बिहार के वैशाली ज़िले की नीतू अपने ननिहाल में रहती है। 8वीं कक्षा में पढ़नेवाली नीतू महज 13 साल की एक बच्ची है। उसकी माँ, जोकि दिल्ली के किसी संस्था में काम करती है, पति और तीन बच्चों के साथ दिल्ली में रहती है। नीतू के पिता शराब के आदि हैं और यही वह वजह हैं जिसके कारण मात्र 9 साल की उम्र में नीतू अपनी माँ की आँचल से दूर हो गयी।
नानीघर में भी नीतू पर मुसीबत आई
नीतू अपने चारों बहन-भाइयों में से सबसे बड़ी है और इसलिए उसकी माँ नहीं चाहती थी कि पिता के शराब के कारण उसकी पढ़ाई पे कोई आंच आये। इसलिए नीतू का, उसकी नानी के देखरेख में गांव के पास के ही स्कूल में दाखिला करवाया गया और वो अपने ननिहाल में ही रहने लगी। नीतू के ननिहाल में लोग बहुत है। सब आज भी संयुक्त परिवार में रहते हैं। गांव के वातावरण एवं संस्कृति ने नीतू के पहनावे और उसके हाव-भाव पूरी तरह बदल दिया था। वो अधिकतर चुप रहने लगी थी। वहीं दिल्ली में रह रहे उसके तीन भाई-बहन सरकारी स्कूल से ही अच्छी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। समय किसी के लिए नहीं ठहरता। दसवीं कक्षा में आने के साथ ही उसकी नानी उसके शादी के लिए सभी रिश्तेदारों से चर्चाएं करने लगी। तलाश ऐसे दूल्हे की, जो दहेज कम ले बाकि उम्र कुछ भी हो। गांव में लड़कियों को स्कूल के आलावा ज्यादातर कही भी अकेले नहीं छोड़ते, घर में भी नहीं। इसलिए कई दफा तो ऐसा हुआ जब नीतू पढ़ रही होती और बगल में उसकी नानी फ़ोन पे उसकी शादी की बात कर रही होती थी, जिस कारण वो अपनी पढ़ाई में ध्यान नहीं बढ़ा पा रही थी और इसी कारण वो हर रोज रात फ़ोन पे अपनी माँ से एक ही सवाल किया करती कि “माँ आप मेरे पास कब आओगे?” तभी माँ ममतामयी शब्दों से कहती है, “बेटा बस कुछ दिन और। छठ बस आने ही वाला है, मैं हर साल की तरह इस बार भी छठ मानने तेरे पास ही आउंगी।”
“माँ, मुझे अपने साथ ले चलो”
उसकी माँ को हो रहे चीजों के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उन्हें बस इतना पता था की उनकी बड़ी बेटी बिना किसी रूकावट के अच्छे से पढ़ाई कर रही है। देखते ही देखते आखिर वो दिन आ ही गया जब छठी मैया के आगमन से पूर्व उसकी माँ नानी घर आयी। माँ और अपने छोटे भाई-बहन से मिलकर उसकी ख़ुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। और वो खुश हो भी क्यों ना? आखिर वो पूरे एक साल बाद अपने परिवार से मिल रही थी। माँ के आने के बाद दिन ऐसे बीते कि छठ कब शुरू हुआ और कब ख़तम पता ही नहीं चला। उसी शाम नीतू की माँ दिल्ली वापस जाने की खबर लेकर नीतू के पास आयी और बोली, “बेटा हम कल दिल्ली वापस जा रहे हैं तुझे कुछ अपने लिए चाहिए तो मैं अभी मंगा देती हूं।” तब उससे रहा ना गया और माँ से रो-रो कर बोलने लगी कि, “माँ मुझे कुछ भी नहीं चाहिए बस आप मुझे अपने साथ ले चलो..।”
सिसकते हुए उसने अपनी माँ को सब कुछ बता दिया, जिसके बारे में उन्हें खबर तक नहीं थी। सारा कुछ नीतू के मुहं से सुनने के बाद वो खुद अन्दर ही अन्दर सोचने लगी की लोगों के जहन में आज भी ये बात हैं की नीतू के पिता शराबी है और इसलिए तीनों लड़कियों की शादी जितनी जल्दी हो जाये उतना बेहतर हैं। अपने सोच से बाहर निकल वो नीतू से बोली आज मैं तुझे एक कहानी सुनाती हूं।
कैसे बनी नीतू “शराबी की बेटी”
8वीं कक्षा के बाद मेरी पढ़ाई पे रोक लगा दी गयी ये बोलकर कि हाई स्कूल यहाँ से अधिक दूर है और दूसरी ओर मेरी शादी के लिए आया प्रस्ताव मेरी पढ़ाई पे रोक का दूसरा कारण बना। माँ भी उन दिनों हमेशा बीमार ही रहा करती थी और हमारे यहाँ शादी-ब्याह के मामले में लड़कियां चुप ही रहती है। अगली शाम जब पिताजी माँ से बातें कर रहे थे तभी मैंने सुना, “ शोभा की माँ, लड़का बहुत अच्छा है। उसने ज़ेब में तीन कलम लगा रखी थी; जाहिर है कि वो हमारी शोभा से अधिक पढ़ा लिखा है, और उसके पास खुद की सुनार की दुकान भी है। हमारी शोभा तो वहां राज करेगी, लड़का एकदम खरा सोना है।” ये सुनने के बाद मन थोड़ा खुश हुआ।
