Site icon Youth Ki Awaaz

जोशीमठ की दरारें दरअसल हमारी सभ्यता के दिखावे की दरारें हैं

चौबीस-घंटे बिजली सबसे ज्यादा लुभावने चुनावी जुमलों में से एक है। आज से बीस साल पहले जहाँ दिल्ली मुंबई जैसे शहरों में भी चौबीस-घंटे बिजली नहीं रहती थी वहीं अब छोटे शहरों और गाँव में भी बिजली जाना पुरानी बात हो गई है। इस विकास से खुश होकर ही हम सरकारें चुन रहे हैं। सिर्फ बिजली ही नहीं, देश में खदानों से निकलते बॉक्साइट का भी बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है इस “विकास” में। हालांकि, हम सब जानते थे कि लाखों आदिवासी समुदाय जंगलों में इस खनन के खिलाफ लड़-मर रहे हैं हमें इस बात से कुछ खास फर्क नहीं पड़ता था। आखिर मुख्यधारा के समाज के लिए आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन और यहाँ तक कि जीवन की भी कुर्बानी कोई नई बात नहीं है। आजादी के तुरंत बाद जब हीराकुंड बाँध बना था तो नेहरू ने वहाँ रहने वाले लोगों से देश के हित में ‘त्याग करने’ का आह्वान किया था। दु:ख की बात यह है कि यह त्याग तब से अब तक चला ही आ रहा है। मुख्यधारा के समाज को हमेशा लगा कि यह आपदा उन तक नहीं आएगी। भले ही किताबों में पर्यावरण बचाव पे उन्होंने कई निबंध पढे और लिखे हों, चौबीस-घंटे बिजली और एसी का मोह छोड़ना उनके लिए असंभव था।

जोशीमठ उतना दूर नहीं जितना दूर जंगल पर निर्भर वे समाज थे, जिनके उजाड़ पर हमारी सभ्यता फल-फूल रही थी। वहाँ के लोग वैसे ही दिखते और रहते हैं जैसे हम और आप। उनकी परेशानियों को समझना और उससे जुड़ना हमारे लिए ज्यादा आसान है और इसी बहाने, हम अंततः शायद विकास की खोखली इमारत के भीतर झांक कर देखें।

सबसे पहले हम इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को देखें

जोशीमठ एक सदी-पुराने भूस्खलन के मलबे पर बसा हुआ है। इस वजह से उसपर किसी भी बड़े निर्माण को होने ही नहीं देना चाहिए था। वह साइज़्मिक ज़ोन-पाँच में आता है, जिसका अर्थ है कि यहाँ भूकंप का खतरा अत्यधिक है। इस इलाके के आस-पास छोटे भूकंप आते रहें हैं। 1999 में चमोली में एक बड़ा भूकंप आया था, जिसने जोशीमठ के आधार को हिला कर रख दिया था। वहाँ की नदियों से होने वाले अपरदन (पानी से होने वाला कटाव) के कारण भी वहाँ की मिट्टी ढीली हो चुकी थी।

Source: Twitter

यह सारी जानकारी सरकार के पास थी। 1976 में मिश्रा कमिशन की रिपोर्ट में इन खतरों को साफ तौर पर जाहिर किया गया था, उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि ऐसी भारी निर्माण की गतिविधियाँ बंद होनी चाहिए। इसके बावजूद वहाँ ये सब जोर-शोर से होता रहा और अनेकों नई परियोजनाएँ भी चालू की गई।

टूरिज़्म के नाम पर बड़े-बड़े होटल बने, प्रसिद्ध चार-धाम सड़क बनी। और इन होटलों और हमारे घरों तक बिजली भी आनी जरूरी थी तो बिजली पैदा करने के लिए तपोवन-विष्णुगढ़ पनबिजली परियोजना को भी मंजूरी दे दी गई। पर्यावरण ऐक्टिविस्ट विरोध करते रहे तो उन्हें “आन्दोलनजीवी” और विकास-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी की उपाधि दे दी गई।

जोशीमठ में पूँजीपतियों के लाभ के लिए जनता की कुर्बानी

बात विकास भर की ही नहीं है- इसके पीछे हजारों करोड़ रुपयों का खेल भी है। पनबिजली परियोजना पर निर्माण 2012 में शुरू हुआ और उसकी लागत का अनुमान 29,785 करोड़ रुपये था। 2013 और 2021 की बाढ़ में सारा निर्माण बह गया और 1500 करोड़ रुपये भी उसी के साथ बह गए। बाढ़ के बावजूद ये निर्माण जारी रहा। यह पैसा एशियन डेवलपमेंट बैंक से आया। इस परियोजना को सिक्युरिटी के रूप में दिखाकर एनटीपीसी ने हजारों करोड़ रुपयों की उगाही की है। यूनियन बैंक, एल आई सी, पंजाब नैशनल से लेके तमाम बड़े बैंकों ने इस के लिए लोन दिए हैं। यानि यह सारा पैसा हमारी-आपकी जेबों से जाता रहा है।

मजेदार बात यह है कि इस परियोज न को ग्रीन एनर्जी परियोजन के रूप में दिखाया जाता रहा है। सरकार का कहना था कि क्योंकि यह कोयले का इस्तेमाल नहीं करती-पनबिजली एक पर्यावरण-उपयुक्त (इको-फ़्रेंडली) तरीका है। पर्यावरण ऐक्टिविस्ट इसे ग्रीन-वाशिंग का नाम देते हैं- जब किसी पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाली चीज को सस्टेनेबल बनाकर पेश किया जाए और उससे मुनाफा कमाया जाए। पूंजीवाद की ये एक नई चाल है जिसमें वे बदलाव की शब्दावली का इस्तेमाल करके मुनाफाखोरी करते हैं।

जोशीमठ की दरारें दरअसल हमारी सभ्यता के दिखावे की दरारें हैं। होना तो यह चाहिए कि इससे हमारी आरामदेह नींद में खलल पहुंचे। हमें सरकार और पूँजीपतियों की मिलीभगत से बने इस विकास के एजेंडे का विरोध करना चाहिए – उन सब से साथ मिलकर, जो दशकों से यह विरोध कर रहे हैं। हमारे जीवनशैली में बदलाव की बातें होनी चाहिए और किस तरह इससे पर्यावरण को बर्बाद करने वाले तत्त्वों को दूर रखा जाए इसकी कोशिशें होनी चाहिए। लेकिन शायद होगा यह कि जलवायु परिवर्तन से बेघर हुए हजारों लोगों की सूची में जोशी मठ के निवासियों का भी नाम शामिल हो जाएगा और वे रिपोर्टों में जिक्र की जाने वाली एक संख्या बनकर रह जाएंगे। जोशीमठ अकेला नहीं हैं- याद कीजिए कि किस टूरिज़्म वाले हिल स्टेशन में आपको चौड़ी सड़कें और बड़ी इमारतें बनती नहीं दिख रही हैं? इस टूरिज़्म की कीमत हजारों करोड़ नहीं हजारों घर और हजारों जीवन भी हैं।

Exit mobile version