मेरी कोशिशों से रुबरू हुआ …

यू तो मंजिलों से मे अभी तक वाकिफ़ नहीं हुआ 

पर अब कोशिशों से अच्छी यारी है…

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