हमारे यहाँ लड़की की शादी में देर नहीं करते इसलिए मेरी शादी भी जल्द ही करा दी गयी। बहुत सारे अरमानों के साथ जब मैं अपनी ससुराल आयी तो एक-एक कर मैं सारी सच्चाइयों से दो-चार होने लगी। ना तो उनके पास कोई सुनार की दुकान थी और ना ही वो मुझसे अधिक पढ़े-लिखे थे। ये सब जानने के बाद दुःख तो बहुत हुआ लेकिन मन में एक उम्मीद थी कि जब माँ को ये सब पता चलेगा तो वो जरुर कुछ करेंगी। लेकिन आश्चर्य तो तब हुआ जब मेरी माँ ने ही मुझे चुपचाप इस रिश्ते को निभाने के लिए कहा। इतना सब अचानक होने के बाद मुझे सही-गलत कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। तब ज्यादा उम्र नहीं थी मेरी। जैसे-तैसे जिंदगी चल रही थी।
धीरे-धीरे कलेंडर के पन्नों के साथ मेरी जिंदगी भी बदली और 18 वर्ष की उम्र तक मैं दो बच्ची की माँ बनी। मैं बहुत खुश थी। लेकिन मेरे पति ने शराब पीना शुरू कर दिया था। अपने पति का रवैया देख मैंने सोच लिया था की मैं उनकी नसबंदी करवाउंगी। लेकिन मेरे ससुरालवालें मेरी बात से सहमत नहीं थे। इसलिए मैंने अपनी माँ से नसबंदी के लिए थोड़े पैसों की मदद मांगी लेकिन माँ का भी कहना यही था कि एक लड़का होने दे। समाज की रुढ़िवादी सोच के तले मैं खुद को बहुत बेबस महसूस कर रही थी और फिर क्या था, एक लड़के की चाह में मैं चार बच्चों की माँ बनी। एक बेटा होने के बाद भी कुछ बदलने की जगह घर में ऐसा ग्रहण लगा की मुझे राशन से नमक तक तोलकर दिया गया क्योंकि मेरे पति घर के खर्च में अपनी भागीदारी नहीं देते थे।
लेकिन मेरी सहनशक्ति अपनी अंतिम चरण पे तब पहुंची जब उस रात तुझे देख किसी व्यक्ति ने गांव की महिला से तेरे पिता के बारे में पूछा तब उस औरत ने तेरा परिचय ‘एक पीनेवाले (शराबी) की बेटी’ कहकर दिया था। तभी मैंने सभी से आशाएं तोड़ निश्चय किया कि मैं अपने बच्चों के लिए खुद ही काम करुँगी। और इसी हिम्मत के साथ मैं दिल्ली आयी। वहां भी तेरे पापा का रवैया वैसे का वैसा ही रहा। मैं चाहती थी की तू अच्छे से पढ़े और मेरी सहारा बने। इसलिए मैंने तुझे खुद से दूर कर दिया।
अपने बीते दिन के लम्हों को बताते हुए नीतू की माँ की आवाज लड़खड़ा रही थी और आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैंने अपनी माँ को इस तरह से रोते हुए पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें इस तरह देख मैं भी उन्हें पकड़कर रोने लगी। मुझे रोता देख मेरे आंसू पोछते हुए माँ बोली। “बेटा, बस कुछ दिन और। तेरी 10वीं की परीक्षा के बाद मैं तुझे अपने साथ दिल्ली ले जाउंगी। ये सब जानने के बाद जी करता है की मैं तुझे अभी अपने साथ ले जाऊं लेकिन तेरी 10वीं की परीक्षा बहुत जरुरी है। अगले दिन माँ के जाने के बाद नीतू बिल्कुल भी नहीं रोयी। उसके मन में माँ की बोली बात और उनकी कहानी ने उसे इतनी हिम्मत दी कि वो जी-जान से अपनी परीक्षा की तैयारी में लग गयी। बस फिर क्या? नीतू अपनी परीक्षा पूरी करने के बाद, सबसे विदा ले माँ के साथ दिल्ली चली गयी।
क्या बेटियां इतनी बोझ होती हैं कि उनके जीवन से सम्बंधित कोई भी फैसला बिना कोई जांच -पड़ताल किये बस यूँ ही ले लिया जाता है? क्या ये नीतू की गलती है कि वो एक शराब पीनेवाले की बेटी है?
लोग कहते है बेटा वंश को आगे लेकर जाता हैं? मैं कहती हूं। बेटी है तो वंश है।