के उस रोज मैं निकम्मा सा था
और उम्मीद एक गैर सा ख्वाब थी
नाकामयाबी का तो डर ही इतना था…
के मेरी कोशिशें …
तो दूर की बात थी …
एक शाम उलझने आई
मैं मेरी कोशिशों से रुबरू हुआ …
यू तो मंजिलों से मे अभी तक वाकिफ़ नहीं हुआ
पर अब कोशिशों से अच्छी यारी है…
के उस रोज मैं निकम्मा सा था
और उम्मीद एक गैर सा ख्वाब थी
नाकामयाबी का तो डर ही इतना था…
के मेरी कोशिशें …
तो दूर की बात थी …
एक शाम उलझने आई
मैं मेरी कोशिशों से रुबरू हुआ …
यू तो मंजिलों से मे अभी तक वाकिफ़ नहीं हुआ
पर अब कोशिशों से अच्छी यारी है…