भारत और लोकतंत्र एक दूसरे के पर्याय माने जाते हैं।पिछले कुछ सालों में मीडिया और लोकतंत्र के भी पैमानों में बड़ा बदलाव देखने को मिला है। देश में घट रही साम्प्रदायिक, धार्मिक और सम्वेदनशील घटनाएं, सरकार, प्रशासन, मीडिया और न्यायपालिका पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है।वर्तमान दौर में, बहुतेरे मीडिया घराने सिर्फ सूचना देने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि देशभक्ति और राष्ट्रहित के आड़ में पार्टी विशेष का समर्थन करने के लिए इस हद तक पहुँच गए हैं, कि उनकी प्रासंगिकता भी सवालिया निशान के घेरे में हैं।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ भले ही माना जाता है, लेकिन वो अपने दायित्व से इतर अन्य तीन स्तम्भ की भूमिका निभा रहा। मीडिया के द्वारा, बनाए जा रहे माहौल, ख़ुद को न्यायपालिका समझ बैठना, एंकर का प्रवक्ता और हीरो बनना, बुनियादी मुद्दो को छोड़कर, पेड और एजेंडा की ख़बर को बढ़ावा देना, मीडिया को वैश्विक मीडिया स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में 150वें स्थान पर पहुंचा दिया है।
हाल ही में एक पत्रकार को अरेस्ट करने दूसरे राज्य से पुलिस आती है, क्या कभी किसी ने ऐसा सोचा होगा कि देश में लोकतंत्र और आजादी के बाद यह भी दिन आएगा, जब पत्रकारों के बोल और कारनामे के कारण, ऐसी परिस्थिति पर पैदा होगी? देश दुनिया का डाटा देकर अपने बात को मजबूती से रखने वाला मीडिया, अपने डाटा में सुधार करेगा ?