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“NDTV का अदानी के हाथों में जाना एक गहरे संकट की आहट है”

अदानी और एनडीटीवी चैनल

NDTV पूंजीवादी मीडिया का पुरोधा रहा है। और अंत में उसी भस्मासुर के मुंह में NDTV अपने लाल बिंदूवाले भरोसे के निशान के साथ समा गया है। शुद्धतावादी नज़रिए से NDTV की आलोचना करने की अपेक्षा हमें इस प्रक्रिया को समझने की ज़रूरत है कि कैसे उदारवाद में उदारता की सीमा पूंजी के निहित स्वार्थों से तय होती है।

समाज, राजनीति, और अर्थव्यवस्था के आंतरिक और परस्पर संबंधों और सूक्ष्म, मध्य, और वृहत संरचनाओं की समझ और संदर्श के बिना वर्तमान समय का विश्लेषण करना ख़ुद को भ्रमित रखना है। NDTV के मालिकाना हक़ का हस्तांतरण इसी संदर्भ में समझा जाए तो बेहतर है। यह उदारवाद के गहराते हुए संकट की एक और बानगी है। 

NDTV गरीबों और हिंदी भाषियों का चैनल

हालाकि NDTV ने भरोसे का एक बिंदु ही सही, उसे बचाए रखा, यह प्रशंसा योग्य है। मध्यम और उच्च–मध्यम वर्ग के इस न्यूज़ चैनल ने अनेकों अच्छे कार्यक्रम अपने देखने वालों तक पहुंचाए। लेकिन यह भी सच है कि यह चैनल अंग्रेज़ी–दा चरित्र का चैनल बना रहा। ज़रूर यहां काम करने वाले पत्रकारों ने इस चैनल के वर्ग–चरित्र से बाहर निकल समाज के उन तबकों को भी टीवी पत्रकारिता में जगह दी, जो न केवल समाज और अर्थव्यवस्था के हाशिए पर थे, बल्कि उच्च–वर्गीय मीडिया की समझ से भी दूर थे। इसी कड़ी में एनडीटीवी इंडिया, NDTV के हिंदी चैनल के काम को देखा जाना चाहिए।

 NDTV के अंग्रेज़ी–दा और उच्च–वर्गीय चरित्र को एनडीटीवी इंडिया ने एक तरह से नकारा। और NDTV को देशज पहचान दिलाई। पूर्वी दिल्ली की प्रवासी मज़दूरों की रिहाइश, बुंदेलखंड की भुखमरी, सरकारी अस्पतालों की जर्जर हालत, बैंक कर्मियों की समस्याएं, आंगनवाड़ी की महिला कामगारों का आंदोलन, सभी को टीवी पर जगह मिली।

उदारवादी अर्थव्यवस्था से जन्मा हुआ एक चैनल, पहले उदारवाद से पनपी अर्थव्यवस्था की चकाचौंध दिखाता है, उससे जन्मी संस्कृति की पैरवी करता है, और जब उसका भाषाई रूपांतरण होता है, तो उसी अर्थव्यवस्था से जन्मी विषमता को भी दर्शाता है। किंतु उसकी अवधि सीमित करदी जाती है। 

भाषा की मर्यादा और NDTV

रवीश कुमार के काम को इस संदर्भ में देखने से मालूम होता है कि कैसे उन्होंने एनडीटीवी इंडिया के माध्यम से पूरे टीवी मीडिया के वर्ग–चरित्र को बदला। जहां दूसरे चैनलों और एंकरों ने वर्ग–चरित्र को बदलने के नाम पर भाषा की मर्यादा को गिराया, चर्चा के विषयों को हल्का बनाया, वहीं रवीश कुमार ने विभिन्न वर्गों के आर्थिक और सामाजिक हितों को न सिर्फ़ उजागर किया, उसकी पैरवी भी की।

मज़दूर, छोटे–व्यापारी, किसान, आंगनवाड़ी कामगार, बैंक कर्मी, शिक्षक, चिकित्सक, बेरोजगार युवा, सभी को रवीश के प्राइम टाइम में जगह मिली, लेकिन भाषा की मर्यादा हमेशा बनी रही। रवीश ने अपनी भाषा से हिंदी–भाषियों को समृद्ध बनाया, और अपने दर्शकों का सम्मान बनाए रखा, जो चैनल और एंकर यह कहकर ओछी भाषा और गंदे विषयों पर चर्चा करते हैं कि समाज ऐसा है, वास्तव में उन्होंने समाज को न समझा है और न उसे सम्मान दिया। 

कमियां और रवीश कुमार

कमियां किसमें नहीं होतीं! रवीश कुमार में भी होंगीं। NDTV में भी रही होंगीं। उसके बावजूद भी बदलती अर्थव्यवस्था और समाज के झंझावात में कुछ मर्यादाओं का तटबंध रवीश कुमार और NDTV ने बनाए रखा। एक आम नागरिक होने की हैसियत से बस उसके लिए ही मैं उनका शुक्रिया अदा करना चाहूंगा।

दुनिया भर में उदारवाद और उदारवादी लोकतंत्र अपने आंतरिक संकटों, अपने देश में पनपी मज़बूत दक्षिणपंथी ताकतों, और वैश्विक स्तर पर अधिनायकवादी सत्ताओं से लड़ रहा है, और फ़िलहाल प्रतिदिन परास्त हो रहा है। ऐसे समय में NDTV जैसे प्रतिष्ठान का पूर्णरूपेण एक बड़े पूंजीपति के हाथों में चले जाना और इस हस्तांतरण के कारण उस प्रतिष्ठान से रवीश कुमार जैसे पत्रकार–एंकर का इस्तीफ़ा दे देना, व्यथित तो करता ही है। फिर रवीश कुमार के ही शब्दों की याद हो आती है:

“आज की शाम एक ऐसी शाम है जहां चिड़िया को उसका घोंसला नज़र नहीं आ रहा। क्योंकि उसका घोंसला कोई और ले गया है। मगर उसके सामने थक जाने तक एक खुला आसमान ज़रूर नज़र आ रहा है।” 

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