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“जाति व्यवस्था खत्म करने की जिम्मेदारी इस देश के ऊंची जाति वालों की है”

ambedkar

असमानता एक ऐसा अभिशाप है जो वैश्विक स्तर पर हर समाज में निहित होता है l इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाये तो ये हर देश, हर समाज तथा हर कौम में एक दीमक की तरह समाहित रहा है

उदाहरण के तौर पर अगर देखे तो युरोपियन देशों में गोरे – कालो के बीच, जर्मनी के यहूदियों और ज्यूस के बीच तथा भारत में तो कदम कदम पर देखने को मिल जाता है

भारत में असमानता के आधार

भारत में दिखने वाली असमानताएं प्रमुखतः जाति आधारित, धर्म आधारित, आर्थिक आधारित तथा कल्चर आधारित रही है, जिसमें जाति आधारित तथा धर्म आधारित सबसे ऊपर रखना उचित होगा

अगर यूरोप की बात करे तो वहां की जो श्वेत व अश्वेतों के बीच असमानता की जो खाई थी, वो लगभग खत्म हो रही है और अगले कुछ दशकों में शायद पूरी तरह खत्म भी हो जाए, परन्तु भारत में जो असमानताएं है उसे खत्म करने की पहल ना तो हम कर रहे है और ना ही यहां की व्यवस्था खत्म होने देती है

आज़ादी के बाद से इस खाई को भरने की कोई खास कोशिश नहीं की गयी और अगर की भी गयी तो सिर्फ़ काग़ज़ी तौर पर ना की सामाजिक तथा मानसिक तौर पर जो की सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है

असमानता और भारतीय वर्ण व्यवस्था

भारत में लोगों के बीच प्रमुख स्तर पर जो असमानताएं हैं, उसका सबसे बड़ा श्रोत यहां की प्राचीन काल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जहां लोगों के पैदा होने से पहले ही समाज में रह रहे लोगों से अलग कर देती है या यूं कहे कि माँ के गर्भ में ही यह तय हो जाता है की वह क्या कहलायेगा, किस धर्म का होगा, किस जाति का होगा तथा वह किससे शादी करेगा इत्यादि।

क्या है वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था रही है जिसमे यह पाठ पढ़ाया जाता है की एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से कितने प्रकार से असमान है l उनमें मानसिक तथा सामजिक रूप से कितनी असमानताये हैं या यूँ कहे की उनके बीच कितनी दूरिया हैं और उन दूरियों को बरकरार रखने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की है l

इस व्यवस्था के द्वारा लोगों के दिमाग में एक खास तरह का सॉफ्टवेयर फिट किया जाता है, जो की पीढ़ी दर पीढ़ी दूसरों में ऑटोमेटिक ट्रांसफर होता रहता है।

हालांकि काग़ज़ी तौर पर यह व्यवस्था अब नहीं है, परन्तु आपको इससे, इस समाज में (भारत) कदम कदम पर मुलाकातें होती रहेंगी तथा  समाज में निहित यह व्यवस्था आपसे चीख चीख कर कहेगी कि

  “हम हैं, हम हैं, तुम्हें पता नहीं है लेकिन हम हैं ”

ज़मीनी स्तर पर कब लागू होंगी योजनाएं?

असमानता के मुख्य श्रोत, इस व्यवस्था को मानसिक तथा सामजिक रूप से खत्म करने की योजनाएं होनी चाहिए l ऐसा नहीं है की आज़ादी के बाद से इस व्यवस्था को खत्म करने के लिए प्रयास नहीं किये गए,  किये गए लेकिन सिर्फ उन लोगों के द्वारा जो इस व्यवस्था के दुष्परिणाम से ग्रसित है।

संविधान में काफी सारे प्रावधान भी दिये गए हैं, जो की इस व्यवस्था को सिरे से खारिज़ करता है, परंतु इसे ज़मीनी स्तर पर लागु करने वाले भी तो इसी समाज के जिम्मे है और उनकी मानसिक तथा सामजिक नज़रिया भी तो वही है जो पीढ़ी दर पीढ़ी ऑटोमेटिक ट्रांसफर हुई हैं।

असमानता के इस खाई को अगर भरना है तो हमारे समाज के उन तबको को आगे सबसे आगे आना चाहिए जो इस व्यवस्था की मलाई सदियों से खाते आ रहे है l हालाँकि पहल करने की जरूरत पूरे समाज को है परंतु उनकी ज़िम्मेदारी थोड़ी ज्यादा है क्योंकि जब तक वो इसके फ़ायदे लेते रहेंगे तब तक इस व्यवस्था के दुष्परिणाम को समझ नहीं पाएंगे

समाज में जागरुकता फैलाने की पहल होनी चाहिये, जिसमें लोगों को यह बताया जाना चाहिए की हम सब एक हैं, एक समान हैं, ना कोई छोटा बड़ा, ना कोई ऊंच नीच, और ना ही कोई भेद भाव और यह कागज़ी नहीं बल्कि सामाजिक तथा मानसिक पहल होनी चाहिए।

 

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